वहाँ गुरु ने संकल्प किया और यहाँ योगानन्द जान गए लेकिन कैसे…??

वहाँ गुरु ने संकल्प किया और यहाँ योगानन्द जान गए लेकिन कैसे…??


गुरु की कृपा अखुट,असीम एवं अवर्णनीय है। श्रद्धा के द्वारा निमेष मात्र में आप परम् पदार्थ पा लेंगे। गुरु के वचन एवं कर्म में श्रद्धा रखो श्रद्धा रखो श्रद्धा रखो..। गुरुभक्ति विकसित करने का यही मार्ग है। गुरु के चरण में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए । गुरु महान है, विपत्तियों से डरना नही।हे वीर शिष्य! आगे बढ़ो।

चैतन्यम शाश्वतं शांतम

व्योमातीतम निरंजनम।

नादबिन्दु कलातीतम

तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

अर्थात जो चैतन्य, शाश्वत, शांत व्योम से परे है निरंजन है उन गुरुदेव को प्रणाम है। जिस प्रकार प्राणवायु हमारे जीवन का संचालक है उसी प्रकार गुरुभक्ति हमारे शिष्यत्व को जीवित रखती है। जब जीवन मे गुरु का आगमन होता है तो शिष्य का जीवन ऐसा हो जाता है जैसे ठूठ से खड़े वृक्ष को बहारों ने घेर लिया हो, अरसे से सूखी धरा पर जल से भरे मेघ मेहरबान हो उठे हों, एक बुझी हुई बाती को जैसे नारंगी लौ छू गयी हो, अमावस्या से श्रापित आसमान पर जैसे सूर्य आशीष बरसाने लगे हो एवं मरणासन्न देह में जैसे किसीने नव प्राण फुंक दिये हो। शिष्य की मानो जीवन सृष्टि ही खिल उठती है और उसका अंतः मन स्वतः ही कह उठता है कि..

इस तन में जो प्राण है बसते,

उन प्राणों का स्रोत आप हो।

पल पल में जो स्वांस लेता,

उन श्वांसों का विस्तार आप हो।

मैं तो हूँ बस टूटी नईया,

परन्तु खुश हूं कि पतवार आप हो।

शब्दो मे जो कही न जाये,

इतनी गहरी बात आप हो।

इस प्रकार एक शिष्य के भीतर अपने गुरु के प्रति श्रद्धा उतपन्न होती है और उसके प्राण पूरी तरह अपने गुरु में समा जाते है। वह हॄदय की हर धड़कन में अपने गुरु का स्मरण करता है। उसके रस भरपूर भाव तरंगे द्रवित होकर गुरु के चरणों का प्रक्षालन करते है। और फिर दुनिया के किसी कोने में बैठकर अपनी भाव अपनी संवेदना अपने गुरु को समर्पित कर सकता है और

गुरु भी अपने सुक्ष्म ग्रहणशक्ति के द्वारा शिष्य के अंदर छिपे भावो को रुबरु पढ़ लेते है और उन्हें अपनी करुणार्द्र विशाल हॄदय में संजो लेते है।

यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गुरु शिष्य के भावो के इस आदान प्रदान के क्रिया के लिए शिष्य का गुरु के साथ पूर्ण तौर पर आंतरिक तालमेल होना चाहिए ।

आइए गुरु और शिष्य के विचार तरंगों के आदान प्रदान को एक अद्भुत उदाहरण के माध्यम से समझते है।

एक बार युक्तेश्वर गिरी जी को कलकत्ता से सिरमपुर सुबह नौ बजे आना था उनके शिष्य योगानंद जी व डीजेन उनके दर्शन के लिए उतावले थे परन्तु तभी योगानंद जी के मन मे बिजली के समान तेज़ तरंगे पैदा हुई उन तरंगों ने योगानंद जी को सन्देश दिया कि मैं 9 बजे नही 10 बजे पहुँचूँगा।

योगानंद जी ने सन्देश को ग्रहण किया और डिजेन को भी बताया। डीजेन को विश्वास नही हुआ वह 9 बजे ही स्टेशन पहुंच गया परन्तु युक्तेश्वर जी का आगमन 10 बजे ही हुआ। डीजेन के लिए यह घटना बहुत आश्चर्यजनक थी उसने गुरुदेव से इस पक्षपाती व्यवहार का कारण पुछा। युक्तेश्वर गिरी जी ने इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए बताया कि – मेरे सन्देश में कोई कमी न थी, मैंने तो दोनों को एक जैसा सन्देश ही भेजा था तुम्हारी ग्रहणशक्ति में दोष है।

योगानंद जी का गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण व आंतरिक तालमेल होने के कारण वे सन्देश को पूरी तरह अंगीकार कर पाए जबकि डीजेन उन तरंगों को पकड़ न सका। इसमे कोई संदेह नही कि एक शिष्य जिसके चिंतन में हर समय गुरु ही रहते है वह गुरु द्वारा प्रसारित तरंगों को ग्रहण करने के योग्य होता है। इसके पीछे एक वैज्ञानिक कारण है यदि बिजली की तार में से बिजली की तरंग प्रवाहित की जाए तो उसके आस पास एक “Magnetic Field” (मैग्नेटिक फील्ड) अर्थात चुम्बकीय क्षेत्र तैयार हो जाता है ठीक इसी प्रकार मानवीय स्नायु तंत्र भी कुछ इसी प्रकार की तरंगों का ताना बाना है। जिसके प्रभाव से एक चुम्बकीय मंडल तैयार हो जाता है।

जब एक शिष्य के भीतर एक समय, हर समय गुरुदेव का चिंतन चलता है तो उन विचार तरंगों के आधार पर भी एक चुम्बकीय क्षेत्र तैयार हो जाता है यह वही क्षेत्र होता है जो गुरु द्वारा प्रदान की गई उन उच्च कोटि की तरंगों को बहुत आसानी से ग्रहण कर लेता है इसलिए हम निरन्तर गुरु का चिंतन व ध्यान करे अपने गुरु के साथ आंतरिक तालमेल बढ़ाये। यदि हम अपने हॄदय रूपी धरती पर गुरु को विराजित करे तो हमारी वृत्तीयां भी गुरुमय हो जाएंगी और फिर ऐसा अंतःकरण गुरु की प्रत्येक प्रेरणा को बहुत आसानी से पकड़ पायेगा।

हम स्वयं से प्रश्न करें कि हमारा ध्यान किधर है हमारी भावनाएं, हमारी सोच, हमारा श्रम, हमारी साधना किस पर लक्षित है? यदि अपने गुरु पर है तो निःसन्देह हम अध्यात्म के अंतिम पड़ाव तक अवश्य पहुचेंगे, मंजिल अवश्य हमारी होगी। अतः हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपने गुरुदेव को हरपल निकट अनुभव कर पाए। स्वयं को उनके हृदय में एवं उनको अपने हॄदय में स्थित देख पाये। विचार से ,व्यवहार से,उनके सुगढ़ सांचे में ढल पाए एवं अपने मन की चौतरफा बिखरी किरणों को गुरु रूपी आध्यात्मिक सूर्य में विसर्जित कर सकें जब ऐसा होगा तब हमारा अंतःमन यही कह उठेगा कि..

हर श्वांस-श्वांस में मेरी,

एक तेरी ही आशा है।

तू ही तो मेरी श्रद्धा है,

तू ही तो मेरा विश्वास है।

तेरे दिए ज्ञान से ही,

आत्मा का साज है।

तूने ही तो खोला,

इस घट का भी राज है।

सेवा,सुमिरन ध्यान तेरा,

यही मेरा नित काज है।

सद्गुरु तेरे ही चरणों मे,

मेरा कल और आज है।

सद्गुरु तेरे ही चरणों मे,

मेरा कल और आज है।

वास्तव में यही शिष्यत्व की वह ध्वनि है जिसे गुरुदेव सुनना चाहते हैं।

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