बस एक अशुद्ध विचार ने शिष्य को डाला महान संकट में….

बस एक अशुद्ध विचार ने शिष्य को डाला महान संकट में….


गुरु के वचन और ईश्वर में श्रद्धा रखना यह सत्वगुण की निशानी है। गुरु इस पृथ्वी पर साक्षात ईश्वर है, सच्चे मित्र एवं विश्वासपात्र बन्धु है। हे भगवान! हे भगवान! मैं आपके आश्रय में आया हूँ, मुझ पर दया करो, मुझे जन्म मृत्यु के सागर से बचाओ ऐसा कहकर शिष्य को अपने गुरु के चरण कमलों में दण्डवत प्रणाम करना चाहिए। जो अपने गुरु के चरणों की पूजा निर्पेक्ष भक्तिभावपूर्वक करता है उसे गुरु कृपा सीधी प्राप्त होती है। गुरु का आश्रय लेकर जो योग का अभ्यास करता है वह विविध अवरोधों से पीछे नही हटता सद्गुरु का नाम मंत्र राज है इसका जप करने से बुद्धि खरा सोना बनती है। इसके स्मरण चिंतन से महा संकटो से रक्षा होती है। हर किसी अवस्था मे चलते-फिरते, बैठते-उठते यह मंत्र राज साधक की रक्षा करता है। जो भी चलते-फिरते, बैठते-उठते यह मंत्र राज का जप करता है उसे अविनाशी निराकार व निर्विकार आत्मतत्व की अनुभूति होती है।

सद्गुरु की परा चेतना में रमण करने से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। कई शिष्य साधक बौद्धिक रूप से इस सच्चाई को जानते है किंतु भावरूप से वे इसमे डूब नही पाते, निमग्न नही हो पाते इसका कारण यह होता है कि उनकी बुद्धि तरह-तरह संसारिक गणित लगाती रहती है। इस बुद्धि को श्रीमद्भागवत गीता के गायक *व्यवसायात्मिका बुद्धि* कहते है। श्री रामकृष्ण परमहंस इसके लिए *पटवारी बुद्धि* का शब्द उपयोग करते है। जोड़-तोड़ कुटिलता क्रूरता में निरत रहने वालों के लिए न तो साधना सम्भव है और न ही उनसे समर्पण बन पड़ता है और जो अपनी अहंता का सिर उतारकर गुरुचरणों पर रखने का साहस नही कर सकते भला उनके लिए गुरुभक्ति कहाँ और किस तरह से सम्भव है, ऐसे को सद्गुरु चाह कर भी नही अपना पाते। शिष्य की भावमलिनता गुरु को यह करने ही नही देती।

इस भाव सत्य से जुड़ा एक बहुत ही प्रेरक प्रसंग है। यह प्रसंग श्री रामकृष्ण परमहंस देव के गृही शिष्य श्री रामचन्द्र दत्त के जीवन का है। श्री दत्त महाशय की भक्ति अपने गुरु के प्रति बढ़ी चढ़ी थी परन्तु इसी के साथ उनमे सांसारिक बुद्धि की भी छाया थी उनमे अपनी विद्या, बुद्धि एवं धन पैसो का अहंकार भी था। उनके सन्दर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है कि श्री रामकृष्ण परमहंस देव के सन्यासी शिष्य स्वामी अवधूतानंद पहले इन्ही के यहां नौकरी करते थे इन अवधूतानंद को श्री रामकृष्ण के भक्त समुदाय में लाटू महाराज के नाम से जाना जाता है। दत्त महाशय ने ही इन्हें ठाकुर से मिलवाया था बाद में उनकी भक्ति भावना को देखकर उन्हें ठाकुर की सेवा में अर्पित कर दिया।

यही दत्त महाशय एकदिन ठाकुर के पास दक्षिणेश्वर आये स्वाभाविक रूप से वे अपने साथ अपने गुरुदेव के लिए कुछ फल और मिठाईयां एवं कुछ अन्य समान लाये हुए थे। ठाकुर ने स्वभावतः यह समान युवा भक्त मंडली में बाँट दिया उन्हें इस तरह समान बाँटते देखकर दत्त महाशय थोड़ा कुंठित हो गए उन्हें लगा कि इतना कीमती सामान और इन्होंने इन लड़को में बांट दिया अच्छा होता कि ये इस सबको अपने लिए रख लेते और बहुत दिनों तक इसका उपयोग करते रहते। उनकी ये सांसारिक भावनाएं ठाकुर से छिपी नही रही, जिस समय वे यह सब सोच रहे थे उस समय शाम का समय था और वे परमहंस देव के पास बैठे उनके पांव दबा रहे थे। इन भावनाओ के उनके मन मे उठते ही ठाकुर ने अपने पाँव से उनके हाथ झटक दिये और बाँटने से बचा हुआ उनका समान उनके पास फेंकते हुए बोले तू अब जा यहां से मैं तुझे अब और बर्दास्त नही कर सकता। रही बात उस समान की जो तू अबतक यहां लाया करता था वह भी और उससे ज्यादा तुझे मिल जाएगा मैं माँ से प्रार्थना करूँगा कि वह सबकुछ बल्कि उससे बहुत ज्यादा तुझे लौटा दे।

अचानक ठाकुर में आये इस भाव परिवर्तन से दत्त महाशय तो हतप्रभ रह गए परन्तु साथ ही वे यह भी समझ गए कि अंतर्यामी ठाकुर ने उनके मन मे उठ रही सभी भावनाओ को जान लिया है और वे उन्हें भावना शून्य अर्थात भावातीत करना चाहते है परन्तु अब किया भी क्या जा सकता था? शाम गहरी हो गई थी वापस कलकत्ता भी नही लौट सकते थे वैसे भी ऐसे मनः स्थिति में दत्त महाशय कलकत्ता लौटना भी नही चाहते थे बस भरे हुए मन से सोचा ठाकुर के द्वारा तिरस्कृत जीवन अब किस काम का और उनके अंदर उमड़ आई भक्तिभावना से यह प्रेरणा कि क्यो न माँ के मंदिर के पास बैठकर ठाकुर के नाम का जप किया जाय बस *ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय*, ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय… उनके कण्ठ से ,प्राणों से और हॄदय से बहने लगा सतत गुरु के नाम का चिंतन चलने लगा उनकी भावनाए अपने दिव्य गुरु मे विलिन होने लगी रात गहरी होती गयी और वह अपने सद्गुरु की परा चेतना में विलीन होते गए। भाव विलिनता इतनी प्रगाढ़ हुई कि शिष्य वत्सल ठाकुर स्वयं उनके पास आ गये और बोले – चल तेरा परिमार्जन हो गया।

ठाकुर के चरणों को अपने आंसुओ से धोते दत्त महाशय अनुभव कर रहे थे कि सद्गुरु की परा चेतना ही चिंतनीय और माननीय है न कि सांसारिक व्यक्ति और वस्तु का चिंतन। इस सत्य को हम भी अनुभव कर सकते हैं……

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