Monthly Archives: July 2009

बिना मृत्यु के पुनर्जन्म !


एक चोर ने राजा के महल में चोरी की । सिपाहियों को पता चला तो उन्होंने उसके पदचिह्नों का पीछा किया । पीछा करते-करते वे नगर से बाहर आ गये । पास में एक गाँव था । उन्होंने चोर के पदचिह्न गाँव की ओर जाते देखे । गाँव में जाकर उन्होंने देखा कि एक जगह संत सत्संग कर रहे हैं, और बहुत से लोग बैठकर सुन रहे हैं । चोर के पदचिह्न उसी ओर जा रहे थे । सिपाहियों को संदेह हुआ कि चोर भी सत्संग में लोगों के बीच बैठा होगा । वे वहीं खड़े रहकर उसका इंतजार करने लगे ।

सत्संग में संत कह रहे थे – जो मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान की शरण चला जाता है, भगवान उसके सम्पूर्ण पापों को माफ कर देते हैं । ‘गीता’ में भगवान ने कहा हैः

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

‘सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।’ (18.66)

वाल्मीकि रामायण (6.18.33) में आता हैः

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।

अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ।।

‘जो एक बार भी मेरी शरण में आकर मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है ।’

इसकी व्याख्या करते हुए संत श्री ने कहाः जो भगवान का हो गया, उसका मानों दूसरा जन्म हो गया । अब वह पापी नहीं रहा, साधु हो गया ।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।

‘अगर कोई दुराचारी से दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए । कारण कि उसने बहुत अच्छी तरह से निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।’ (गीताः 9.30)

चोर वहीं बैठा सुन रहा था । उस पर सत्संग की बातों का बहुत असर पड़ा । उसने वहीं बैठे-बैठे यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अभी से मैं भगवान की शरण लेता हूँ, अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा । मैं भगवान का हो गया ।’ सत्संग समाप्त हुआ । लोग उठकर बाहर जाने लगे । बाहर राजा के सिपाही चोर के पदचिह्नों की तलाश में थे । चोर बाहर निकला तो सिपाहियों ने उसके पदचिह्नों को पहचान लिया और उसको पकड़के राजा के सामने पेश किया ।

राजा ने चोर से पूछाः “इस महल में तुम्हीं ने चोरी की है न ? सच-सच बताओ, तुमने चुराया हुआ धन कहाँ रखा है ?”

चोर ने दृढ़तापूर्वक कहाः “महाराज  ! इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की ।”

सिपाही बोलाः “महाराज ! यह झूठ बोलता है । हम उसके पदचिह्नों को पहचानते हैं । इसके पदचिह्न चोर के पदचिह्न से मिलते हैं, इससे साफ सिद्ध होता है कि चोरी इसी ने की है ।”

राजा ने चोर की परीक्षा लेने की आज्ञा दी, जिससे पता चले कि वह झूठा है या सच्चा ।

चोर के हाथ पर पीपल के ढाई पत्ते रखकर उसको कच्चे सूत से बाँध दिया गया । फिर उसके ऊपर गर्म करके लाल किया हुआ लोहा रखा परंतु उसका हाथ जलना तो दूर रहा, पत्ते और सूत भी नहीं जला । लोह नीचे जमीन पर रखा तो वह जगह काली हो गयी । राजा ने सोचा कि ‘वास्तव में इसने चोरी नहीं की, यह निर्दोष ह ।’

अब राजा सिपाहियों पर बहुत नाराज हुआ कि “तुम लोगों ने एक निर्दोष पुरुष पर चोरी का आरोप लगाया है । तुम लोगों को दण्ड दिया जायेगा ।” यह सुनकर चोर बोलाः “नहीं महाराज ! आप इनको दण्ड न दें । इनका कोई दोष नहीं है । चोरी मैंने ही की थी ।”

राजा ने सोचा कि ‘यह साधुपुरुष है, इसलिए सिपाहियों को दण्ड से बचाने के लिए चोरी का दोष अपने सिर पर ले रहा है ।’

राजा बोलाः “तुम इन पर दया करके इनको बचाने के लिए ऐसा कह रहे हो पर मैं इन्हें दण्ड अवश्य दूँगा ।”

चोर बोलाः “महाराज ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, चोरी मैंने ही की थी । अगर आपको विश्वास न हो तो अपने आदमियों को मेरे साथ भेजो । मैंने चोरी का धन जंगल में जहाँ छिपा रखा है, वहाँ से लाकर दिखा दूँगा ।”

राजा ने अपने आदमियों को चोर के साथ भेजा । चोर उनको वहाँ ले गया, जहाँ उसने धन छिपा कर रखा था और वहाँ से धन लाकर राजा के सामने रख दिया । यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ ।

राजा बोलाः “अगर तुमने ही चोरी की थी तो परीक्षा करने पर तुम्हारा हाथ क्यों नहीं जला ? तुम्हारा हाथ भी नहीं जला और तुमने चोरी का धन भी लाकर दे दिया, यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है । ठीक-ठीक बताओ, बात क्या है ?”

चोर बोलाः “महाराज ! मैंने चोरी करने के बाद धन जंगल में छिपा दिया और गाँव में चला गया । वहाँ एक जगह सत्संग हो रहा था । मैं वहाँ जाकर लोगों के बीच बैठ गया । सत्संग में मैंने सुना कि ‘जो भगवान की शरण लेकर पुनः पाप न करने का निश्चय कर लेता है, उसको भगवान सब पापों से मुक्त कर देते हैं । उसका नया जन्म हो जाता है ।’ इस बात का मुझ पर असर पड़ा और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा । अब मैं भगवान का हो गया ।’ इसलिए तब से मेरा नया जन्म हो गया । इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की, इसलिए मेरा हाथ नहीं जला । आपके महल में मैंने जो चोरी की थी, वह तो पिछले जन्म में की थी ।”

कैसा दिव्य प्रभाव है सत्संग का ! मात्र कुछ क्षण के सत्संग ने चोर का जीवन ही पलट दिया । उसे सही समझ देकर पुण्यात्मा, धर्मात्मा बना दिया । चोर सत्संग-वचनों में दृढ़ निष्ठा से कठोर परीक्षा में भी सफल हो गया और उसका जीवन बदल गया । राजा प्रभावित हुआ, प्रजा से भी सम्मानित हुआ और प्रभु के रास्ते चलकर प्रभुकृपा से परम पद को भी पा लिया । सत्संग पापी-से-पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है । जीवन में सत्संग नहीं होगा तो आदमी कुसंग जरूर करेगा । कुसंगी व्यक्ति कुकर्म कर अपने को पतन के गर्त में गिरा देता है लेकिन सत्संग व्यक्ति को तार देता है, महान बना देता है । ऐसी महान ताकत है सत्संग में !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 199

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परिप्रश्नेन


प्रश्नः पूज्य बापू जी ! मैंने ‘वासुदेव सर्वम्’ इस मंत्र को आत्मसात करने का लक्ष्य बनाया था । भले लोगों में तो वासुदेव का दर्शन संभव लगता है परंतु बुरे लोगों में, बुरी वस्तुओं में नहीं लगता तो इस हेतु क्या किया जाय ?

पूज्य बापू जीः गुरुजी वासुदेव स्वरूप हैं, श्रीकृष्ण, गायें आदि वासुदेवस्वरूप हैं – इस प्रकार की भावना तो बन सकती है परंतु जो हमारे सामने ही बदमाशी कर रहा हो उसको वासुदेव कैसे मानें ? कोई बदमाशी कर रहा है, तुम्हे ठग रहा है तो सावधान तो रहो लेकिन उसमें भी वासुदेव के स्वरूप की ही भावना करो । जैसे भगवान श्रीकृष्ण मक्खनचोरी की लीला करते थे, तब प्रभावती नामक गोपी सावधान तो रहती थी लेकिन श्रीकृष्ण को देखकर आनंदित भी होती थी कि ‘वासुदेव कैसी अठखेलियाँ कर रहा है !’ ऐसे ही यदि कोई क्रूर आदमी हो तो समझो कि ‘वासुदेव नृसिंह अवतार की लीला कर रहे हैं’ और कोई युक्ति लड़ाने वाला हो तो समझ लो कि ‘वासुदेव श्रीकृष्ण की लीला कर रहे हैं ।’ कोई एकदम गुस्सेबाज हो तो समझना, ‘वासुदेव शिव के रूप में लीला कर रहे हैं ।’ अच्छे-बुरे, सबमें वासुदेव ही लीला कर रहे हैं, इस प्रकार का भाव बना लो ।

वास्तव में तो सब वासुदेव ही हैं, भला-बुरा तो ऊपर-ऊपर से दिखता है । जैसे वास्तव में पानी है परंतु बोलते हैं कि गंदी तरंगों में पानी की भावना कैसे करें ? नाली में गंगाजल की भावना कैसे करें ? अरे, नाली का वाष्पीभूत पानी फिर गंगाजल बन जाता है और वही गंगाजल नाली में आ जाता है । ऐसे ही वासुदेव अनेक रूपों में दिखते रहते हैं ।

प्रश्नः पूज्य बापूजी ! हमारा लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति है परंतु व्यवहार में हम यह भूल जाते हैं और भटक जाते हैं । कृप्या व्यवहार में भी अपने लक्ष्य को सदैव याद रखने की युक्ति बतायें ।

पूज्य बापू जीः कटहल की सब्जी बनाने के लिए जब उसे काटते हैं, तब पहले हाथ में तेल लगा लेते हैं ताकि उसका दूध चिपके नहीं । नहीं तो वह हाथ से उतरता नहीं है । ऐसे ही पहले भगवद्भक्ति, भगवत्पुकार, भगवज्जप, भगवद्ध्यान आदि की चिकनाहट हृदय में रगड़कर फिर संसार का व्यवहार करोगे तो संसार भी नहीं चिपकेगा और तुम्हारा काम भी हो जायेगा ।

प्रश्नः गुरुवर ! आत्मचिंतन कैसे करें ?

पूज्य बापू जीः जो लोग आत्मचिंतन नहीं करते वे सुख-दुःख में डूबकर खप जाते हैं लेकिन आत्मचिंतन करने वाले साधक तो दोनों का मजा लेते हैं । आत्मचिंतन अर्थात् जहाँ से अपना ‘मैं’ उठता है, जो सत्-चित्-आनंदस्वरूप है, जो दुःख को देखता है और सुख को जानता है वह कौन है ? ऐसा चिंतन ।

‘हानि और लाभ आ-आकर चले जाते हैं परंतु मैं कौन हूँ ? ॐॐ….’ ऐसा करके शांत हो जाओ तो भीतर से उत्तर भी आयेगा और अनुभव भी होगा कि ‘मैं इनको देखने वाला द्रष्टा, साक्षी, असंग हूँ ।’

‘विचार चन्द्रोदय, विचारसागर, श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ इत्यादि आत्मचिंतन के ग्रंथों का अध्ययन अथवा जिनको ईश्वर की प्राप्ति हो गयी है, उन्होंने ईश्वर तथा आत्मदेव के विषय में जो कहा है वह आश्रम की ‘श्री नारायण स्तुति’ पुस्तक में संकलित किया है, उसे पढ़ते-पढ़ते शांत हो जाओ, हो गया आत्मचिंतन !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 199

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गुरुभक्तियोग – स्वामी शिवानंद जी सरस्वती


याद रखना चाहिए कि मनुष्य की अंतरात्मा पाशवी वृत्तियों, भावनाओं तथा प्राकृत वासनाओं के जाल में फँसी हुई है । मनुष्य के मन की वृत्ति विषय और अहं की ओर ही जायेगी, आध्यात्मिक मार्ग में नहीं मुड़ेगी । आत्मसाक्षात्कार की सर्वोच्च भूमिका में स्थित गुरु में शिष्य अगर अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण समर्पण कर दे तो साधना-मार्ग के से भयस्थानों से बच सकता है । ऐसा साधक संसार से परे दिव्य प्रकाश को प्राप्त कर सकता है । मनुष्य की बुद्धि एवं अंतरात्मा को जिस प्रकार निर्मित किया जाता है, अभ्यस्त किया जाता है उसी प्रकार वे कार्य करते हैं । सामान्यतः वे दृश्यमान मायाजगत तथा विषय-वस्तु की आकांक्षा एवं अहं की आकांक्षा पूर्ण करने के लिए कार्यरत रहते हैं । सजग प्रयत्न के बिना वे आध्यात्मिक ज्ञान के उस उच्च सत्य को प्राप्त करने के लिए कार्यरत नहीं होते ।

‘गुरु की आवश्यकता नहीं है और हरेक को अपनी विवेक-बुद्धि तथा अंतरात्मा का अनुसरण करना चाहिए’ – ऐसे मत का प्रचार प्रसार करने वाले भूल जाते हैं कि ऐसे मत का प्रचार करके वे स्वयं गुरु की तरह प्रस्तुत हो रहे हैं । ‘किसी भी शिक्षक की आवश्यकता नहीं है’ – ऐसा सिखाने वालों को उनके ही शिष्य मान-पान और भाव अर्पित करते हैं । भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को बोध दिया कि ‘तुम स्वयं ही तार्किक विश्लेषण करके मेरे सिद्धान्त की योग्यता अयोग्यता और सत्यता की जाँच करो । ‘बुद्ध कहते हैं’ इसलिए सिद्धान्त को सत्य मानकर स्वीकार कर लो ऐसा नहीं ।’ किसी भी भगवान की पूजा नहीं करना, ऐसा उन्होंने सिखाया लेकिन इसका परिणाम यह आया कि महान गुरु एवं भगवान के रूप में उनकी ही पूजा शुरु हो गयी । इस प्रकार ‘स्वयं ही चिंतन करना चाहिए और गुरु की आवश्यकता नहीं है’ इस मत की शिक्षा से स्वाभाविक ही सीखने वाले के लिए गुरु की आवश्यकता का इनकार नहीं हो सकता । मनुष्य के अनुभव कर्ता-कर्म के परस्पर संबंध की प्रक्रिया पर आधारित है ।

पश्चिम में कुछ लोग मानते हैं कि गुरु पर शिष्य का अवलम्बन एक मानसिक बंधन है । मानस-चिकित्सा के मुताबिक ऐसे बंधन से मुक्त होना जरूरी है । यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि मानस-चिकित्सावाले मानसिक परावलम्बन से, गुरु शिष्य का संबंध बिल्कुल भिन्न है । गुरु की उच्च चेतना के आश्रय में शिष्य अपना व्यक्तित्व समर्पित करता है । गुरु की उच्च चेतना शिष्य की चेतना को आवृत कर लेती है और उसका ऊर्धवीकरण करती है । गुरु-शिष्य का व्यक्तिगत संबंध एवं शिष्य का गुरु पर अवलम्बन केवल आरम्भ में ही होता है, बाद में तो वह परब्रह्म की शरणागति बन जाता है । गुरु सनातन शक्ति के प्रतीक बनते है । किसी दर्दी का मानस-चिकित्सक के प्रति परावलम्बन का संबंध तोड़ना अनिवार्य है क्योंकि यह संबंध दर्दी का मानसिक तनाव कम करने के लिए केवल अस्थायी संबंध है । जब चिकित्सा पूरी हो जाती है तब परावलम्बन तोड़ दिया जाता है और दर्दी पूर्व की भाँति अलग और स्वतंत्र हो जाता है । किंतु गुरु-शिष्य के संबंध में प्रारंभ में या अंत में कभी भी अनिच्छनीय परावलम्बन नहीं होता । यह तो केवल पराशक्ति पर ही अवलम्बन होता है । गुरु को देहस्वरूप में या एक व्यक्ति के स्वरूप में नहीं माना जाता है । गुरु पर अवलम्बन शिष्य के पक्ष में देखा जाय तो आत्मशुद्धि की निरंतर प्रक्रिया है, जिसके द्वारा शिष्य ईश्वरीय परम तत्त्व का अंतिम लक्ष्य प्राप्त कर सकता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 23 अंक 199

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