सच्चे तीर्थ

सच्चे तीर्थ


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः ।।

भगवना बोलते हैं- येषां त्वन्तगतं पापं... जिनके पापों का अंत होता है, जनानां पुण्यकर्मणाम् । जिनके पुण्य जोर मारते हैं, ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः... वे द्वन्द्व और मोह से मुक्त होकर भजन्ते मां दृढ़व्रताः । सत्संग में, साधना में, ईश्वरप्राप्ति में लगते हैं ।

बाकी के जो तुच्छ लोग हैं उनके लिए भगवान ने गीता में कहा – जन्तवः । जैसे जीव जन्तु खाते पीते, बच्चे करते और फिर मर जाते हैं, उनको पता ही नहीं कि इतना मूल्यवान जीवन कैसे बिताना चाहिए, ऐसे लोगों को भगवान ने जन्तवः कहकर उपेक्षा करके एक प्रकार की गाली दी है । तेन मुह्यन्ति जन्तवः । वे जंतु हैं, मोहित हो रहे हैं । ‘भागवत्’ में आया हैः मन्दाः सुमन्दमतयः... ऐसे लोग मंदमति के हैं, मंदभाग्याः भाग्य भी उनका मंद है, उपद्रुताः इसकी निंदा, उसकी चुगली करने के उपद्रवी स्वभाव के हैं । कलियुग के दोषों से भरे हुए मनुष्य की पहचान कराते हैं भगवान और सत्शास्त्र ।

मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ।

वे मंदमति है, मंदभागी हैं और उपद्रवी हैं । खुद तो उपद्रवी हैं और दूसरों को भी ऐसे-वैसे साजिश करके, अफवाह फैलाकर उपद्रवों की आग में झोंकते हैं ।

जब महापुरुष हयात होते हैं तो बोलते हैं- उल्टा मार्ग दसेंदा नानक । नानकजी के विरुद्ध बगावत करते हैं । नानक जी जैसे महान संत को कारागार में डालने वाले ऐसे अभागे लोग पीछे नहीं हटा करते । उसमें भी अपने को बड़ा आदमी साबित करते हैं कि देखो, इनके गुरु बड़े कि मैं बड़ा हूँ । नानक जी को कारागार में डाल दिया बाबर ने, ऐसी बेकदरी की लोगों ने नानकजी की । तो ये मंदमति हैं । जिनकी मति मारी गयी है वे संतों की हयाती में संतों का फायदा नहीं ले पाते हैं अपितु संतों में दोषदर्शन करते हैं ।

हयात गुरु जब समाज में होते हैं तो लोग अवज्ञा करते हैं, उनके लिए कुछ-की-कुछ अफवाहें करते हैं, निंदा आदि करते हैं, जिससे हयात गुरु से लोग वंचित हो जाते हैं, कम फायदा उठा पाते हैं । भगवान के मंदिर में जाते हैं, मूर्ति के आगे माथा टेकते हैं तो मूर्ति न कुछ बोलती है, न टोकती है, न डाँटती है । अपनी तरफ से श्रद्धा होने से थोड़ा पुण्य होता है । इसलिए संत कबीरदास जी ने यह पर्दा उठाया समाज की आँखों से बोलेः

तीरथ नहाये एक फल.... तीर्थ में नहाते हो एक फल होता है । संत मिले फल चार – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लेकिन उन संत में अगर श्रद्धा-भक्ति हो और वे तुम्हारे सद्गुरु हैं तो उनके साथ अपनत्व होगा । गुरु के साथ शिष्य का अपनत्व होता है तो गुरु का भी शिष्य के साथ अपनत्व होता है – जैसे माँ का बच्चों के साथ अपनत्व होता है तो माँ सार-सार बच्चे को पिला देती है । गाय का बछड़े के साथ अपनत्व होता है तो गाय सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, धक्का-मुक्की खुद सहती है, दिन भर भटकती है लेकिन दूध बनता है तो बछड़े को तैयार मिल ऐसा मिलता है कि बस सकुर-सकुर पी ले । बछड़े को तो मुँह हिलाना पड़ता है लेकिन सद्गुरुरूपी माँ ने जन्म-जन्म से जो कमाई की, अब भी घंटों भर ध्यान-समाधि और रब के साथ एकाकार होते हैं… तो गाय तो खड़ी होती है और बच्चे को सिर हिलाना पड़ता है दूध पीने के लिए लेकिन शिष्य रूपी बछड़े खड़े नहीं होते, प्रयत्न नहीं करते, बैठे रहते हैं और गुरुरूपी गाय ही अपने अनुभव का अमृत रब को छुआकर कानों के द्वारा हृदय में भर देती है ।

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

न अंतः इति अनन्तः । जिसका अंत न हो उसे बोलते हैं अनन्त । ये सारे फल अंतवाले हैं और दुःख देने वाले हैं । सत्शिष्य का जो फल है वह अनन्त फल है, जिसका अंत मौत भी नहीं कर सकती ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 17,20 अंक 199

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