स्वाध्याय व उसकी आवश्यकता

स्वाध्याय व उसकी आवश्यकता


क्या है स्वाध्याय ?

आत्मसाक्षात्कारी ज्ञानीजनों द्वारा रचित आध्यात्मिक शास्त्रों एवं पुस्तकों का अध्ययन ‘स्वाध्याय’ कहलाता है। पवित्र ग्रंथों का दैनिक पारायण स्वाध्याय है। यह राजयोग के नियम का चौथा अंग है। आत्मस्वरूप के विश्लेषण को या ‘मैं कौन हूँ ?’ के ज्ञान को ही स्वाध्याय की संज्ञा दी जाती है। किसी भी मंत्र के सस्वर पाठ को भी स्वाध्याय ही कहा जाता है। सत्संग-शास्त्रों के अध्ययन को भी स्वाध्याय कहते हैं। इनका पारायण ध्यानपूर्वक होना चाहिए। जो पढ़ें उसे समझें और जो समझे हों उसका मनन करके शांत होते जायें तो फिर निदिध्यासन बन जाता है और आप आत्मसाक्षात्कार के करीब हो जाते हैं। स्वाध्याय में मंत्रजप भी आ जाता है। प्रतिदिन स्वाध्याय और उसका दैनिक जीवन में अभ्यास करने से आपको यह भगवान से मिला देगा।

क्यों जरूरी है स्वाध्याय ?

मन को आदर्श (उच्च सिद्धान्त) के प्रति सचेत रखने का प्रभावशाली उपाय शास्त्रों तथा संतों की जीवनियों का दैनिक अध्ययन करने में निहित है। ऐसे अध्ययन से मन में प्रभावशाली स्वीकारात्मक विचार उभरते हैं, जो मानसिक शक्ति को तीव्र करते हैं। वे तुरंत प्रेरणा प्रदान कर मनुष्य को अधोगति से बचा लेते हैं। अतः स्वाध्याय तो साधक को जीवन में एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ना चाहिए।

स्वाध्याय प्रेरणादायक होकर मन को आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक ले जाता है और संशय निवारक होता है। यह अपवित्र विचारों का उन्मूलन कर देता है। यह मन के लिए नयी आध्यात्मिक रूढ़ियों (उभारों) का काम करता है, विक्षेप का निवारण करता है और ध्यान में सहायक रहता है। एक प्रकार की सविकल्प समाधि का रूप ले लेता है। मनरूपी पशु के लिए चारागाह का काम देता है। जब सदगुरु निर्दिष्ट आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं तो आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त ज्ञानियों के विचारों से विचारवान बन जाते हैं। आपको उनके प्रेरणा मिलती है और हर्षोन्माद प्राप्त होता है। वे लोग धनभागी है जिन्हें ब्रह्मवेत्ता गुरु का मंत्र और सत्संग मिला है और उन्हीं के निर्दिष्ट ग्रंथ और मंत्र में लगे रहते हैं। और वे अपने-आपके शत्रु हैं जो गुरुदीक्षा के बाद भी मनचाहे, मनमुखी लोगों की, आत्मानुभवहीन व्यक्तियों की किताबों में उलझते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए देवर्षि नारदजी कहते हैं-

मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः। (श्रीमद्भागवत माहात्म्यः 1.32)

सावधान हो जायें, सुधर जायें तो अच्छा है।

जब आपको सदगुरु का सत्संग नहीं मिल पाता, तब स्वाध्याय ही आपका सहायक बनेगा और प्रेरणा देगा। जैसे ऋषि प्रसाद है, ऋषि दर्शन है। स्वाध्याय श्रद्धा की अस्थिरता को दूर कर उसे दृढ़ करता है। यही मुक्ति की प्रबल इच्छा का कारण बनता है। इसी से उत्साह तथा प्रकाश प्राप्त होता है। यह आपके सामने उन संतों की सूची रखता है जिन्होंने सत्य को अपनाया, कष्टों का सामना करके कठिनाइयों को हटाया। इससे आपको आशा तथा शक्ति प्राप्त होती है। यह आपके मन को सत्त्व से भर देता है और प्रेरणा देकर उन्नत करता है। आत्मज्ञानियों व संतों की पुस्तकों में लिखी शिक्षाओं को आचरण में लाने से आपके थके-माँदे शरीर तथा मन को विश्रांति तथा सांत्वना मिलती है। आध्यात्मिक साहित्य पीड़ादायक वातावरण में साथी, कठिनाइयों में आदर्श मार्गदर्शक, अविद्या-अंधकार में पथ-प्रदर्शक और समस्त रोगों में सर्वरोगौषधि तथा भविष्य-निर्माता का कार्य करता है।

धर्मशास्त्र ज्ञानियों, संतों दार्शनिकों तथा अध्यात्मविद्या में प्रवीण विद्वज्जनों के अनुभव-ज्ञान से परिपुष्ट हैं। स्वाध्याय द्वारा शास्त्रों के मर्मज्ञ बनिये। प्रकृति का वास्तविक रूप पहचानिये और अपने सीमित जीवन को प्रकृति के दिव्य नियमानुसार ढालिये। शक्ति तथा आनंद के बाहुल्य का द्वार आत्मज्ञान द्वारा ही खुलता है। आत्मज्ञान ही अनगिनत कष्टों तथा पापों का नाशक होकर अविद्या का उन्मूलन करता है। आत्मज्ञान ही परम शांति तथा शाश्वत पूर्णता  प्राप्त कराता है।

समाधि का काम करता है स्वाध्याय

रामायण, भागवत, योगवासिष्ठ महारामायण आदि धर्मशास्त्रों का अध्ययन नियमपूर्वक चलता ही रहे। स्वाध्याय के लिए गीता व श्री योगवासिष्ठ महारामायण तो अनुपम शास्त्र हैं। अपने सुविधानुसार आधे घंटे से तीन घंटे तक प्रतिदिन इनका पठन, मनन-चिंतन, निदिध्यासन करें। शास्त्रों का स्वाध्याय ही क्रियायोग है, नियम है। यह हृदय को पवित्र करता है और मन में उच्च कोटि के विचार भर देता है। साधक भले ही आध्यात्मिक उन्नति के किसी भी स्तर पर क्यों न हो, उसे सत्संग-शास्त्रों, जिनमें आत्मज्ञानियों ने पावन सत्य का प्रतिपादन किया है, के स्वाध्याय का नियम कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। क्या आप जन्म से आत्मज्ञानी तथा परिव्राजक (संन्यासी) शुकदेवजी से भी अधिक उन्नत हैं ? क्या आप उन महान ऋषियों से भी अधिक ज्ञानी हो गये हैं, जो नैमिषारण्य में श्री सूतजी महाराज से श्रीमद्भागवत सप्ताह श्रवण हेतु एकत्र हुए थे ? ऐसे महान ज्ञानियों के उदाहरण (जीवन) से कुछ सीखिये और सदैव आध्यात्मिक ज्ञान को पाने के लिए लगे रहिये। उत्पाती न बनिये। स्वाध्याय, सज्जनता, साधना मत छोड़िये। अंधे स्वार्थ में, ईर्ष्या, द्वेष, आक्रमण व धोखे की रीति नीति समय आने पर धोखेबाज को ही तबाह करती है।

कुछ ग्रहण करने के लिए सदैव उत्सुक रहिये। वृद्ध वही है जो यह मान बैठता है कि उसका ज्ञान पर्याप्त है, उसे अधिक की आवश्यकता ही नहीं रही। वह जीवित होकर भी मृत है जो उपनिषद् व ब्रह्मवेत्ताओं के सत्संग को सुनने की आवश्यकता अनुभव नहीं करता तथा अनर्गल चलचित्र व निगुरे लोगों के लेखों में उलझता रहता है या मरने वाले शरीर की सुख सुविधाओं व वाहवाही के पीछे भटकता रहता है। दुर्लभ मनुष्य शरीर और कीमती समय दुर्लभ परमात्मदेव को पाने में लगाना ही बुद्धिमत्ता है एवं उन्हें गँवाना मूर्खता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 28, 29 अंक 292

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