कोई भी मनुष्य पूर्ण रूप से पापी नहीं हो सकता। कुछ-न-कुछ पुण्य का अंश तो रहता ही है। उसी पुण्य के अंश से आप अपने हित के लिए आध्यात्मिक चर्चा सुनते हो, इस प्रकार की पुस्तकें पढ़ते हो और किसी पाप के प्रभाव से सुनते हुए, पढ़ते हुए भी आचरण में नहीं ला पाते हो। यदि आप दृढ़ संकल्प कर लो तब सदाचार के पालन में और दुराचार के त्याग में पको कोई दूसरा रोकने वाला नहीं है। आप अपने द्वारा बढ़ाये हुए (गलत) अभ्यास की दासता (गुलामी) से बँधे हो लेकिन इस प्रकार के (गलत) अभ्यास को विपरीत अच्छे अभ्यास से हटा सकते हो।
सुंदर देना सीखो
जब आप दूसरों से सम्मान चाहते हो, प्यार, प्रेमपूर्वक व्यवहार अथवा कोई प्रिय वस्तु चाहते हो तब आप दूसरों को उनके अनुकूल सम्मान तथा अधिकार, प्यार अथवा प्रिय वस्तु देने के अवसर पकड़ते रहो। जो आप दे सकते हो वह देते रहो तभी दूसरों से पा सकोगे।
कुछ ऐसे भी दीन, दरिद्र व्यक्ति होते हैं जिनके पास देने के लिए सुंदर वस्तु तथा मधुर वाणी द्वारा सुंदर प्यार के या सम्मान के शब्द होते ही नहीं। ऐसे व्यक्ति पुण्यहीन हैं। कुछ पुण्यवान आरम्भ से प्रेमभाव के धनी होते हैं। देने का जिनका सुंदर भाव या स्वभाव हता है उनके पास देने के लिए बहुत कुछ होता है और वे देते ही रहते हैं। कोई तो सदा शुभ, सुंदर, प्रिय के ही दानी होते हैं और कोई अशुभ, असुंदर को ही फेंकते हुए दूसरों को चोट पहुँचाते हैं।
एक संत को एक विरोधी व्यक्ति गालियाँ देने लगा पर संत कुछ न बोले, खड़े रहे। तब उसने थूक दिया। संत फिर भी न बोले। उस दुष्ट ने कहाः “तू खड़ा क्यों है ?” संत ने कहाः “मेरे हिस्से का और भी जो देना शेष है वह भी दे दो जिससे आगे देने को बाकी न रहे, इसी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ।”
कोई संत कभी सह के दूसरे की बुराई खत्म करते हैं तो कभी डाँट के उसके दोषों को भगा देते हैं और उसे पवित्र बनाते हैं। कितने दयालु होते हैं संतजन ! अशुभ, अप्रिय, अपवित्र देना पाप है। शुभ, सुंदर, पवित्र को देना सुंदर पुण्य है।
पुण्य और पाप की पहचान
आप बालक हो या युवक हो, इतने पुण्यवान तो हो ही कि इस समय ये अपने हित की बातें पढ़ रहे हो या सुन रहे हो। अब यह भी समझ लो कि आप अपने पुण्यों को सुख का उपभोग करते हुए घटा रहे हो या दूसरों की सेवा करते हुए बढ़ा रहे हो। पुण्य के योग से जिनकी बुद्धि शुद्ध है वे नीच कार्य, ओछे काम करने वालों से अथवा श्रेष्ठ माननीय पुरुषों या किसी विद्वान से विरोध नहीं करते।
जिनकी मति मंद है अथवा जिन्हें पुण्य का ज्ञान ही नहीं है, जिन पर पाप सवार रहता है वे व्यक्ति नीति नियम का विरोध करने में ही खपते रहते हैं। सीढ़ियों के कोनों में, दीवालों पर थूककर गंदा करते हैं। दल बनाकर टिकट लिए बिना ही रेलयात्रा करते हैं। जंजीर खींचकर जहाँ चाहते हैं वहीं उतर जाते हैं। सैंकड़ों यात्रियों को कष्ट होता है परंतु पाप का अभ्यासी अहंकार, आगे मिलने वाले प्रतिकूलता, दुःख की चिंता नहीं करता। पुण्यवान व्यक्ति आरम्भ से अर्थात् बाल्यकाल से ही वह कर्म नहीं करते जिससे दूसरों को कष्ट हो सकता है।
पुण्य के प्रताप से अच्छी मतिवाले व्यक्ति नीति नियम के विरूद्ध काम करने वालों को नम्रतापूर्वक रोकते हैं। यदि मूर्ख लोग नहीं मानते तब उनके द्वारा किये जा रहे अनुचित कर्म को स्वयं सँभालने (बिगड़ते हुए कार्य को बिगड़ने से बचाने व सुधारने) का प्रयत्न करते हैं। जिन बातों में समय व्यर्थ जाय, खर्च की अधिकता से खर्च देने वालों को कष्ट हो, साथ ही पढ़ाने के लिए धन की आय कम होने से रिश्वत लेनी पड़ती हो या कर्ज लेना पड़े तब तो विद्यार्थी के लिए पाप है।
अपनी आवश्यकताएँ बहुत कम रखना, कर्म खर्च में निर्वाह करना, सादे वस्त्र पहनना, वस्त्र तथा रहने का स्थान साफ रखना, शुद्ध, सतोगुणी भोजन करना, ईश्वर पर विश्वास रखऩा पुण्यवान विद्यार्थी के सुलक्षण होते हैं।
पूर्व के जन्म में तन से सेवा करते हुए जितने अधिक पुण्य किये जाते हैं, अगले जन्म में उतना ही अधिक बलवान शरीर मिलता है। पूर्वजन्म में वाणी द्वारा विनम्रतासहित मान देते हुए जितने अधिक पुण्य बन जाते हैं, उतना ही अधिक इस जन्म में सद्गुण एवं शील की अधिकता के कारण आरम्भ से ही सम्मान मिलता है। पूर्वजन्म में जितना अधिक मानसहित दान करने से पुण्य बढ़ते हैं उसके फल से इस जन्म में धन और सुंदर रूप मिलता है।
सत्शिक्षा से विमुख और कुशिक्षा से प्रेरित हुए जो विद्यार्थी किसी वस्तु का मूल्य न देकर उसे छीन लेते हैं, जो टिकट न ले के यात्रा करते हैं वे पाप कमाते हैं। उन्हें कभी-न-कभी कई गुना बढ़कर हानि का दुःख भोगना पड़ता है। जो पुण्यहीन विद्यार्थी सत्शिक्षा न मानकर कुसंग के प्रभाव से दुर्व्यसनी, विलासी बन जाता है वह गलत सोचवाला, बुरी नजर से देखने वाला अपना पाप बढ़ाता है।
जो अपने संग के प्रभाव से दुराचारी, दुर्व्यसनी को सदाचारी, संयमी बना लेता है वह पुण्य का भागीदार होता है। किसी विद्यार्थी का अध्ययन छुड़ाकर उसे खेल तमाशों में, सिनेमा में ले जाना पाप है और व्यर्थ के खेल तमाशों तथा सिनेमा से रोक के अध्ययन में लगाना पुण्य है। किसी को पतन करने वाले कर्म के लिए प्रेरित करना पाप है। किसी शुभ कार्य के लिए प्रेरित करना पुण्य है। जब आपके मन में दूसरों के पास कोई भी वस्तु देखकर उसे लेने का लालच लग रहा हो या ईर्ष्या, डाह(जलन) पैदा हो रही हो, तब आपको याद आ जाना चाहिए कि ‘पाप की वृत्ति है, यही कुशिक्षा तथा कुसंगति का प्रभाव है।’
जब कभी लोभ जागृत हो रहा हो या किसी के रूप को देखकर कामवासना जागृत हो रही हो अथवा किसी प्रकार की प्रतिकूलता में क्रोध उत्तेजित हो रहा हो, किसी के प्रति दुष्ट भाव जागृत हो रहा हो, किसी की निंदा होने लगी हो, उसी समय आपको स्मरण आ जाय कि ‘पाप का आक्रमण है’ और उसी क्षण आप उस पापवृत्ति को देखते हुए उसके पीछे समय तथा शक्ति का दुरुपयोग न होने दो तभी आप पाप-पोषण से बचकर उसी शक्ति से पुण्य का शोषण कर सकते हो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 292
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