मुक्तकेशी देवी के संस्कारों का प्रभाव

मुक्तकेशी देवी के संस्कारों का प्रभाव


घुरणी गाँव (जि. नदिया, प. बंगाल) के रहने वाले गौरमोहन जी सदाचारी, सत्संगी, निष्ठावान तथा धर्मपरायण थे । उनकी पत्नी मुक्तकेशी देवी भगवान शिव की अनन्य भक्त थीं । वे संतों के प्रति दृढ़ श्रद्धा रखती थीं व जप, पूजन आदि किये बिना जल तक नहीं लेती थीं । सरलता, दयालुता, सुशीलता, परोपकारिता, दीन-दुःखियों के प्रति दयाभाव रखना – ये उनके स्वभावगत सदगुण थे । ‘सबमें परमात्मा है’ – ऐसा दिव्य भाव रखते हुए मुक्तकेशी द्वार पर आये याचक को कुछ दिये बिना रह पाती थीं ।

जैसे माँ महँगीबा जी (पूज्य बापू जी की मातुश्री) अपने पुत्र आसुमल को बाल्यकाल से ही भगवद्भक्ति के सुसंस्कार देती थीं, वैसा ही मुक्तकेशी देवी के जीवन में भी देखा जाता है । वे अपने बालक श्यामाचरण को ईश्वरभक्ति-सम्पन्न लोरियाँ सुनाते हुए सुलातीं, कभी शिव-मंदिर के पास बिठाकर खूब भक्तिभाव से पूजा करतीं । बालक को कहतीं- “बेटा ! जैसे शिवजी ध्यानस्थ बैठे हैं, ऐसे ही तुम भी ध्यान करो ।”

बालक शिवजी जैसी ध्यान-मुद्रा में आँखें मूँदकर बैठ जाता । जब मुक्तकेशी देवी बालक को बालू पर बिठाकर अपने घर का काम करतीं तब वहाँ भी बालक सारे शरीर पर बालू मल के शिव की तरह रूप बनाये, आँखें मूँदे बैठा रहता । एक दिन की घटना, मुक्तकेशी देवी श्यामाचरण को बगल में बिठा के शिवजी के ध्यान में तन्मय थीं और बालक भी माँ का अनुकरण करते हुए ध्यानस्थ बैठा था । उन्होंने आँखें खोलीं तो अपने सम्मुख एक महापुरुष को पाया । मुक्तकेशी देवी ने अपने जीवन में जो ध्यान, भक्ति, सत्संग-ज्ञान और भगवत्प्रीति सँजोय रखी थी और जिसको वे अपने पुत्र के जीवन में पिरो रही थीं, मानो वही उनका पुण्य और ईश्वर की कृपा एक संन्यासी वेशधारी मार्गदर्शक महापुरुष के रूप में उनके सामने प्रकट हुआ था । वे महापुरुष उस बालक के योगी होने की भविष्यवाणी करके विदा हुए ।

माँ द्वारा दिये ध्यान-भक्ति के संस्कार तथा उन महापुरुष की कृपापूर्ण छत्रछाया का फल यह हुआ कि आगे चल के मुक्तकेशी देवी का वही बालक योगी श्री श्यामाचरण लाहिड़ी जी के रूप में प्रसिद्ध हुआ । माताओं के द्वारा संतानों को दिये जाने वाले संस्कारों की कितनी महिमा है ! हे भारत की माताओ ! आप भी अपनी संतानों में ईश्वरभक्ति, ईश्वरप्रीति, संतसेवा के संस्कारों का सिंचन कीजिये ताकि वे अपने एवं दूसरों के कल्याण में लगकर जीवन धन्य कर सकें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 21 अंक 315

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