बिना मृत्यु के पुनर्जन्म !

बिना मृत्यु के पुनर्जन्म !


एक चोर ने राजा के महल में चोरी की । सिपाहियों को पता चला तो उन्होंने उसके पदचिह्नों का पीछा किया । पीछा करते-करते वे नगर से बाहर आ गये । पास में एक गाँव था । उन्होंने चोर के पदचिह्न गाँव की ओर जाते देखे । गाँव में जाकर उन्होंने देखा कि एक जगह संत सत्संग कर रहे हैं, और बहुत से लोग बैठकर सुन रहे हैं । चोर के पदचिह्न उसी ओर जा रहे थे । सिपाहियों को संदेह हुआ कि चोर भी सत्संग में लोगों के बीच बैठा होगा । वे वहीं खड़े रहकर उसका इंतजार करने लगे ।

सत्संग में संत कह रहे थे – जो मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान की शरण चला जाता है, भगवान उसके सम्पूर्ण पापों को माफ कर देते हैं । ‘गीता’ में भगवान ने कहा हैः

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

‘सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।’ (18.66)

वाल्मीकि रामायण (6.18.33) में आता हैः

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।

अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ।।

‘जो एक बार भी मेरी शरण में आकर मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है ।’

इसकी व्याख्या करते हुए संत श्री ने कहाः जो भगवान का हो गया, उसका मानों दूसरा जन्म हो गया । अब वह पापी नहीं रहा, साधु हो गया ।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।

‘अगर कोई दुराचारी से दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए । कारण कि उसने बहुत अच्छी तरह से निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।’ (गीताः 9.30)

चोर वहीं बैठा सुन रहा था । उस पर सत्संग की बातों का बहुत असर पड़ा । उसने वहीं बैठे-बैठे यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अभी से मैं भगवान की शरण लेता हूँ, अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा । मैं भगवान का हो गया ।’ सत्संग समाप्त हुआ । लोग उठकर बाहर जाने लगे । बाहर राजा के सिपाही चोर के पदचिह्नों की तलाश में थे । चोर बाहर निकला तो सिपाहियों ने उसके पदचिह्नों को पहचान लिया और उसको पकड़के राजा के सामने पेश किया ।

राजा ने चोर से पूछाः “इस महल में तुम्हीं ने चोरी की है न ? सच-सच बताओ, तुमने चुराया हुआ धन कहाँ रखा है ?”

चोर ने दृढ़तापूर्वक कहाः “महाराज  ! इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की ।”

सिपाही बोलाः “महाराज ! यह झूठ बोलता है । हम उसके पदचिह्नों को पहचानते हैं । इसके पदचिह्न चोर के पदचिह्न से मिलते हैं, इससे साफ सिद्ध होता है कि चोरी इसी ने की है ।”

राजा ने चोर की परीक्षा लेने की आज्ञा दी, जिससे पता चले कि वह झूठा है या सच्चा ।

चोर के हाथ पर पीपल के ढाई पत्ते रखकर उसको कच्चे सूत से बाँध दिया गया । फिर उसके ऊपर गर्म करके लाल किया हुआ लोहा रखा परंतु उसका हाथ जलना तो दूर रहा, पत्ते और सूत भी नहीं जला । लोह नीचे जमीन पर रखा तो वह जगह काली हो गयी । राजा ने सोचा कि ‘वास्तव में इसने चोरी नहीं की, यह निर्दोष ह ।’

अब राजा सिपाहियों पर बहुत नाराज हुआ कि “तुम लोगों ने एक निर्दोष पुरुष पर चोरी का आरोप लगाया है । तुम लोगों को दण्ड दिया जायेगा ।” यह सुनकर चोर बोलाः “नहीं महाराज ! आप इनको दण्ड न दें । इनका कोई दोष नहीं है । चोरी मैंने ही की थी ।”

राजा ने सोचा कि ‘यह साधुपुरुष है, इसलिए सिपाहियों को दण्ड से बचाने के लिए चोरी का दोष अपने सिर पर ले रहा है ।’

राजा बोलाः “तुम इन पर दया करके इनको बचाने के लिए ऐसा कह रहे हो पर मैं इन्हें दण्ड अवश्य दूँगा ।”

चोर बोलाः “महाराज ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, चोरी मैंने ही की थी । अगर आपको विश्वास न हो तो अपने आदमियों को मेरे साथ भेजो । मैंने चोरी का धन जंगल में जहाँ छिपा रखा है, वहाँ से लाकर दिखा दूँगा ।”

राजा ने अपने आदमियों को चोर के साथ भेजा । चोर उनको वहाँ ले गया, जहाँ उसने धन छिपा कर रखा था और वहाँ से धन लाकर राजा के सामने रख दिया । यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ ।

राजा बोलाः “अगर तुमने ही चोरी की थी तो परीक्षा करने पर तुम्हारा हाथ क्यों नहीं जला ? तुम्हारा हाथ भी नहीं जला और तुमने चोरी का धन भी लाकर दे दिया, यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है । ठीक-ठीक बताओ, बात क्या है ?”

चोर बोलाः “महाराज ! मैंने चोरी करने के बाद धन जंगल में छिपा दिया और गाँव में चला गया । वहाँ एक जगह सत्संग हो रहा था । मैं वहाँ जाकर लोगों के बीच बैठ गया । सत्संग में मैंने सुना कि ‘जो भगवान की शरण लेकर पुनः पाप न करने का निश्चय कर लेता है, उसको भगवान सब पापों से मुक्त कर देते हैं । उसका नया जन्म हो जाता है ।’ इस बात का मुझ पर असर पड़ा और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि ‘अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा । अब मैं भगवान का हो गया ।’ इसलिए तब से मेरा नया जन्म हो गया । इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की, इसलिए मेरा हाथ नहीं जला । आपके महल में मैंने जो चोरी की थी, वह तो पिछले जन्म में की थी ।”

कैसा दिव्य प्रभाव है सत्संग का ! मात्र कुछ क्षण के सत्संग ने चोर का जीवन ही पलट दिया । उसे सही समझ देकर पुण्यात्मा, धर्मात्मा बना दिया । चोर सत्संग-वचनों में दृढ़ निष्ठा से कठोर परीक्षा में भी सफल हो गया और उसका जीवन बदल गया । राजा प्रभावित हुआ, प्रजा से भी सम्मानित हुआ और प्रभु के रास्ते चलकर प्रभुकृपा से परम पद को भी पा लिया । सत्संग पापी-से-पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है । जीवन में सत्संग नहीं होगा तो आदमी कुसंग जरूर करेगा । कुसंगी व्यक्ति कुकर्म कर अपने को पतन के गर्त में गिरा देता है लेकिन सत्संग व्यक्ति को तार देता है, महान बना देता है । ऐसी महान ताकत है सत्संग में !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 199

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *