Monthly Archives: September 2018

ॐ पूज्य बापू जी का पावन संदेश


ऋग्वेद का वचन है, उसे पक्का करें- युष्माकम् अन्तरं बभूव। नीहारेण प्रावृता…

‘वह सृष्टिकर्ता आत्मदेव तुम्हारे भीतर ही है और अज्ञानरूपी कोहरे से ढका है।’

हे मनुष्यो ! अपना असली खजाना अपने पास है। जहाँ कोई दुःख नहीं, कोई शोक नहीं, कोई भय नहीं ऐसा खजाना तो अपने आत्मदेव में है। तुम (अज्ञानरूपी कोहरे को हटाकर) अपने चेतनरूप, आनंदरूप परमात्मसद्भाव को जान लो और यह मनुष्य जीवन उसी के लिए मिला है। श्रीकृष्ण ने कहाः अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्.…. किसी से भी अपने मन में द्वेष न रखो। अगर अपना कल्याण चाहते हो, अपना हित चाहते हो, अपनी महानता जगाना चाहते हो, भय को मिटाना चाहते हो तो अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्…. किसी से भी द्वेष नहीं करो। तो क्या करें ?

बोले, जो श्रेष्ठजन हैं, महापुरुष हैं, जो सत्यनिष्ठ हैं, ईश्वर की तरफ जा रहे हैं, समाज की भलाई में लगे हैं उनसे मैत्री करो और जो तुम्हारे से छोटे हैं, तुम ऑफिसर हो या सेठ हो या घर के बड़े हो तो छोटों पर करूणा करो। उनकी गलती-वलती होगी लेकिन उनको स्नेह दे के उन्नत करो। मैत्री करो, करूणा तो करो लेकिन ‘यह मेरा बेटा है, यह मेरा फलाना है….’ श्रीकृष्ण बोलते हैं- नहीं, कोहरा हटेगा नहीं। निर्ममो…. ममता न रखो, निरहङ्कारः… अहंकार भी मत करो शरीर में, वस्तुओं में क्योंकि तुम्हारा शरीर पहले था नहीं, बाद में रहेगा नहीं, अभी भी नहीं की तरफ जा रहा है। तो अहंकार करोगे तो कोहरा होगा। निर्ममो निरहंङ्कारः…

श्रीकृष्ण ने बहुत ऊँची बात कह दीः समदुःखसुखः क्षमी। दुःख आ जाय तो उद्विग्न न हो जाओ, सुख आ जाय तो उसमें फँसो मत।

अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्रः करूण एव च। निर्ममो निरहंङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।। (गीताः 12.13)

यह करेंगे तो आप कोहरे के पार अपने सुखरूप, ज्ञानरूप, चैतन्यरूप आत्मवैभव को पाने में सफल हो जाओगे।

यह बात रामायण ने अपने ढंग से कही। जो सत्संग करता है और ईश्वर की तरफ यात्रा करता है, मेटत कठिन कुअंक भाल के….. उसके भाग्य के कुअंक मिट जाते हैं। ‘प्रारब्ध में ऐसा लिखा है, वैसा लिखा है….’ लेकिन व्यक्ति इस रास्ते चलता है तो प्रारब्ध के दुःखद दिन भी उसको चोट नहीं पहुँचा सकते। व्यवहार काल में भले राम जी राज्य छोड़ के वन गये, ‘हाय सीते !… हाय भैया लक्ष्मण!….’ किया लेकिन अंदर में दुःख नहीं हुआ। गांधी जी कई बार अंग्रेजों के कुचक्र के शिकार हुए लेकिन भीतर दुःखी नहीं हुए। क्यों ? कि ‘मैं जो भी काम कर रहा हूँ, मेरे राम की प्रसन्नता के लिए, ज्ञान के लिए कर रहा हूँ।’ उनका उद्देश्य भारतवासियों में और सबमें बसे हुए रामस्वरूप को पहचानने का था। सुबह-शाम प्रार्थना भई करते और शांत भी होते। तो अपने जीवन में उतार-चढ़ाव आयें तो अशांत नहीं होना और राग-द्वेष में फँसना नहीं है। आत्मवैभव को हम पहचानेंगे। इसका सरल उपाय है कि रात को सोते समय ‘हे परमात्मा ! तुम मेरे अन्तारात्मा हो, मैं तुम्हारा हूँ।’ जैसे पिता को, माता को बोलते हैं न, कि ‘मैं तुम्हारा हूँ’ तो उनका हृदय खिलता है, ऐसे ही आत्मदेव प्रसन्न होंगे। ठीक है ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 2 अंक 309

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मोहरूपी दलदल से पार हो जाओ-पूज्य बापू जी


भगवान गीता (2.52) में कहते हैं-

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।

जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी (अज्ञानरूपी) दलदल से भली प्रकार पार हो जायेगी तब तुम सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से उपराम हो जाओगे और परम पद  में ठहर जाओगे।

दलदल में पहले आदमी का पैर धँस जाता है फिर घुटने, जाँघें, नाभि, फिर छाती, फिर पूरा शरीर धँस जाता है। ऐसे ही संसार की दलदल में आदमी धँसता है- ‘थोड़ा सा यह कर लूँ, यह देख लूँ, थोड़ा सा यह खा लूँ, यह सुन लूँ….।’ प्रारम्भ में बीड़ी पीने वाला जरा सी फूँक मारता है, फिर व्यसन में पूरा बँधता है। शराब पीने वाला पहले जरा सा घूँट पीता है, फिर पूरा शराबी हो जाता है। ऐसे ही ममता के बंधनवाले ममता में फँस जाते हैं। ‘जरा शरीर का ख्याल करें, जरा कुटुम्बियों का ख्याल करें….।’ जरा-जरा करते-करते बुद्धि संसार के ख्यालों से भर जाती है। जिस बुद्धि में परमात्मा का ज्ञान होना चाहिए, परमात्मशांति भरनी चाहिए, उस बुद्धि में संसार का कचरा भरा हुआ है। सोते हैं तो भी संसार याद आता है, चलते हैं तो भी संसार याद आता है, जीते हैं तो संसार याद आता है और मरते हैं तो भी संसार ही याद आता है।

सुना हुआ है स्वर्ग और नरक के बारे में, सुना हुआ है भगवान के बारे में। यदि बुद्धि में से मोह हट जाय तो स्वर्ग आदि का मोह नहीं होगा, सुने हुए भोग्य पदार्थों का मोह नहीं होगा। मोह की निवृत्ति होने पर बुद्धि परमात्मा के सिवाय किसी में भी नहीं ठहरेगी। परमात्मा के सिवाय कहीं भी बुद्धि ठहरती है तो समझ लेना कि अज्ञान जारी है। अहमदाबादवाला कहता है कि ‘मुंबई में सुख है।’ मुंबई वाला कहता है कि कोलकाता में सुख है।’ कोलकाता वाला कहता है कि ‘काश्मीर में सुख है।’ काश्मीर वाला कहता है कि ‘शादी में सुख है।’ शादी वाला कहता है कि ‘बाल बच्चों में सुख है।’ बाल बच्चों वाला कहता है कि ‘निवृत्ति में सुख है।’ निवृत्तिवाला कहता है कि ‘प्रवृत्ति में सुख है।’ मोह से भरी हुई बुद्धि अनेक रंग बदलती है। अनेक रंग बदलने के साथ अनेक-अनेक जन्मों में भी ले जाती है।

जब तक बुद्धि में मोह (अज्ञान) का प्रभाव है तब तक जीव बंधन और दुःखों का शिकार बनता है। जितने अंश में मोह प्रगाढ़ है उतने अंश में वह दुःखद योनियों में और दुःखद अवस्थाओं में भ्रमित होकर दुःख भोगता है।

संत तुलसीदास जी ने कहा हैः

मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

मोह सब व्याधियों का मूल है। उसी से (जन्म-मरण आदि रूपी महादुःख के) अनेक शूल उत्पन्न होते हैं।

उस सच्चिदानंद परब्रह्म-परमात्मा के अनुभव के बिना मोह जाता नहीं और मोह गये बिना अनुभव होता नहीं। (मोह का अर्थात् अज्ञान का नाश और परमात्मा का अनुभव होना – दोनों एक ही बात है। और ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु की सेवा, सत्संग व सान्निध्य से, उनकी कृपा से अज्ञआनरूपी आवरण का नाश होता है अर्थात् परमात्मानुभव होता है।) जो देखे, सुने, भोगे हैं उन विषयों, व्यक्तियों, प्राणियों व पदार्थों का आपने आज तक जो कुछ अनुभव किया उसका आकर्षण और जिनेक बारे में आपने केवल सुन के एहसास किया कि ‘स्वर्ग ऐसा होता है… योग करने से ऋद्धि-सिद्धि मिलती है और ऋद्धि-सिद्धि के सामर्थ्य ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं….’ अगर बुद्धि का मोह ठीक से दूर हो गया तो बाकी सब सुख-भोगों से तो  क्या, योग की ऋद्धि-सिद्धि से आपको उपरामता आ जायेगी।

योग का सामर्थ्य तो अदभुत है लेकिन बुद्धि का मोह अगर पूर्ण निवृत्त हो गया तो फिर ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग, यह-वह कुछ नहीं… उससे भी पार हो जाओगे। जैसे निर्धन धनवान होने को लालायित होता है, अयोगी योगी होने को लालायित होता है लेकिन योगियों की भी अवस्थाएँ होती हैं, धनवानों की भी अवस्थाएँ होती हैं…. ये सब अवस्थाएँ हैं। ये अवस्थाएँ तब तक आकर्षित करती हैं जब तक बुद्धि में मोह है। बुद्धि का मोह भली प्रकार गलित हो गया तो किसी भी अवस्था में आपको आकर्षण नहीं रहेगा, आप ऐसे परम पद को पायेंगे। ब्रह्मा-विष्णु-महेश और आप एक हो जायेंगे। आप और ब्रह्मांड दो नहीं बचेंगे, एक हो जायेंगे। यह बहुत ऊँची स्थिति है।

तो अब इस मोह की चद्दर को हटाने का प्रयास करो। आत्मशक्ति की अग्नि सबके भीतर छुपी है लेकिन अविद्या और वासना की राख से ढकी है। उस राख को हटाओगे तो आत्मबल की अग्नि प्रतीत होगी, ब्रह्मविद्या की ज्योति जगमगा उठेगी, जिससे सारे कर्म उसी समय भस्मीभूत हो जायेंगे।

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मासात्कुरुते तथा।।

हे अर्जुन ! जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है।’ (गीता 4.37)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 309

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भक्तों की भक्ति को कैसे पुष्ट करते हैं भगवान व गुरु !


पूज्य बापू जी

भगवान रामानुजाचार्यजी के शिष्य थे अनंतालवार (अनंतालवान)। वे तिरुपति (आंध्र प्रदेश) में रहते थे। वहाँ तिरुमला की पहाड़ी पर भगवान वेंकटेश्वर का मंदिर था। डाकू-चोर के भय से लोग सूरज उगने के बाद ही वहाँ जाते थे और शाम को आ जाते थे लेकिन रामानुजाचार्यजी ने अपने शिष्य को आदेश दियाः “आलवार ! तुम पहाड़ी पर रहकर तिरुपति भगवान (भगवान वेंकटेश्वर) की पूजा करो !”

आलवार ने वहीं छोटा-मोटा मकान बनाया और तिरुपति भगवान की पूजा करने लगे। वे और उनकी पत्नी आसपास की जमीन ठीक करते, पौधे बोते, तुलसी बोते…. ऐसा करते। एक लड़का आया, बोलाः “आलवार ! मेरे को काम पर रखोगे ?”

आलवार ने सोचा, ‘इतना सुकोमल लड़का क्या काम करेगा !” बोलेः “जाओ, तुम छोटे बच्चे हो। मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता नहीं है, जाओ…. अरे जाओ न !”

उन्होंने बड़ी-बड़ी आँखें दिखायीं तो वह बच्चा चला गया।

दूसरे दिन वह बालक आलवार की पत्नी के पास आया, बोलाः “माता जी ! देखो, तुम पौधे लगाती हो न, मैं भी मदद करता हूँ। मुझे कुछ सेवा दो। मेरी सेवा जो करते हैं न, मैं उनकी सेवा करता हूँ तो मुझे अच्छा लगता है।”

बालक धीरे-धीरे छुप के मदद करने लगा। वह बाई खाना-पीना दे दे तो खा लेता और सेवा बड़ी तत्परता से करता था। एक दिन आलवार की नज़र पड़ गयी, ‘अरे, इसको मना किया था, काहे को आया सेवा करने को ?’ यह सोचकर उस लड़के को बुलाने के लिए उन्होंने एक कंकड़ उठा के उसकी और फेंका तो उसके सिर में लग गया और खून बहने लगा। वह लड़का भागा और उनकी आँखों से ओझल हो गया।

उधर मंदिर में क्या हुआ कि भगवान तिरुपति की मूर्ति से खून बहने लगा। पुजारी और भक्तों में खलबली मच गयीः ‘ओ हो ! यह क्या हो गया !…. कैसे हो गया!….’ इतने में एक बालक के अंदर भगवान ने प्रेरणा की। बालक बोलाः “आलवार को इधर बुलाओ और उसके घर में कपूर पड़ा है, वह भगवान की मूर्ति पर लगाओ तो खून बंद हो जायेगा।”

लोग दौड़-दौड़ के गये, आलवार को लाये और कपूर लाये, भगवान की मूर्ति को लगाया तो खून टपकना बंद हो गया। भक्त आलवार को अब समझने में देर न लगी कि जिस लड़के को मैंने पत्थर मारा वही तिरुपति भगवान हैं, बालक का रूप लेकर आये थे। बोलेः “हे तिरुपति बाला जी ! मैंने तुमको पहचाना नहीं, मैंने तुम्हारा अपमान किया। मुझे माफ करो, माफ करो….. ऐसा करते-करते भाव-विभोर हो गये।

भगवान बोलेः “कोई बात नहीं, रोज खिलाता है तो एक दिन मार दिया तो क्या है ! प्यार में होता रहता है। आ जाओ ! तुम मेरे, मैं तुम्हारा… ”

वे भगवान के हृदय में समा गये।

कैसी भगवान की लीला है ! भक्तों की भक्ति को कैसे पुष्ट करते हैं भगवान ! हिन्दू धर्म की महानता देखो ! भगवान की भक्ति और गुरु की कृपा के प्रभाव को देखकर तो नास्तिक भी सुधरने का सीजन हो जाता है (सुधरने की प्रेरणा मिल जाती है)।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 8, अंक 309

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