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इसे समुद्र में फिंकवा दीजिये


(सुभाषचन्द्र बोस जयन्तीः 23 जनवरी 2019)

नेता जी सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये थे । वहाँ के निवास-कक्ष हेतु उन्होंने अपने सचिव हसन को टेबल लैम्प लाने को कहा । उसने बाजार से मँगवाकर नेता जी को मेज पर रख दिया ।

नेता जी जब अपने कक्ष में आये तो लैम्प देखकर उनके माथे पर सिलवटें उभर आयीं । नेता जी ने हसन से पूछाः “क्या आपने पूरे लैम्प को अच्छी तरह से देखा है ?”

“जी ।”

“तो आपको इसमें कोई खराबी नहीं दिखाई दी ?”

“जी नहीं ।”

“एक बार फिर से इसको देखिये ।”

सचिव ने बार-बार उसको देखा और सोचने लगा कि ‘इसमें क्या बुराई हो सकती है !’ उसने उसे पुनः जलाकर देखा तो वह जल रहा था । उसने भली प्रकार निरीक्षण किया परंतु उसे कहीं कुछ ऐसा दिखाई नहीं दिया जिसे खराबी कहा जा सकॆ ।

नेता जीः “कुछ दिखा ?”

“मुझे तो इसमें ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया ।”

“उसके स्टैंड के निचले भाग में एक अश्लील चित्र बना हुआ है, उस पर आपकी दृष्टि कयों नहीं गयी ?”

हसन को तुरंत अपनी भूल का एहसास हुआ ।

नेता जीः “मुझे मेरी मेज पर ऐसा स्टैंड नहीं चाहिए । इसे समुद्र में फिंकवा दीजिये ।”

तुरंत ही उस स्टैंड को वहाँ से हटा दिया गया ।

इतने सावधान, सतर्क और संयमी थे नेताजी, तभी तो आजाद हिन्द फौज बना सके और भारत को आजाद कराने में अहम भूमिका निभा सके । आजकल के युवक-युवतियाँ मोबाइल में कैसे-कैसे चित्र देखकर बरबादी की तरफ जा रहे हैं, अपनी हानि कर रहे हैं बेचारे !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 20 अंक 313

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गुरु की परम प्रसन्नता कौन पाता है ?


शंकर नाम का एक बालक गुरु-आश्रम में रहकर अध्ययन करता था । उसकी कुशाग्र बुद्धि, ओजस्वी प्रतिभा एवं नियम-पालन में निष्ठा से उसके गुरु और अन्य साथी उस पर अत्यंत प्रसन्न थे । आश्रम का नियम था कि एक शिष्य दिन में एक ही घर से भिक्षा प्राप्त करेगा । एक दिन शंकर भिक्षा माँगने निकला । एक घर के सामने जाकर कहाः “भिक्षां देहि ।” वह किसी निर्धन बुढ़िया का घर था । उसके पास मात्र मुट्ठी भर चावल थे । उसने वे भिक्षा में दे दिये । शंकर को उसकी दरिद्रता ध्यान में आयी । वह पड़ोस में एक सेठ के घर गया । सेठानी  विभिन्न व्यञ्जनों से सज्जित एक बड़ा सा थाल लायी । शंकर ने कहाः “मैया ! यह भिक्षा पड़ोस में रहने वाली गरीब वृद्धा को दे आइये ।”

सेठानी ने वैसा ही किया ।

शंकरः “करूणाशाली माँ ! ईश्वर ने आपको खूब धन सम्पदा दी है । ईश्वर करे वह चिरकाल तक बनी रहे व सुखदायी भी हो । पुरुषार्थ और पुण्यों की वृद्धि से लक्ष्मी आती है, दान, पुण्य और कौशल से बढ़ती है तथा संयम और सदाचार से स्थिर होती है । मुझे आपसे एक और भिक्षा चाहिए । वे वयोवृद्ध माता जी जब तक जीवित रहें तब तक यथासम्भव आप उनका भरण-पोषण करेंगी तो मैं समझूँगा आपने रोज मुझे भिक्षा दी । क्या आप यह भिक्षा मुझे देगी ?”

सेठानी ने सहर्ष स्वीकृति दी । शंकल चावल लेकर आश्रम पहुँचा और अपने गुरु से कहाः “गुरुदेव ! आज मैंने नियम-भंग किया है । मैं भिक्षा के लिए एक नहीं, दो घरों में गया । मुझसे अपराध हुआ है, कृप्या मुझे दंड दें ।”

गुरुदेव बोलेः “शंकर ! मुझे सब ज्ञात हो गया है । उस असहाय वृद्धा को मददरूप बनकर तुमने गलत नहीं बल्कि पुण्यकार्य किया है । वत्स ! इसे नियम भंग नहीं माना जायेगा । तुमने आश्रम का गौरव ही बढ़ाया है । तुम धन्य हो ! मेरा आशीष है कि तुम ऊँचे-से-ऊँचे पद – आत्मपद को उपलब्ध होकर विश्वव्यापी सुयश प्राप्त करोगे ।”

इसी बालक शंकर ने आगे चलकर अपने गुरुदेव का पूर्ण संतोष पा के आत्मपद की प्राप्ति की एवं श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी के नाम से विश्वविख्यात हुए ।

कनिष्ठ शिष्य गुरु की आज्ञाओं का स्थूल अर्थ में पालन करके लाभान्वित होता है । मध्यम शिष्य आज्ञाओं का स्थूल अर्थ में पालन करता ही है, साथ ही गुरु के संकेतों को भी समझने के लिए तत्पर रहता है । उत्तम शिष्य आज्ञा-पालन करने व संकेत समझने के साथ अपनी मति को सूक्ष्मतम बना के गुरु के सिद्धान्त को आत्मसात् कर उसके अनुरूप सेवा खोज लेता है । सिद्धान्त का पालन करते-करते एक ऐसी स्थिति आती है जब वह और  सिद्धान्त दो नहीं रह जाते, वह साक्षात् सिद्धान्तमूर्ति हो जाता है । फिर ऐसे सौभाग्यशाली शिष्य को ‘मैंने सिद्धान्त का पालन किया’ – ऐसा भान या अभिमान भी नहीं होता, वह विनम्रता की प्रतिमूर्ति हो जाता है । ऐसा शिष्य गुरु की परम प्रसन्नता प्राप्त कर पूर्ण गुरुकृपा का अधिकारी हो जाता है । धन्य है ऐसे सत्शिष्य !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 313

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माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला-संत विनोबा भावे जी


साहित्य देवता के लिए मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है । बचपन में करीब 10 साल तक मेरा जीवन एक छोटे से देहात में ही बीता । जब मैं कोंकण के देहात में था, तब पिता जी कुछ अध्ययन और काम के लिए बड़ौदा रहते थे । दीवाली के दिनो में वे अकसर घर पर आया करते थे । एक बार माँ ने कहाः “आज तेरे पिता जी आने वाले हैं, तेरे लिए मेवा-मिठाई लायेंगे ।” पिता जी आये । फौरन मैं उनके पास पहुँचा और उन्होंने अपना मेवा मेरे हाथ में थमा दिया । मेवे को हम कुछ गोल-गोल लड्डू ही समझते थे ।

लेकिन यह मेवे का पैकेट गोल न होकर चिपटा सा था । मुझे लगा कि ‘कोई खास तरह की मिठाई होगी ।’ खोलकर देखा तो दो किताबें थीं । उन्हें लेकर मैं माँ के पास पहुँचा और उनके सामने धर दिया ।

माँ बोलीः “बेटा ! तेरे पिता जी ने तुझे आज जो मिठाई दी है, उससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।” वे किताबें रामायण और भागवत के कथा प्रसंगों की थीं, यह मुझे याद है । आज तक वे किताबें मैंने कई बार पढ़ीं । माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला कि ‘इससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।’ इस वाक्य ने मुझे इतना पकड़ रखा है कि आज भी कोई मिठाई मुझे इतनी मीठी मालूम नहीं होती, जितनी कोई सुंदर विचार की पुस्तक मीठी मालूम होती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 17, अंक 313

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