जो गुरु-आज्ञा के जितने करीब होते हैं, उतने वे खुशनसीब होते हैं

जो गुरु-आज्ञा के जितने करीब होते हैं, उतने वे खुशनसीब होते हैं


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

पूज्य मोटा सन् 1930 में स्वतंत्रता संग्राम में आन्दोलनकारियों के साथ लगे थे तो एक बार साबरमती जेल में गये। साबरमती जेल में जब कैदी ज्यादा हो जाते थे तो उनको खेड़ा जेल में ले जाते थे। जब कैदियों का स्थानांतरण होता तो जेल के एक छोटे-से दरवाजे से सिर झुकाकर गुजरना पड़ता था। जब कैदी एक एक होकर निकलते थे तो सिपाही उनकी पीठ पर इतने जोर से डंडा मारता की कैदी बेचारे चिल्ला उठते। दूसरे कैदी देखकर ही डर जाते थे। अंग्रेज लोग इतना डरा देते ताकि उनका हौसला दब जाय, वे दब्बू होकर रहें और आंदोलन बंद हो जाय। उन कैदियों में पूज्य मोटा का पचासवाँ नम्बर था। उनचास कैदियों के पीछे खड़े-खड़े पूज्य मोटा डंडे की आवाज और कैदियों की करूण पुकार सुन रहे थे। जब उनका आठवाँ नम्बर आया तो मोटा जी सोचने लगे कि अब क्या करूँ ? तो वे जिन्हें अपना गुरु मानते थे, उनकी आवाज आयीः “त्राटक कर !” साथ में कैदी साथी शिवाभाई भी थे। पूज्य मोटा ने उनसे पूछाः “तुम्हें कोई आवाज सुनाई दी ?”

उन्होंने कहाः “मुझे तो कुछ सुनाई नहीं पड़ा।” मोटा को लगा क ‘मेरे मन की कल्पना होगी।’ जब सातवाँ नम्बर आया तो फिर से आवाज आयी की त्राटक कर ! तब उन्हें पता चला कि यह मेरे गुरुदेव धूनीवाले दादा केशवानंदजी ने प्रेरणा की है। जब उनके ऊपर डंडा लगने का मौका आया तो मोटा ने गुरुदेव का सुमिरन करके डंडा मारने वाले की आँखों में झाँका, निर्भय होकर ॐकार का जप किया। उन्हें मारने के लिए सिपाही ने डंडा ऊपर तो उठाया लेकिन मारने की हिम्मत नहीं हुई। सिपाही देखता ही रह गया ! बड़े अधिकारी ने उसे डाँटा कि, “क्या करता है ! मार !” सिपाही ने कहा कि “मैं नहीं मार सकता हूँ।” तो बड़े अधिकारी ने डंडा उठाया। मोटा जी ने उसकी भी आँखों में निर्भीक होकर झाँका। ॐकार का चिंतन करते हुए, गुरू के साथ मन जोड़कर देखा तो वह भी डंडा मारने में सफल नहीं हुआ। अधिकारी जेलर के पास गया और बोलाः “एक ऐसा कैदी आया है पता नहीं उसके पास क्या शक्ति है कि हम उसको डंडा नहीं मार सकते हैं।”

उस समय अंग्रेज शासन था इसलिए वे लोगों को बहतु सताते थे। सरकारी पिट्ठू भारत को आजाद करानेवालों को तो अपना दुश्मन मानते थे। जेलर बोलाः “ले आओ इधर !”

“तू कौन है, क्या करता है, कैदी है कि क्या है ? तेरे पास क्या जादू है ?”

जेलर ने सिर से पैर तक घूर-घूरकर देखा। मोटा ने जेलर की आँखों में देखा और कहाः “भाई ! हम तो कुछ नहीं करते, हम तो भगवान का नाम लेते हैं। सबमें ईश्वर है, वह ईश्वर हमारा बुरा नहीं चाहेंगे। आपके अंदर भी हमारा ईश्वर है – ऐसा चिन्तन करके खड़े थे तो उसी ईश्वर की सत्ता से उन्होंने हमको डंडा नहीं मारा और आप भी स्नेह करने लगेंगे।”

जेलर कुछ प्रभावित हुआ और बोलाः “तुम तो इतने अच्छे आदमी हो, फिर इन आंदोलनकारियों के साथ कैसे जुड़े ?”

पूज्य मोटाः “हमने सोचा कि देखें जरा क्या होता है, मान-अपमान का चित्त पर क्या असर होता है ? सबमें ब्रह्म है, आत्मा है, परमेश्वर है, एक सत्ता है तो उसका जरा प्रयोग करने के लिए हम इस आंदोलन में दो साल से जुड़ गये। जेल की सी क्लास की रोटियाँ खाते हैं। ‘सी’ क्लास में लोगों को कैसे-कैसे प्रताड़ित किया जाता है, वह भी हम देखते हैं।

जेलर तो पानी-पानी हो गया। उसने रजिस्टर मँगाया और लिख दिया कि ‘मोटा जी को ‘ए’ क्लास की ट्रीटमेंट दी जाय। इनके भोजन में घी होगा, गुड़ होगा। इनको रात को दूध मिलना चाहिए। इनके बिस्तर पर मच्छरदानी होनी चाहिए।’ एक नम्बर के कैदी को जो सुख सुविधाएँ मिलती हैं, वे सारी लिख दीं और उनके लिए सिफारिश लिख दी। तब से पूज्य मोटा को ‘ए’ क्लास का खाना-पीना मिलने लगा लेकिन वे उसे अपने साथियों में बाँट देते थे और स्वयं “सी” क्लास का भोजन करते कि ‘अनेकों शरीरों में वही-का-वही है। ‘सी’ क्लास, ‘बी’ क्लास, ‘ए’ क्लास सब ऊपर-ऊपर की है। पानी की तरंग, बुलबुले, झाग, भँवर ऊपर-ऊपर है, समुद्र में गहराई में तो पानी एक-का-एक है।

सब घट मेरा साइयाँ खाली घट न कोय।

बलिहारी वा घट की जा घट परगट होय।।

कबीरा कुआँ एक है पनिहारी अनेक।

न्यारे न्यारे बरतनों में पानी एक का एक।।

ॐ आनंद…. ॐ माधुर्य…..

शिष्य को जिस दिन से ब्रह्मज्ञानी गुरु से दीक्षा मिल जाती है, उस दिन से गुरू हर क्षण उसके साथ होते हैं, पर परिस्थिति में उसकी रक्षा करते हैं। संसार की झंझटों से तो क्या जन्म-मरण से भी मुक्ति दिला देते हैं-

सभी शिष्य रक्षा पाते हैं,

व्याप्त गुरू बचाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2010, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 211

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