किसी भी बर्ताव के कारण गुरु अपमान के योग्य नहीं होता । इसी तरह माता और पिता भी अनादर के योग्य नहीं है।
वे तीनों कदापि अपमान के योग्य नहीं है । उनके किये हुए किसी भी कार्य की निंदा नहीं करनी चाहिए ।
गुरु, पिता और माता के प्रति जो मन, वाणी और क्रिया के द्वारा द्रोह करते है उन्हें भ्रूण ह्त्या से भी महान पाप लगता है। संसार में उस से बढ़कर दूसरा कोई पापाचारी नहीं है ।”
महाभारत के अनुशासन पर्व के ११वेन अध्याय में देवों के गुरु बृहस्पति राजा युधिष्ठिर को कहते है,
राजन, जो पुत्र अपने माता पिता का अनादर करता है वह भी मरने के बाद पहले गधा नामक प्राणी होता है। गधे का शरीर पाकर वह १० वर्षों तक जीवित रहता है । फिर १ सालतक घड़ियाल रहने के बाद मानव योनी में उत्पन्न होता ।
मातापिता की निंदा करके अथवा उन्हें गाली देकर मनुष्य दुसरे जन्म में मैना होता है। नरेश्वर जो मातापिता को मारता है वह कछुआ होता । १० वर्ष तक कछुआ रहने के पश्चात ३ वर्ष साही और ६ महीने तक सर्प होता है, और फिर मनुष्य की योनी में जन्म लेता है ।
एक ब्रह्मज्ञानी गुरु के शिष्य होने के बावजूद जिन्होंने एक बेवकूफ छोरी के शिष्य या अनुयायी बनकर सतगुरु के विरुद्ध कार्य करने में सहयोग दिया है उन्होंने कृतघ्नता का पाप किया है । उनके प्रति करुणा से प्रेरित होकर हम उनको भी दुर्गति से बचाना चाहते है।
उनकी मरने के बाद क्या गति होती है इस बात को वे जानेंगे तो शायद उनको अपनी गलती का अहसास हो जाएगा । महाभारत के अनुशासन पर्व के १११वें अध्याय में देवों के गुरु बृहस्पति राजा युधिष्ठिर को कहते है :
“राजन, कृतघ्न मनुष्य मरने के बाद यमराज के लोक में जाता है । वहां क्रोध में भरे हुए यमदूत उसके ऊपर बड़ी निर्दयता के साथ प्रहार करते है। वह दण्ड, मुद्गर और शूल की चोट खाकर दारुण कुम्भीपाक, असिपत्र वन, तापी हुई भयंकर बालू, काँटों से भरे हुए शाल्मली आदि नरकों में कष्ट भोगता है । यमलोक में पहुंचकर इन ऊपर बताये हुए तथा और भी बहुत से नरकों की भयंकर यातनाएं भोगकर वह यमदूतों द्वारा पीटा जाता है । इस प्रकार निर्दयी यमदूतों से पीड़ित हुआ कृतघ्न पुरुष पुनः संसार चक्र में अआता और कीड़े की योनी में जन्म लेता है । १५ वर्षों तक वह कीड़े की योनी में रहता है । फिर गर्भ में आकर वहीँ शिशु की दशा में ही मर जाता है । इस तरह कई सौ बार वह जीव गर्भों की यंत्रणा भोगता है, तदनंतर बहुत बार जन्म लेने के पश्चात वह तिर्यक योनी में उत्पन्न होता है । इन योनियों में बहुत वर्षों तक दुःख भोगने के पश्चात वह फिर मनुष्य योनी में न आकर दीर्घ काल के लिए कछुआ हो जाता है ।” (महाभारत, अनुशासन पर्व अध्याय १११, श्लोक ९२-९८)