Monthly Archives: July 2009

अपना-पराया – पूज्य बापू जी


साधक को जब मंत्र मिलता है न, तो वह मौन हो जाता है, जपते-जपते चुप हो जाता है । कैकेयी को भी मंत्र मिला था और वह चुप हो गयी थी, उसको मौन रुच रहा था । उसको मंत्र किसने दिया था ? वसिष्ठ महाराज ने दिया था कि अन्य किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ने दिया था ? नहीं । राजसी और तामसी मति से भरपूर मंथरा ने दिया था ।  मंत्र तो क्या कुमंत्र दिया था । रामराज्य की बात सुनकर मंथरा ने कैकेयी से मुलाकात की । कैकेयी बड़ी खुश थी कि ‘मेरा ज्येष्ठ पुत्र राजा हो रहा है ।’ कैकेयी और राम जी की आपस में खूब बनती थी ।

कैकेयी ने मंथरा को कहा कि “ले यह हार, कल मेरे सपूत श्रीराम का राज्याभिषेक होगा ।”

“क्या कहा, तेरा सपूत….?”

“हाँ, राम मेरा सपूत है न !”

“यह तो ठीक है लेकिन अपना अपना होता है, पराया पराया होता है ।”

मंथरा ने कैकेयी को कुमंत्र दे दिया । जो राग-द्वेष पैदा कर दे वह ‘मंत्र’ नहीं ‘कुमंत्र’ है और जो राग-द्वेष मिटाकर तत्त्वज्ञान की तरफ ले जाय वह सुमंत्र है । मंथरा ने कैकेयी को ऐसा कुमंत्र दिया कि धीरे-धीरे उसकी बुद्धि बदली और उसने महाराज दशरथ को इस बात के लिए मजबूर किया कि ‘राम तो जाय वनवास और भरत राजसिंहासन पर बैठे ।’ यह हुआ उस कुमंत्र से और सुमित्रा ने अपने बेटे लक्ष्मण को मंत्र दिया कि ‘तुम राम जी की सेवा में जाओ और राम जी के नाते सबसे व्यवहार करना । जैसे पतिव्रता स्त्री पति के नाते सास, ससुर, देवर, जेठ तथा पति के मेहमानों की भी सेवा कर देती है, ऐसे ही तुम भी राम जी के नाते सबसे व्यवहार करना और अनेक में एक देखना, अपने पराये का भेद मत करना ।’ उसने यह सात्त्विक मंत्र दिया तथा मंथरा ने कुमंत्र दियाः ‘यह अपना, यह पराया….।’

वास्तव में देखें तो अपना कौन है ? अपनी देह भी अपने कहने में नहीं चलती, अपना मन भी अपने कहने में नहीं चलता, अपना बेटा भी अपने कहने में नहीं चलता, आजकल अपने दोस्त भी अपनों से धोखा कर लेते हैं । अपने वाले कब, कितना काम आयेंगे कोई पता नहीं । और कई बार अपने ही पराये बन  जाते हैं और पराये अपने बन जाते हैं । तत्त्वज्ञान तो यह है कि अपना तो एक आत्मा-परमात्मा है जो मौत के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता । वही अपना है बाकी सब सपना है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 13 अंक 199

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सच्चे तीर्थ


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः ।।

भगवना बोलते हैं- येषां त्वन्तगतं पापं... जिनके पापों का अंत होता है, जनानां पुण्यकर्मणाम् । जिनके पुण्य जोर मारते हैं, ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः... वे द्वन्द्व और मोह से मुक्त होकर भजन्ते मां दृढ़व्रताः । सत्संग में, साधना में, ईश्वरप्राप्ति में लगते हैं ।

बाकी के जो तुच्छ लोग हैं उनके लिए भगवान ने गीता में कहा – जन्तवः । जैसे जीव जन्तु खाते पीते, बच्चे करते और फिर मर जाते हैं, उनको पता ही नहीं कि इतना मूल्यवान जीवन कैसे बिताना चाहिए, ऐसे लोगों को भगवान ने जन्तवः कहकर उपेक्षा करके एक प्रकार की गाली दी है । तेन मुह्यन्ति जन्तवः । वे जंतु हैं, मोहित हो रहे हैं । ‘भागवत्’ में आया हैः मन्दाः सुमन्दमतयः... ऐसे लोग मंदमति के हैं, मंदभाग्याः भाग्य भी उनका मंद है, उपद्रुताः इसकी निंदा, उसकी चुगली करने के उपद्रवी स्वभाव के हैं । कलियुग के दोषों से भरे हुए मनुष्य की पहचान कराते हैं भगवान और सत्शास्त्र ।

मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ।

वे मंदमति है, मंदभागी हैं और उपद्रवी हैं । खुद तो उपद्रवी हैं और दूसरों को भी ऐसे-वैसे साजिश करके, अफवाह फैलाकर उपद्रवों की आग में झोंकते हैं ।

जब महापुरुष हयात होते हैं तो बोलते हैं- उल्टा मार्ग दसेंदा नानक । नानकजी के विरुद्ध बगावत करते हैं । नानक जी जैसे महान संत को कारागार में डालने वाले ऐसे अभागे लोग पीछे नहीं हटा करते । उसमें भी अपने को बड़ा आदमी साबित करते हैं कि देखो, इनके गुरु बड़े कि मैं बड़ा हूँ । नानक जी को कारागार में डाल दिया बाबर ने, ऐसी बेकदरी की लोगों ने नानकजी की । तो ये मंदमति हैं । जिनकी मति मारी गयी है वे संतों की हयाती में संतों का फायदा नहीं ले पाते हैं अपितु संतों में दोषदर्शन करते हैं ।

हयात गुरु जब समाज में होते हैं तो लोग अवज्ञा करते हैं, उनके लिए कुछ-की-कुछ अफवाहें करते हैं, निंदा आदि करते हैं, जिससे हयात गुरु से लोग वंचित हो जाते हैं, कम फायदा उठा पाते हैं । भगवान के मंदिर में जाते हैं, मूर्ति के आगे माथा टेकते हैं तो मूर्ति न कुछ बोलती है, न टोकती है, न डाँटती है । अपनी तरफ से श्रद्धा होने से थोड़ा पुण्य होता है । इसलिए संत कबीरदास जी ने यह पर्दा उठाया समाज की आँखों से बोलेः

तीरथ नहाये एक फल.... तीर्थ में नहाते हो एक फल होता है । संत मिले फल चार – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लेकिन उन संत में अगर श्रद्धा-भक्ति हो और वे तुम्हारे सद्गुरु हैं तो उनके साथ अपनत्व होगा । गुरु के साथ शिष्य का अपनत्व होता है तो गुरु का भी शिष्य के साथ अपनत्व होता है – जैसे माँ का बच्चों के साथ अपनत्व होता है तो माँ सार-सार बच्चे को पिला देती है । गाय का बछड़े के साथ अपनत्व होता है तो गाय सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, धक्का-मुक्की खुद सहती है, दिन भर भटकती है लेकिन दूध बनता है तो बछड़े को तैयार मिल ऐसा मिलता है कि बस सकुर-सकुर पी ले । बछड़े को तो मुँह हिलाना पड़ता है लेकिन सद्गुरुरूपी माँ ने जन्म-जन्म से जो कमाई की, अब भी घंटों भर ध्यान-समाधि और रब के साथ एकाकार होते हैं… तो गाय तो खड़ी होती है और बच्चे को सिर हिलाना पड़ता है दूध पीने के लिए लेकिन शिष्य रूपी बछड़े खड़े नहीं होते, प्रयत्न नहीं करते, बैठे रहते हैं और गुरुरूपी गाय ही अपने अनुभव का अमृत रब को छुआकर कानों के द्वारा हृदय में भर देती है ।

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

न अंतः इति अनन्तः । जिसका अंत न हो उसे बोलते हैं अनन्त । ये सारे फल अंतवाले हैं और दुःख देने वाले हैं । सत्शिष्य का जो फल है वह अनन्त फल है, जिसका अंत मौत भी नहीं कर सकती ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 17,20 अंक 199

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दुःखी न होना तुम्हारे हाथ की बात है ! – पूज्य बापू जी


तुम निंदनीय काम न करो फिर भी अगर निंदा हो जाती है तो घबराने की क्या जरूरत है ? तुम अच्छे काम करो, प्रशंसा होती है तो जिसने करवाया उसको दे दो । बुरे काम हो गये तो प्रायश्चित्त करके रुको लेकिन जरा-जरा सी बात में थरथराओ मत । संसार है, कभी दुःख आयेगा, कभी सुख आयेगा, मान आयेगा, अपमान आयेगा, यश आयेगा, अपयश आयेगा । कभी बेटा कहना नहीं मानेगा, कभी पत्नी कहना नहीं मानेगी, कभी पति कहना मानेगा, कभी नहीं भी मानेगा । कभी पति की चलेगी, कभी पत्नी की चलेगी, कभी बेटे की चलेगी, कभी पड़ोसी की होगी, कभी उस पार्टी की होगी, कभी इस होगी – इसी का नाम तो दुनिया है ।

खूब पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा ।

यह नाव तो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा ।।

ज्ञानियों के लिए सारा संसार तमाशा है । ‘लोग अन्याय करें तो क्या बड़ी बात है, मैं अपने-आपसे तो अन्याय नहीं करता हूँ ?’ – ये बातें तुमको सत्संग में मिलेंगी । चाहे तुम संत कबीर जी न हो पाओ, तब भी कुछ अंश में दुःख से बच पाओगे । ‘अरे, अल्लाह, भगवान साक्षी हैं । उसके मुँह में कीड़े पड़ें । मैंने ऐसा नहीं किया, वह झूठा आरोप लगा रहा है…. ।’ अरे, कबीर जी पर कलंक लगा तो तेरे पर जरा लग गया तो क्या परवाह है ! नानकदेव जी पर लगा तो तेरे पर किसी ने कुछ धब्बा लगा दिया तो चिंता मत कर, वह अंतर्यामी तो देखता है न ! हम अचल, हमारा चित्त अचल !

समता के साम्राज्य पर पहुँचे हुए नानक जी, कबीर जी, तुकाराम जी महाराज, नरसिंह मेहता जैसे संतों की लोग जब निंदा करते हैं तो वे उद्विग्न नहीं होते, शांत रहते हैं पर आम लोग तो निंदा होने पर परेशान हो जाते हैं, सफाई देने लग जाते हैं कि ‘भगवान की कसम हमने ऐसा नहीं किया, वैसा नहीं किया….।’

कोई चाहे कैसा भी व्यवहार करे, दुःखी होना-न-होना तुम्हारे हाथ की बात है, आसक्त होना-न-होना तुम्हारे हाथ की बात है । तुमने क्या किया ? जो अपने अधिकार की चीज है वह दूसरों को दे दी, बड़े दाता बन गये ! बाहर की चीजें नहीं दीं । अपने हृदय को कैसे रखना यह तुम्हारे अधिकार की बात है लेकिन यह अधिकार तुमने दूसरों को दे दियाः ‘फलाना आदमी ऐसा करे तो हमको सुख मिले, कोई निंदा न के तो हम सुखी रहें । यह ऐसा हो जाय, वह वैसा हो जाय तो हम सुखी हो जायें….।’ तुमने अपने हृदय को जर्मन खिलौना बना दिया, कोई जैसे चाबी घुमाये ऐसे घूमना शुरु कर देते हो । लोग वाहवाही कर सकते हैं लेकिन अहंकार करना-न-करना तुम्हारे हाथ की बात है । लोग निंदा कर सकते हैं लेकिन गुस्सा होना, भयभीत होना, चिढ़ना-न-चिढ़ना तुम्हारे हाथ की बात है । मान लो, तुम्हारी निंदा किसी गलत कारण से हो रही है और तुम उसमें बिलकुल शामिल नहीं हो तो लाखों-लाखों लोगों को समझाना तुम्हारे हाथ में नहीं है । पूरी दुनिया को चमड़े से ढकना तुम्हारे बस की बात नहीं है, अपने पैरों में जूते पहनकर काँटों से सुरक्षा कर लेना आसान है । ऐसे ही तुम महापुरुषों के जीवन से सीख लेकर समता में रहो । अपने से निंदनीय काम न हों, सावधान रहो, फिर भी निंदा होती है तो भगवान को धन्यवाद दो कि ‘वाह प्रभु ! तेरी बड़ी कृपा है ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 16 अंक 199

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