नौ लक्षण बनाते हैं गुरु कृपा का अधिकारी

नौ लक्षण बनाते हैं गुरु कृपा का अधिकारी


सदगुरु की कृपा पाने के लिए शिष्य में जिन लक्षणों का होना आवश्यक है, उनका वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं- “हे उद्धव ! सभी प्रकार के अभिमानों में ज्ञान का अभिमान छोड़ना बहुत कठिन है। जो उस अभिमान को छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है, वह मान-सम्मान की ओर नहीं देखता। सम्मान की इच्छा न रखना ही शिष्य का पहला लक्षण है।

‘समस्त प्राणियों में ईश्वर का वास है’ ऐसी भावना होने के कारण शिष्य के मन में द्वेष आ ही नहीं सकता। जिसने उसकी निंदा की है उसे वह हित चाहने वाली माँ के समान समझता है। यह ‘मत्सररहितता’ ही शिष्य का दूसरा लक्षण है। तीसरा लक्षण है ‘दक्षता’। आलस्य या विलम्ब मन को स्पर्श न करे इसी का नाम है दक्षता। ‘सोsहम’ भावना को दृढ़ बनाकर अहंभाव तथा ममता का त्याग ‘निर्ममता’ ही शिष्य का चौथा लक्षण है।

हे उद्धव ! शिष्य का हित साधने में गुरु ही माता है, गुरु ही पिता हैं। सगे-सम्बन्धी, बंधु और सुहृद भी गुरु ही हैं। गुरु की सेवा ही उसका नित्यकर्म है, सच्चा धर्म है, गुरु ही आत्माराम हैं। सदगुरु को ही अपना हितैषी मानना सत्शिष्य का पाँचवाँ लक्षण है।

शरीर भले ही चंचल हो जाये लेकिन उसका चित्त गुरुचरणों में ही अटल रहता है। गुरु चरणों में जो ऐसी निश्चलात रखता है, वही सच्चा परमार्थी शिष्य है। वही गुरु उपदेश से एक क्षण में परमार्थ का पात्र हो जाता है। जिस प्रकार एक दीपक से दूसरा दीपक जलाने पर वह भी उसी की तरह हो जाता है, उसी प्रकार निश्चल वृत्ति के साधक को गुरु प्राप्त होते ही वह तत्काल तद्रूप हो जाता है। अंतःकरण की ऐसी निश्चलता ही शिष्य का छठा लक्षण है। इसी से षट्विकारों का  विनाश होता है।

विषय का स्वार्थ छोड़कर पूर्ण तत्त्वार्थ जानने के लिए जो भजन करता है, उसी का नाम है ‘जिज्ञासा’। परमार्थ के प्रति नितांत प्रेम तथा बढ़ती हुई आस्था शिष्य का सातवाँ लक्षण है।

हे उद्धव ! सदगुरु अनेक जनों के लिए शीतल छाँव हैं, शिष्यों की तो माँ ही हैं। उनके प्रति जो ईर्ष्या करेगा उसकी आत्मप्राप्ति तो दूर हुई समझिये। सत्शिष्य का आचरम इस सम्बन्ध में बिल्कुल शुद्ध रहता है। वह अपने को ईर्ष्या का स्पर्श नहीं होने देता। गुरु ने उसे सर्वत्र ब्रह्मभावना करने का जो पाठ पढ़ाया होता है, उस पर सदा ध्यान देते हुए वह सबको समभाव से वंदन करता है। किसी भी प्राणी से छल न करना – ‘अनसूया’ यही शिष्य का आठवाँ लक्षण है। इन आठ महामनकों की माला जिसके हृदयकमल में निरंतर वास करती है, वही सदगुरु का अऩुभव प्राप्त करता है।

सत्य व पवित्र बोलना शिष्य का नौवाँ उत्तम लक्षण है। सदगुरु से वह विनीत भाव और मृदु वाणी से प्रश्न करता है। गुरुवचन सत्य से भी सत्य है इसे वह भक्तिपूर्वक स्वीकार करता है। सदगुरु के सामने व्यर्थ की बातें करना महान पाप है यह जानकर वह व्यर्थ की बकवास और मिथ्यावाद नहीं करता। निंदा के प्रति तो वह मूक ही रहता है। उसकी भाषा में कभी छल-कपट और झूठ नहीं होता। वह सदैव सदगुरु का स्मरण करता रहता है।

शिष्य के ये नौ लक्षण हैं। यह नवरत्नों की सुंदर माला जो सदगुरु के कंठ में पहनायेगा, वह देखते-देखते सायुज्य मुक्ति (परमात्म-स्वरूप से एकाकारता) के सिंहासन पर आसीन होगा। इन नवरत्नों का अभिनव गुलदस्ता जो सदगुरु को भेंटस्वरूप देगा, वह स्वराज्य के मुकुट का महामणि बनकर सुशोभित होगा।”

(श्री एकनाथी भागवत, अध्यायः 10)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2014, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 258

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