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इच्छामात्र छोड़ो और आनंद-ब्रह्मानुभूति करो


स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती

मैं एक दिन ऋषिकेश में स्वर्गाश्रम में गंगाकिनारे बैठा था। एक मित्र मेरे पास आकर बैठ गया और बोलाः स्वामी जी ! संसार में किसी से मेरी आसक्ति नहीं है। मुझे आनंद चाहिए। इसके लिए आप जो आज्ञा करोगे, मैं वहीं करूँगा। यदि आप कहोगे तो विवाह भी कर सकता हूँ और आपके कहने पर शरीर भी छोड़ सकता हूँ।

मैंने पूछाः ईमानदारी से कहते हो ?”

स्वामी जी ! पूरी ईमानदारी से।

यह आनंद पाने की इच्छा छोड़ दो!”

छोड़ दी। अचानक उसके शरीर में कप्म हुआ। नेत्रों से टपाटप आँसू गिरने लगे। रोमांच हुआ। शरीर में चमक आयी। वह समाधिस्थ हो गया। उठने पर बोलाः मैं समझ गया कि आनंद कैसा होता है।

नारायण ! नित्यप्रातः शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मस्वरूप को त्यागकर अप्राप्त अनात्मवस्तु को चाहने का नाम ही मृत्यु है। यही असत्-अचित्-दुःख है। हमारे  मन में प्राप्त वस्तु का तिरस्कार करके अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का जो संकल्प है, वह हमारे जीवन को दुःखी-अज्ञानी-जड़ बनाये हुए है। अपने आनंदस्वरूप पर इच्छा का पर्दा है। इच्छाएँ ही आनंद की आच्छादिका (ढकने वाली) हैं। इच्छामात्र छोड़ो और आनंद-ब्रह्मानुभूति करो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 7, अंक 309

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पहले साइंस या पहले ईश्वर ?


एक दिन श्रीरामकृष्ण परमहंस के दर्शन हेतु प्रसिद्ध विद्वान बंकिमचन्द्र चटर्जी पधारे थे। रामकृष्ण जी ने भक्तों को उपदेश देते हुए कहाः “कोई-कोई समझते हैं कि बिना शास्त्र पढ़े अथवा पुस्तकों का अध्ययन किये ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता। वे सोचते हैं, ‘पहले जगत के बारे में, जीव के बारे में जानना चाहिए, पहले साइंस पढ़ना चाहिए।’ वे कहते हैं कि ‘ईश्वर की यह सारी सृष्टि समझे बिना ईश्वर को जाना नहीं जाता।’ तुम क्या कहते हो ? पहले साइंस या पहले ईश्वर ?”

बंकिम बाबूः “जी हाँ, पहले जगत के बारे में दस बातें जान लेनी चाहिए। थोड़ा इधर का ज्ञान हुए बिना ईश्वर को कैसे जानूँगा ? पहले पुस्तक पढ़कर कुछ जान लेना चाहिए।”

रामकृष्ण जीः “यह तुम लोगों का एक ख्याल है। वास्तव में पहले ईश्वर, उसके बाद सृष्टि। ईश्वर को प्राप्त करने पर आवश्यक हो तो सभी जान सकोगे। उन्हें जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है परंतु फिर मामूली चीजें जानने की इच्छा नहीं रहती। वेद में भी यही बात है। जब किसी व्यक्ति को देखा नहीं जाता तब उसके गुणों की बातें बतायी जा सकती हैं, जब वह सामने आ जाता है, उस समय वे सब बातें बंद हो जाती हैं। लोग उसके साथ ही बातचीत करते हुए तल्लीन हो जाते हैं, मस्त हो जाते हैं। उस समय दूसरी बातें नहीं सूझतीं।

पहले ईश्वर की प्राप्ति, उसके बाद सृष्टि या दूसरी बातचीत। एक को जानने पर सभी जाना जा सकता है। एक के बाद यदि पचास शून्य रहें तो संख्या बढ़ जाती है। एक को मिटा देने से कुछ भी नहीं रहता। एक को लेकर ही अनेक हैं। पहले एक, उसके बाद अनेक, पहले ईश्वर, उसके बाद जीव-जगत।

ईश्वरप्राप्ति के लिए यही असली बात है

ईश्वर से व्याकुल होकर प्रार्थना करो। आंतरिक प्रार्थना होने पर वे अवश्य सुनेंगे। गुरुवाक्य में विश्वास करना चाहिए। गुरु ही सच्चिदानंद, सच्चिदानंद ही गुरु हैं। उनकी बात पर बालक की तरह विश्वास करने से ईश्वरप्राप्ति होती है। सयानी बुद्धि, हिसाबी बुद्धि, विचार बुद्धि करने से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता। विश्वास और सरलता होनी चाहिए, कपटी होने से यह कार्य न होगा। सरल के लिए वे बहुत सहज हैं, कपटी से वे बहुत दूर हैं।

बालक जिस प्रकार माँ को न देखने से बेचैन हो जाता है, लड्डू, मिठाई हाथ पर लेकर चाहे भुलाने की चेष्टा करो पर वह कुछ भी नहीं चाहता, किसी से  नहीं भूलता और कहता हैः ‘नहीं, मैं माँ के पास ही जाऊँगा’, इसी प्रकार ईश्वर के लिए व्याकुलता चाहिए। अहा ! कैसी स्थिति ! – बालक जिस प्रकार ‘माँ-माँ’ कहकर तन्मय हो जाता है, किसी भी तरह नहीं भूलता। जिसे संसार के ये सब सुखभोग फीके लगते हैं, जिसे अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वही हृदय से ‘माँ-माँ’ (काली माँ या ईश्वर वाचक सम्बोधन) कहकर कातर होता है। उसी के लिए माँ को फिर सभी कामकाज छोड़कर दौड़ आना पड़ता है। यही व्याकुलता है। किसी भी पथ से क्यों न जाओ, यह व्याकुलता ही असली बात है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 22 अंक 309

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सेवा का उद्देश्य क्या है ?


सेवा का उद्देश्य क्या है ? सेवा के द्वारा तुम्हारा हृदय शुद्ध होता है। अहंभाव, घृणा, ईर्ष्या, उच्चता की भावना और इसी प्रकार की सारी कुत्सित भावनाओं का नाश होता है तथा नम्रता, शुद्ध प्रेम, सहानुभूति, सहिष्णुता और दया जैसे गुणों का विकास होता है। सेवा से स्वार्थ-भावना मिटती है, द्वैत भावना क्षीण होती है, जीवन के प्रति दृष्टिकोण विशाल और उदार बनता है। एकता का भान होने लगता है, आत्मज्ञान में गति होने लगती है। ‘एक में सब, सब में एक’ की अनुभूति होने लगती है। तभी असीम सुख प्राप्त होता है।

आखिर समाज क्या है ? अलग-अलग व्यक्तियों या इकाइयों का समूह ही तो है। ईश्वर ही के व्यक्त रूप के अलावा विश्व कुछ नहीं है। सेवा ही पूजा है। सेवा एवं आत्मज्ञानी महापुरुषों के कृपा-उपदेश से निष्काम कर्म करने वालों को पूर्णता प्राप्त होती है। जैसे हनुमान जी सेवा से तथा सीता जी और श्रीराम जी के उपदेश से ब्रह्मानुभूति सम्पन्न हुए।

भेद-भावना घातक होती है अतः उसे मिटा देना चाहिए। उसे मिटाने के लिए ब्रह्म-भावना का, चैतन्य की अद्वैतता का विकास और निःस्वार्थ सेवा की आवश्यकता है। भेद-भावना अज्ञान या माया द्वारा रचित एक भ्रममात्र है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018,  पृष्ठ संख्या 17 अंक 309

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