Monthly Archives: April 2017

पूर्णरूप से भयरहित क्या और क्यों ?


भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं

मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।

शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।

‘भोगविलास में रोगादि उत्पन्न होने का, सत्कुल में वंश-परम्परा टूटने का, द्रव्य (धन-सम्पदा) में राजा का, मौन-धारण में दीनता का, पराक्रम में शत्रु का, सुंदरता में जरा (बुढ़ापा) का, शास्त्र में विवाद का, गुण में दुर्जन का और काया में मृत्यु का भय सर्वदा बना रहता है। इसलिए इस पृथ्वीतर पर और सब पदार्थ तो भययुक्त हैं परंतु एक वैराग्य ही ऐसा है कि जो सब प्रकार के भयों से सर्वथा मुक्त है।’ वैराग्य शतकः31

यदि मनुष्य विष्य-सुखों को भोगता है तो उसे रोगों का भय सताता रहता है। यदि चंदन आदि शीतल पदार्थों का बारम्बार या अधिक लेपन किया जाता है तो बादी (वायु) हो जाती है। यदि व्यक्ति का उच्च कुल में जन्म होता है तो सदा उसके पतन या उसमें कोई दोष होने का डर लगा रहता है। कुल में किसी के भी दुराचारी होने से कुल की बदनामी का भय रहता है। इसी तरह अधिक धन होने से राजा का डर लगा रहता है कि ‘कहीं राजा सारा धन छीन न ले !’ चुप रहने में अप्रतिष्ठा और दीनता का भय रहता है। चुप रहने वाले को अनेक लोग दीन-हीन समझ लेते हैं। संग्राम में शत्रुओं का भय रहता है। यदि सूरत सुंदर होती है तो उसके बिगड़ जाने का भय रहता है। बुढ़ापे में रूप-रंग नष्ट हो ही जाता है। शास्त्रों के जानने वाले को प्रतिपक्षियों का भय रहता है। प्रतिपक्षी सदा उसे नीचा दिखाना और उसका अपमान करना चाहते हैं। पुण्य या सदगुणों में दुष्टों का भय रहता है। दुष्ट लोग अच्छे से अच्छे कामों में दोष निकाल कर उनका उलटा अर्थ लगाने लगते हैं। वे निंदा या अपवाद करके गुणी के गुणों का मूल्य घटाने की भरपूर चेष्टा किया करते हैं। शरीर के पीछे मृत्यु का भय लगा रहता है। काया का नाश अवश्यम्भावी है। जो शरीर में आया है, जिसने यह शरीररूपी वस्त्र पहना है उसे यह छोड़ना ही होगा।

इस तरह विचार करने से यही सिद्ध होता है कि मनुष्य को सभी सांसारिक पदार्थों में भय ही भय है। फिर भय किसमें नहीं है ? केवल वैराग्य ही ऐसा है जिसमें किसी भी बात का भय नहीं है।

‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ में अपने गुरुदेव श्री वसिष्ठ मुनि से भगवान श्री रामचन्द्र जी कहते हैं- “सभी भोग संसाररूपी महारोग हैं अर्थात् जैसे अपथ्य-सेवन से रोग नष्ट नहीं होता, वैसे ही भोगों के सेवन से संसाररूपी महारोग बना रहता है।”

ओह ! विषयी जीवन कितना क्षणभंगुर है। यदि मनुष्य इस पर तथा इसके परिणाम पर शांत चित्त से विचार करे, यदि वह इस बात को समझ सके कि ‘विषयभोग के अनंतर दुःख, चिंता, परेशानी एवं मृत्यु निश्चित है।’ तो वह कभी भी उनसे लिप्त न हो और वैराग्य भाव उसके भीतर उत्पन्न हो जाये। क्षणिक वैराग्य कभी-कभी लोगों के अंदर उत्पन्न हो जाया करता है किंतु वह या तो किसी स्वजन की मृत्यु के कारण उत्पन्न होता है या धन-सम्पत्ति के विनाश आदि के कारण। वास्तविक वैराग्य संसार की नश्वरता या आत्मज्ञान के दृढ़ चिंतन एवं विवेक के उपरांत उत्पन्न होता है और वही स्थायी होता है।

वैराग्य कैसे बढ़े ? इस बारे में पूज्य श्री के सत्संग में आता हैः “वैराग्य आने अथवा जगाने के कई तरीके होते हैं। एक तो कहीं घर में झगड़ा हुआ, कोई मर गया अथवा तो कोई इच्छित वस्तु नहीं मिली, मजदूरी कर-कर के थके कि ‘छोड़ो, संसार ऐसा ही है।’ अथवा तो सत्संगियों का संग मिला और कुछ विवेक हुआ तो देखा कि ‘सब ऐसे ही है भाई ! बड़े-बड़े चले गये तो अपन क्या हैं ?’ विवेक जगा। जप करने से और ‘भगवान के सिवाय कोई सार नहीं है’ ऐसा थोड़ा विवेक जगने से भी वैराग्य आता है। विषय-विकारों का सुख कितना भी मिला हो पर भगवान के सुख के आगे तुच्छ ही है। ‘कामविकार भोगा, देखा तो बाद में क्या मिला ? सत्संग और ध्यान के बाद तो इतना बढ़िया होता है लेकिन कामविकार भोगने के बाद तो इतन सत्यानाश…..’ ऐसा विवेक करने से भी वैराग्य आता है। बेटे-बेटियों को कमा के खिलाया, नहलाया-धुलाया और उन्हीं के द्वारा उद्दंड व्यवहार हुआ तो विवेक करें। इससे वैराग्य आयेगा। देह की बीमार अवस्था अथवा देह की नश्वरता देखकर विवेक जगायें अथवा श्मशान में गये तो मन को कहें कि ‘यही शरीरों का हाल है !’

जन्म, मृत्यु, वृद्ध अवस्था और व्याधियों का ख्याल करो। ‘बेटों का क्या होगा ? परिवार का क्या होगा ?’ इस चक्कर से निकल जाओ। हम अपना प्रारब्ध लेकर आये थे। आप पिछले जन्म में किसी के बेटे थे। न वे संबंधी साथ आये न वह शरीर साथ आया। अभी भी यह शरीर आपका नहीं है। आपका होता तो कहने में चलता। आप नहीं चाहते हो कि यह बीमार होवे फिर भी हो जाता है। फिर भला यह आपका कैसे हो सकता है ? यह तो मोह-ममता है कि ‘बेटा मेरा, फलाना मेरा, फलाना मेरा……।’ एक आत्मा ही अपना है, बाकी सब सपना है। वैराग्यरसिको भव भक्तिनिष्ठः। वैराग्य में राग करो और परमात्मा का रस पाओ, भक्तिनिष्ठ हो जाओ। इसी से आपका कल्याण होगा।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 292

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

निष्पाप रहो, निश्चिंत रहो


पूज्य बापू जी

एक बार हम लंदन गये थे। किसी भक्त ने बहुत प्रार्थना की तो हम उसके घर गये। घर में कोई प्रेत आदि आता और एक लड़की को सताता था। वह लड़की किसी को भी देखती तो चीखती थी। उस समय लंदन में प्रेत निकालने के बहाने किसी व्यक्ति को मारने-पीटने की घटना में कोई मर गया था, तब से वहाँ पुलिस मुल्ला-मौलवियों, साधु-संतों पर कड़ी नज़र रखती थी। हम उस घर में गये तो लड़की चीखीः “आऽऽऽऽऽऽ……।’ ऐसी चीखी कि पड़ोस में आवाज गयी।

पड़ोसियों ने पुलिस को फोन कर दिया। तुरंत पुलिस आ गयी।

पुलिस आयी तो हम जिनके घर गये थे वे लोग घबरा गये, बोलेः “बापू जी ! यह लड़की चीखी तो पड़ोसियों ने फोन कर दिया है और अब पुलिस आ गयी है तो आप थोड़ा उस कमरे में चले जाइये।”

मैंने कहाः “नहीं, हम इधर ही बैठेंगे।”

पुलिया आयी तो सब कमरे जाँचे और बाथरूम भी जाँचा कि ‘कोई घुस तो नहीं गया।’ जहाँ मैं बैठा था वहाँ आरती आदि का सामान पड़ा था। पुलिसवालों ने मुझे देखा तो चौंक गये। बोलेः “हू इज़ ही (ये कौन हैं) ?”

घरवालों ने कहाः “ही इज़ अवर प्रीस्ट।” अर्थात् ये हमारे धर्मगुरु हैं।

मैंने पुलिसवालों पर एक नज़र डाली तो वे चुपचाप चले गये।

घरवाले बोल रहे थेः “आप किसी कमरे में छुप जाइये या बाथरूम में चले जाइये।” अगर हम उस समय छुप जाते तो डरपोक बनते और पकड़े जाते। फिर जो छोड़ने की कार्यवाही होती सो होती लेकिन वे लोग किनकी पंक्ति में बापू जी को गिन डालते ?

अतः आप निर्भीक रहा करो। आप किसी को सताते नहीं, किसी का बुरा चाहते नहीं, सोचते नहीं, करते नहीं फिर जरा-जरा बात में डरना क्यों ?

अब मेरे पास इतने लोग आते हैं तो किसी को ईर्ष्या होती है इसलिए कुछ-का-कुछ अखबारों में छपवाते हैं। कोई डराने के लिए, कोई पैसा निकालने के लिए अखबारों में तोड़-मरोड़ के बापू की निंदा भी लिख देते हैं लेकिन मैं निर्भीक रहता हूँ तो मेरे को तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

आप बुरे मत बनो फिर कोई आप पर दोषारोपण करे, आपको बुरा कहे तो डरो मत, धैर्य रखो। भयभीत नहीं होना, क्रोधित नहीं होना। सोचो, ‘भगवान हमारी सहनशक्ति बढ़ा रहे हैं, समता बढ़ाने का अवसर दे रहे हैं।’ और कोई प्रशंसा करे तो सोचो, ‘भगवान हमारा उत्साह बढ़ाने की लीला कर रहे हैं।’ दोनों समय भगवान की स्मृति आ जाय। सफलता और आनंद आये तो सोचो, ‘भगवान की दया है।’ विफलता और विरोध हो तो सोचो, ‘भगवान की कृपा है।’ विपरीत परिस्थिति वैराग्य और अनुकूल परिस्थिति सेवा सिखाने को आती है। तो एक तरफ सेवा हो, दूसरी तरफ विवेक-वैराग्य हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 7 अंक 292

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ