Monthly Archives: April 2017

माँ सीता का वात्सल्य


(श्री सीता नवमीः 4 मई)

पिता को बेटे की भूख उतनी चिंता नहीं होती जितनी माँ की होती है।

हनुमान जी राम जी से कभी नहीं कहते कि ‘मुझे भूख लगी है।’ पर जब लंका में सीता जी के पास पहुँचे तो उनके मुँह से यही निकलाः

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। (श्रीरामचरित. सुं.का. 16.4)

“माँ ! मुझे तो बड़ी भूख लगी हुई है। प्रभु ने तो मुझे सेवक स्वीकार किया, सेवक-धर्म का उपदेश दिया और सेवक तो सेवा में संलग्न रहेगा पर जब आपने पुत्र कहकर पुकारा है तो फिर माँ-बेटे के बीच में तो बस पहले खाने-पीने की ही चर्चा चलनी चाहिए। सामने फल भी लगे हैं अतः अब आज्ञा दीजिये।” पर माँ ने तो माँ के स्वभाव का ही परिचय दियाः

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।

परम सुभट रजनीचर भारी।। (श्रीरामचरित सुं. कां. 16.4)

“यहाँ कितने बड़े-बड़े राक्षस पहरा दे रहे हैं।” हनुमान जी सुनकर बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि माँ ने पुत्र तो कह दिया है। वे सोच रहे थे कि ‘देखें, माँ ने छोटा पुत्र माना है कि बड़ा पुत्र ?’ जब माँ ने कहाः “राक्षस पहरा दे रहे हैं।” तो प्रसन्न हो गये कि ‘चलो, माँ ने छोटा पुत्र ही माना है क्योंकि अभी-अभी अजर-अमर होने का वरदान दिया है फिर भी चिंता बनी हुई है। इतनी चिंता तो माँ छोटे पुत्र की ही करती है।’

हनुमान जी ने कहाः

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।

जौं तुम्ह सुख मानहू मन माहीं।। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 16.5)

“आपको यदि प्रसन्नता है तो मुझे इनका रंचमात्र भी भय नहीं है।”

माँ को अब दूसरी चिंता हुई। उन्होंने सोचा, ‘पुत्र  कह तो रहा है कि राक्षसों का भय नहीं है पर यह वाटिका तो रावण की है, मोह की है। ज्ञान की वाटिका के फल तो व्यक्ति को धन्य बनाते हैं क्योंकि उसमें तो मोक्ष के फल लगते हैं पर यह तो मोह की वाटिका है। क्या यहाँ का फल खाना उचित रहेगा ? जो मोह की वाटिका के फल खायेगा उसके जीवन में तो बड़ा अनर्थ होगा।’ किंतु हनुमान जी का अभिप्राय था कि ‘अगर भक्ति माता की कृपा हो जाय तो मोह की वाटिका भी फल खाया जा सकता है।’ अतः हनुमान जी कहते हैं- “अगर आप आदेश दें तो मैं फल खा लूँ।” हनुमान जी ने शब्द भई कितना बढ़िया चुना-

लागि देखि सुंदर फल रूखा। (श्री रामचरित. सुं. कां. 16.4)

“फल बड़े सुंदर हैं।” यह देखा भी जाता है कि मोह की वाटिका के फल बड़े सुंदर होते हैं इसीलिए वे आकर्षक होते हैं। इन्हें देखकर लोगों का मन ललच जाता है।

माँ ने कहाः “पुत्र ! खाने से पूर्व ‘सुंदर’ को ‘मधुर’ बना लो तब तुम इसे ग्रहण करो।” और साथ-साथ सुंदर को मधुर बनाने का उपाय भी माँ ने बता दियाः

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 17)

“मोह की वाटिका के फल जब तुम भगवान को अर्पित कर दोगे, तब वे मोह के फल न रहकर प्रभु का प्रसाद हो जायेंगे और प्रभु का प्रसाद तो मधुर होता है।”

ऐसी भगवन्निष्ठ, पतिनिष्ठ सीता जी की महिमा में संत तुलसीदास जी लिखते हैं कि ‘जो स्त्रियाँ सीता जी के नाम का सुमिरन करती हैं, वे पतिव्रता हो जाती है।’

हनुमान जी प्रसन्न हो गये कि ‘माँ कितनी वात्सल्यमयी हैं !’ हनुमान जी फल खाते हैं, आनंदित होते हैं पर उन्होंने फल खाने के साथ-साथ बाग को उजाड़ दिया, राक्षसों का मारा तथा लंका को जला दिया। लौटने पर बंदरों ने पूछाः “आपने माँ से आज्ञा तो केवल फल खाने की ली थी, बाग़ उजाड़ने, राक्षसों को मारने तथा लंका को जलाने की आज्ञा तो ली नहीं थी फिर ये तीनों काम आपने किसकी आज्ञा से किये ?”

हनुमान जी ने कहाः “मैंने आज्ञा तो केवल फल खाने की ही ली थी पर शेष तीनों काम तो फल खाने का फल थे।’ अभिप्राय है कि भक्ति देवी की कृपा का फल खाने के बाद भी अगर मोह की वाटिका न उजड़े, दुर्गुणों के राक्षसों का विनाश न हो और स्वार्थयुक्त प्रवृत्ति की लंका न जले तो माँ की कृपा किस काम की ? वस्तुतः भक्ति की कृपा के फल का रसास्वादन करने के बाद व्यक्ति के जीवन का मोह विनष्ट हो जाता है, दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं तथा स्वार्थ-प्रवृत्ति की मोहमयी लंका भी जलकर राख हो जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 292

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

भगवत्प्राप्ति का मूल


संत एकनाथ जी

हे ॐकारस्वरूप, सहज आत्मस्वरूप देव ! तुम्हें नमस्कार है ! तुम विश्वात्मा होते हुए चतुर्भुज हो। अष्टभुज भी तुम्हीं हो और विश्वभुज अर्थात् अनंतभुज भी तुम्हीं हो। तुम्हारा मैं गुरुत्व से ही गौरव (आदर-सम्मान) करता हूँ। अपने शिष्यों के भाव-अर्थ गुरु के नाम से अभय देने वाले तुम्हीं हो। अभय देकर संसार-दुःख का निवारण करने वाले तुम्हीं हो। जन्म-मरण का निवारण करने वाले तुम्हीं हो। जन्म-मरण का निवारण कर तुम स्वयं, स्वयं से ही मिलन करते हो। अतः गुरु और शिष्य इन नामों से तुम्हारा ऐक्य (एकता) मालूम होने लगता है। यह एकता दृष्टि को दिखाई पड़ते ही एकनाथ और जनार्दन (संत एकनाथ जी के सदगुरु) – ये एकरूप ही हो जाते हैं। सारी सृष्टि गुरुत्व से भरकर सारा संसार ‘स्व’ आनंद से विचरने लगता है। ऐसा वह स्वानंद-ऐक्य चिद्घनस्वरूप जगदगुरु जनार्दन है। उन जनार्दन की शरण जाकर एकनाथ ने अपनी एकता दृढ़ की। यह दृढ़ हुआ ऐक्य भी सदगुरु ही बन गया। तब एकनाथ और जनार्दन एक हो जाने के कारण ‘मैं’ पन – ‘तू’ पन समाप्त हो गया। इस प्रकार अकेले एक होते हुए भी एकनाथ को जनार्दन ने कवि  बना दिया। तब उसे एकादश (श्रीमद्भागवत के 11वें स्कंध) के गहरे एकत्व का सहज ही बोध हो गया। उसी एकता की सच्ची राजा पुरुरवा को भी प्राप्त हो गयी थी और सत्संग से उसका यह अनुताप (भगवद्-विरह से तपन), विरक्ति और भगवद्भक्ति दृढ़ हो गयी। यह बात 26वें अध्याय में श्रीकृष्ण ने अपने ही मुख से बतायी।

श्रीकृष्ण ने कहाः ‘सत्संग से भगवद्भक्ति होती है और उससे साधकों को पूर्ण वैराग्य प्राप्त होता है (सत्संग से भगवत्स्वरूप महापुरुष एवं भगवद्भक्तों की संगति तथा साधन-भजन सेवा में रूचि प्राप्त होती है। और भगवद्-रस के प्रभाव से संसार रस फीका होकर सहज में पूर्ण वैराग्य प्राप्त होता है।) भगवद्भक्ति किये बिना विरक्ति कभी उत्पन्न नहीं होगी और विरक्ति के बिना भगवद्भक्ति कल्पांत ( कल्प का अंत। 1 कल्प=ब्रह्मा जी का 1 दिन = 4 अरब 32 करोड़ मानवीय वर्ष) में भी नहीं होगी।’ श्रीमद् एकनाथी भागवत, अध्याय 27 से

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 15 अंक 292

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

लोक कल्याण की मूर्तिः देवर्षि नारद जी


देवर्षि नारद जयंती 11 मई 2017

पूज्य बापू जी

कोई झगड़ालू होता है तो कुछ लोग नासमझी से कह देते हैं कि ‘यह तो नारद है।’ अरे, नारद ऋषि को तुम ऐसी नीची नज़र से क्यों देखते हो ? इससे नारदजी का अपमान करने का पाप लगता है।

नारदजी भक्ति के आचार्य हैं। वेद, उपनिषद के मर्मज्ञ, मेधावी, सत्यभाषी, त्रिकालदर्शी और नीतिज्ञ हैं। इतिहास तथा पुराणों में विशेष गति-प्रीतिवाले हैं। कठोर तपस्वी, मंत्रवेत्ता हैं। ‘नारदभक्तिसूत्र’ के रचयिता तथा प्रभावशाली वक्ता हैं। व्याकरण, आयुर्वेद और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान, कवि हैं। देवता तो पूज्य हैं, प्रभावशाली हैं पर नारदजी देवताओं के भी पूजनीय हैं। इन्द्र भी उनका आदर करते हैं। गुरु बृहस्पति का भी शंका-समाधान करने वाले तथा योगबल से लोक-लोकांतर का समाचार जानने में सक्षम हैं। पाँचों विकारों और छठे मन को दोषों पर विजय पाने की प्रेरणा देने वाले हैं।

नारदजी सभी जातियों का भला करने से पीछे नहीं हटते, वे देवताओं और दैत्यों का भी मंगल करते हैं। वे अपने स्वार्थ का कभी सोचते भी नहीं। वे हमेशा सर्वजनसुखाय, सर्वजनहिताय और सारगर्भित बोलते हैं।

नारदजी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के यथार्थ ज्ञाता हैं। समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सर्विद्याओं में निपुण, सर्वहितकारी नजरिये के धनी है। सदगुणों का आधार, परम तेजस्वी, देवताओं और दैत्यों को उपदेश देने में समर्थ हैं।

न्याय-धर्म का तत्त्व न जानने वाले राजा-महाराजाओं, जति जोगियों को अपना सुहृद बनाकर उन्हें भी उपदेश दे के सजग करने वाले हैं।

नारद जी जहाँ देखते हैं कि संधि से या विग्रह के बिना काम नहीं होगा, वहीं झगड़ा कराते हैं। और कलह भी करेंगे-करवायेंगे तो उसके पीछे भी उनका उद्देश्य क्रांति से शांति होता है।

दोनों पक्षों का मंगल हो यह उनका नजरिया होता है। नर-नारी के अयन ‘नारायण’ से जो मिलने की प्रेरणा दें वे ‘नारद’ हैं।

वेदव्यास जी जैसे महापुरुष को श्रीमद्भागवत की रचना की प्रेरणा देने वाले और वाल्मीकि ऋषि को श्रीरामजी के चरित्र सुनाने वाले थे देवर्षि नारद। तीनों लोकों में, लोक-लोकांतर में भी जाने में समर्थ हैं और सब कुछ करते-कराते भी सर्व से असंग आत्मा को जानने-पाने में भी समर्थ रहे हैं।

ताना मारकर भई किसी का मंगल होता है तो भई कर देते थे। किसी को आशीर्वाद देकर उसका मंगल होता है तो वैसा करत देते हैं और किसी का संगठन, विद्रोह या विग्रह से मंगल होता है तो उनके द्वारा भी मंगल करते हैं मंगलमूर्ति नारदजी।

कंस को ऐसा भ्रमित किया कि ‘क्या पता देवकी की कौन-सी संतान आठवीं होगी !’ ऐसा करके जल्दी-जल्दी उसका पाप का घड़ा भरवाकर भी पृथ्वी पर शांति लाने वाले थे नारदजी ! और दैत्यों को भी अलग-अलग प्रेरणा देकर उनकी दैत्य-वृत्तियों से उन्हें उपराम कराने वाले भी थे।

देवर्षि नारद जी ने मीडियावालों का भी मंगल चाहा है। वे कहते हैं कि पत्रकारिता में इस प्रकार की मानसिकता होनी चाहिए कि समाज में सत्य, अहिंसा, संवेदनशीलता, परस्पर भाईचारा, विश्वास फैले। स्नेह और सौहार्द बढ़े, सदाचार तथा शिष्टाचार में लोगों की रुचि हो। नकारात्मक, द्वेषात्मक खबरों को नहीं फैलाना चाहिए। घृणात्मक विचारों को महत्त्व न दें न फैलायों। राग, द्वेष, ईर्ष्या, जलन से रहित, तटस्थ पत्रकारिता आदर्श मानी जाती है।

नारद जी कहते हैं- ‘अपने धर्म में मर जाना अच्छा है, परधर्म भयावह है।’ सैनिक का धर्म है सीमाओं की रक्षा करना और वहाँ से वह भागता है तो धर्मच्युत है, भीरू है, वह दंड का पात्र है लेकिन व्यापारी, हकीम, डॉक्टर आदि सभी लोग युद्ध करने चले जायें, जिससे देश पर और आपत्ति आये तो वे सभी अपने-अपने धर्म से च्युत हो जायेंगे। शिक्षक चले जायें तो आने वाली पीढ़ी विद्याशून्य हो जायेगी। किसान चले जायेंगे तो सैनिकों को अनाज कौन पहुँचायेगा ? तो किसान अपनी काश्तकारी (खेती-बाड़ी) का धर्म निभायें और वकील, डॉक्टर अपना धर्म निभायें, उपदेशक, विद्वान अपना धर्म निभायें और सभी के धर्मों के पीछे सार यह है कि परमात्मा में, समत्व में रहें और संसार के साधनों का ईश्वर की प्रीति के लिए सदुपयोग करें।

नारदजी सभी विषयों में, सभी क्षेत्रों में और सभी जातियों का भला करने में पीछे नहीं हटे। उन्होंने क्या-क्या कहा है इसका विचार करते ही हृदय द्रवीभूत हो जाता है, अहोभाव से भर जाता है। ऐसे मंगलमूर्ति महापुरुष नारदजी का भगवान भी आदर करते हैं।

नारद जी की जयंती के दिन नारद जी के चरणों में प्रणाम हैं, भगवान वेदव्यास जी, परम पूज्य लीलाशाह जी बापू जैसे ब्रह्मवेत्ता संतों के चरणों में प्रणाम हैं ! और भी महापुरुष, जिनके नाम हम नहीं जानते, जो हरि के प्यारे हैं, जगत, हरि और अपने स्वरूप को ब्रह्मरूप से जानकर अद्वैत स्वरूप में एकाकार हो गये हैं, उनको हम नमन करते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 292

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ