असम्भव-से कार्य भी हो जाते हैं सम्भव, कैसे ?

असम्भव-से कार्य भी हो जाते हैं सम्भव, कैसे ?


सन् 1809 में फ्रांस में एक बालक का जन्म हुआ, नाम रखा गया लुई । एक दिन खेल-खेल में उसकी आँख में चोट लग गयी और एक आँख की रोशनी चली गयी । कुछ दिनों के बाद उसकी दूसरी आँख भी खराब हो गयी । उसका दाखिला दृष्टिहीनों के विद्यालय में करा दिया गया । वहाँ उसे कागज पर उभरे हुए कुछ अक्षरों की सहायता से पढ़ना सिखाया गया । लुई ब्रेल को इसमें अधिक समय लगा और काफी असुविधा हुई । अतः उसने निर्णय लिया कि वह एक ऐसी नयी लिपि का आविष्कार करेगा जिसके द्वारा कम परिश्रम और कम समय में हर दृष्टिहीन व्यक्ति अच्छी प्रकार से साक्षर हो सके ।

समय बीतता गया । वह कभी-कभी प्रयास करता लेकिन विफल हो जाता । वह सोचता कि ‘जीवन बहुत लम्बा है । आज नहीं तो कल मैं सफल हो जाऊँगा ।’ एक रात उसे स्वप्न दिखाई दिया कि उसकी मृत्यु हो गयी है और लोग उसे दफनाने के लिए ले जा रहे हैं । अचानक उसकी आँख खुल गयी । उसका चिंतन तुरंत सक्रिय हो गया । उसे इस बात का बहुत दुःख हुआ कि इतना समय व्यर्थ में ही चला गया । यदि इस अवधि में वह पूरी लगन से, गम्भीतापूर्वक प्रयास करता तो अब तक कोई नयी लिपि विकसित करने में सफल हो सकता था ।

उसने संकल्प किया कि ‘अब तक मैंने समय की नालियों में बहने वाले पानी की तरह व्यर्थ जाने दिया है लेकिन अब मैं एक-एक क्षण का सदुपयोग करूँगा ।’ और इसे मन ही मन दोहराकर उसने एक महीने की अवधि निश्चित की और तत्परतापूर्वक अपने कार्य में जुट गया ।

जो समय का सम्मान करता है, समय उसी को सम्मानित बना देता है । एक माह की अवधि में उसने ऐसी लिपि का विकास कर दिया जिसके द्वारा आज असंख्य नेत्रहीन लोग शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं । बाद में ब्रेल ने उस लिपि को और भी उन्नत किया । आज वह लिपि ‘ब्रेल लिपि’ के नाम से विश्वप्रसिद्ध है ।

एकाग्रता, लगन, समय का सदुपयोग और देहाध्यास भूलकर व्यापक जनहित के लिए सत्प्रयास – ये ऐसे सदगुण हैं जो ईश्वरीय सहायता को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और जहाँ ईश्वरीय सहायता उपलब्ध हो जाती है वहाँ देश-काल-परिस्थिति की सुविधा असुविधा तथा शरीर, मन, बुद्धि की योग्यताओं की सीमाएँ लाँघकर असम्भव लगने वाले कार्य भी सम्भव हुए दिख पड़ते हैं । लुई ब्रेल को निष्काम सेवाभाव के साथ यदि किन्हीं वेदांतनिष्ठ सद्गुरु के द्वारा उस अनंत शक्ति-भण्डार परमात्मा के स्वरूप का कुछ पता भी मिल जाता तो शायद यह अंध लोगों के क्षेत्र में मात्र एक सामाजिक कार्यकर्ता न रहता अपितु संत  सूरदास जी की तरह अपना ज्ञान नेत्र खोलकर दूसरों के लिए भी आध्यामिक प्रकाशस्तम्भ बन सकता था ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 18 अंक 314

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