अपना-पराया – पूज्य बापू जी

अपना-पराया – पूज्य बापू जी


साधक को जब मंत्र मिलता है न, तो वह मौन हो जाता है, जपते-जपते चुप हो जाता है । कैकेयी को भी मंत्र मिला था और वह चुप हो गयी थी, उसको मौन रुच रहा था । उसको मंत्र किसने दिया था ? वसिष्ठ महाराज ने दिया था कि अन्य किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ने दिया था ? नहीं । राजसी और तामसी मति से भरपूर मंथरा ने दिया था ।  मंत्र तो क्या कुमंत्र दिया था । रामराज्य की बात सुनकर मंथरा ने कैकेयी से मुलाकात की । कैकेयी बड़ी खुश थी कि ‘मेरा ज्येष्ठ पुत्र राजा हो रहा है ।’ कैकेयी और राम जी की आपस में खूब बनती थी ।

कैकेयी ने मंथरा को कहा कि “ले यह हार, कल मेरे सपूत श्रीराम का राज्याभिषेक होगा ।”

“क्या कहा, तेरा सपूत….?”

“हाँ, राम मेरा सपूत है न !”

“यह तो ठीक है लेकिन अपना अपना होता है, पराया पराया होता है ।”

मंथरा ने कैकेयी को कुमंत्र दे दिया । जो राग-द्वेष पैदा कर दे वह ‘मंत्र’ नहीं ‘कुमंत्र’ है और जो राग-द्वेष मिटाकर तत्त्वज्ञान की तरफ ले जाय वह सुमंत्र है । मंथरा ने कैकेयी को ऐसा कुमंत्र दिया कि धीरे-धीरे उसकी बुद्धि बदली और उसने महाराज दशरथ को इस बात के लिए मजबूर किया कि ‘राम तो जाय वनवास और भरत राजसिंहासन पर बैठे ।’ यह हुआ उस कुमंत्र से और सुमित्रा ने अपने बेटे लक्ष्मण को मंत्र दिया कि ‘तुम राम जी की सेवा में जाओ और राम जी के नाते सबसे व्यवहार करना । जैसे पतिव्रता स्त्री पति के नाते सास, ससुर, देवर, जेठ तथा पति के मेहमानों की भी सेवा कर देती है, ऐसे ही तुम भी राम जी के नाते सबसे व्यवहार करना और अनेक में एक देखना, अपने पराये का भेद मत करना ।’ उसने यह सात्त्विक मंत्र दिया तथा मंथरा ने कुमंत्र दियाः ‘यह अपना, यह पराया….।’

वास्तव में देखें तो अपना कौन है ? अपनी देह भी अपने कहने में नहीं चलती, अपना मन भी अपने कहने में नहीं चलता, अपना बेटा भी अपने कहने में नहीं चलता, आजकल अपने दोस्त भी अपनों से धोखा कर लेते हैं । अपने वाले कब, कितना काम आयेंगे कोई पता नहीं । और कई बार अपने ही पराये बन  जाते हैं और पराये अपने बन जाते हैं । तत्त्वज्ञान तो यह है कि अपना तो एक आत्मा-परमात्मा है जो मौत के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता । वही अपना है बाकी सब सपना है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 13 अंक 199

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