एक धनी सेठ के सात बेटे थे । छः का विवाह हो चुका था । सातवीं बहू आयी, वह सत्संगी माँ-बाप की बेटी थी । बचपन से ही सत्संग में जाने से सत्संग के सुसंस्कार उसमें गहरे उतरे हुए थे । छोटी बहू ने देखा कि घर का सारा काम तो नौकर-चाकर करते हैं, जेठानियाँ केवल खाना बनाती हैं उसमें भी खटपट होती रहती है । बहू को सुसंस्कार मिले थे कि अपना काम स्वयं करना चाहिए और प्रेम से मिलजुलकर रहना चाहिए । अपना काम स्वयं करने से, स्वास्थ्य बढ़िया रहता है ।
उसने
युक्ति खोज निकाली और सुबह जल्दी स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर पहले ही रसोई में
जा बैठी । जेठानियों ने टोका लेकिन फिर भी उसने बड़े प्रेम से रसोई बनायी और सबको
प्रेम से भोजन कराया । सभी बड़े तृप्त व प्रसन्न हुए ।
दिन
में सास छोटी बहू के पास जाकर बोलीः “बहू ! तू सबसे छोटी है, तू
रसोई क्यों बनाती है ? तेरी छः जेठानियाँ हैं ।”
बहूः
“माँजी ! कोई भूखा अतिथि घर आ
जाय तो उसको आप भोजन कराते हो ?”
“बहू ! शास्त्रों में लिखा है कि अतिथि भगवान का स्वरूप होता है । भोजन पाकर वह तृप्त होता है तो भोजन कराने वाले को बड़ा पुण्य मिलता है ।”
“माँजी ! अतिथि को भोजन कराने
से पुण्य मिलता है तो क्या घरवालों को भोजन कराने से पाप होता है ? अतिथि में भगवान का
स्वरूप है तो घर के सभी लोग भी तो भगवान का स्वरूप हैं क्योंकि भगवान का निवास तो
जीवमात्र में है । और माँजी ! अन्न आपका, बर्तन
आपके, सब चीजें आपकी हैं, मैं जरा सी मेहनत करके सबमें भगवद्भाव रखके रसोई बनाकर
खिलाने की थोड़ी सी सेवा कर लूँ तो मुझे पुण्य होगा कि नहीं होगा ? सब प्रेम से भोजन
करके तृप्त होंगे, प्रसन्न होंगे तो कितना लाभ होगा ! इसलिए माँजी ! आप रसोई मुझे बनाने
दो । कुछ मेहनत करूँगी तो स्वास्थ्य भी बढ़िया रहेगा ।”
सास
ने सोचा कि ‘बहू बात तो ठीक कहती है । हम इसको सबसे छोटी समझते हैं पर
इसकी बुद्धि सबसे अच्छी है ।’
दूसरे
दिन सास सुबह जल्दी स्नान करके रसोई बनाने बैठ गयी । बहुओं ने देखा तो बोलीं- “माँजी ! आप परिश्रम क्यों
करती हो ?”
सास
बोलीः “तुम्हारी उम्र से मेरी उम्र ज्यादा है । मैं जल्दी मर
जाऊँगी । मैं अभी पुण्य नहीं करूँगी तो फिर कब करूँगी ?”
बहुएँ
बोलीं- “माँजी ! इसमें पुण्य क्या है ? यह तो घर का काम है ।”
सास बोलीः “घर का काम करने से पाप होता है क्या ? जब भूखे व्यक्तियों को, साधुओं को भोजन कराने से पुण्य होता है तो क्या घरवालों को भोजन कराने से पाप होता है ? सभी में ईश्वर का वास है ।”
सास
की बातें सुनकर सब बहुओं को लगा कि ‘इस बात का तो हमने कभी
ख्याल ही नहीं किया । यह युक्ति बहुत बढ़िया है !’ अब जो बहू पहले जग
जाय वही रसोई बनाने बैठ जाय । पहले जो भाव था कि ‘तू रसोई बना…’ तो छः बारी बँधी थी
लेकिन अब मैं बनाऊँ, मैं बनाऊँ….’ यह भाव हुआ तो आठ
बारी बँध गयीं । दो और बढ़ गये सास और छोटी बहू । काम करने में ‘तू कर, तू कर…..’ इससे काम बढ़ जाता है
और आदमी कम हो जाते हैं पर ‘मैं करूँ, मैं
करूँ….’ इससे काम हलका हो जाता है और आदमी बढ़ जाते हैं ।
छोटी
बहू उत्साही थी, सोचा कि ‘अब तो रोटी बनाने में
चौथे दिन बारी आती है, और क्या किया जाय ?’ घर में गेहूँ पीसने
की चक्की पड़ी थी, उसने उससे गेहूँ पीसने शुरु कर दिये । मशीन की चक्की का आटा
गरम-गरम बोरी में भर देने से जल जाता है, उसकी रोटी स्वादिष्ट नहीं लेकिन हाथ से
पीसा गया आटा ठंडा और अधिक पौष्टिक होता है तथा उसकी रोटी भी स्वादिष्ट होती है ।
छोटी बहू ने गेहूँ पीसकर उसकी रोटी बनायी तो सब कहने लगे कि ‘आज तो रोटी का जायका
बड़ा विलक्षण है !’
सास
बोलीः “बहू ! तू क्यों गेहूँ पीसती
है ? अपने पास पैसों की कमी नहीं है ।”
“माँजी ! हाथ से गेहूँ पीसने
से व्यायाम हो जाता है और बीमारी नहीं आती । दूसरा, रसोई बनाने से भी ज्यादा पुण्य
गेहूँ पीसने का है ।”
सास
और जेठानियों ने जब सुना तो लगा कि बहू ठीक कहती है । उन्होंने अपने-अपने पतियों
से कहाः ‘घर में चक्की ले आओ, हम सब गेहूँ पीसेंगी ।’ रोजाना सभी जेठानियाँ
चक्की में दो ढाई सेर गेहूँ पीसने लगीं ।
अब
छोटी बहू ने देखा कि घर में जूठे बर्तन माँजने के लिए नौकरानी आती है । अपने जूठे
बर्तन हमें स्वयं साफ करने चाहिए क्योंकि सब में ईश्वर है तो कोई हमारा जूठा क्यों
साफ करे !
अगले
दिन उसने सब बर्तन माँज दिये । सास बोलीः “बहू ! विचार तो कर, बर्तन
माँजने से तेरा गहना घिस जायेगा, कपड़े खराब हो जायेंगे….।”
“माँजी ! काम जितना छोटा, उतना ही उसका माहात्म्य ज्यादा । पांडवों के यज्ञ में भगवान श्रीकृष्ण जूठी पत्तलें उठाने का काम किया था ।”
दूसरे
दिन सास बर्तन माँजने बैठ गयी । उसको देखके सब बहुओं ने बर्तन माँजने शुरु कर दिये
।
घर
में झाड़ू लगाने नौकर आता था । अब छोटी बहू ने सुबह जल्दी उठकर झाड़ू लगा दी । सास ने पूछाः “बहू ! झाड़ू तूने लगायी है ?”
“माँजी ! आप मत पूछिये । आपको
बोलती हूँ तो मेरे हाथ से काम चला जाता है ।”
“झाड़ू लगाने का काम तो नौकर का है, तू क्यों लगाती है ?”
“माँजी ! ‘रामायण में आता है कि वन में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि रहते थे लेकिन भगवान उनकी कुटिया मे न जाकर पहले शबरी की कुटिया में गये । क्योंकि शबरी रोज रात में झाड़ू लगाती थी, पम्पासर का रास्ता साफ करती थी कि कहीं आते-जाते ऋषि मुनियों के पैरों में कंकड़ न चुभ जायें ।”
सास
ने देखा कि यह छोटी बहू तो सबको लूट लेगी क्योंकि यह सबका पुण्य अकेले ही ले लेती
है । अब सास और सब बहुओं ने मिलके झाड़ू लगानी शुर कर दी ।
जिस घर में आपस में प्रेम होता है वहाँ लक्ष्मी बढ़ती है और जहाँ कलह होता है वहाँ निर्धनता आती है । सेठ का तो धन दिनों-दिन बढ़ने लगा । उसने घर की सब स्त्रियों के लिए गहने और कपड़े बनवा दिये । अब छोटी बहू ससुर से मिले गहने लेकर बड़ी जेठानी के पास गयी और बोलीः “आपके बच्चे हैं, उनका विवाह करोगी तो गहने बनवाने पड़ेंगे । मेरे तो अभी कोई बच्चा नहीं । इसलिए इन गहनों को आप रख लीजिये ।”
गहने
जेठानी को देकर बहू ने कुछ पैसे और कपड़े नौकरों में बाँट दिये । सास ने देखा तो
बोलीः “बहू ! यह तुम क्या करती हो ? तेरे ससुर ने सबको
गहने बनवाकर दिये हैं और तूने वे जेठानी को दे दिये और पैसे, कपड़े नौकरों में
बाँट दिये !”
“माँजी ! मैं अकेले इतना संग्रह करके क्या करूँगी ? अपनी वस्तु किसी जरूरतमंद के काम आये तो आत्मिक संतोष मिलता है और दान करने का तो अमिट पुण्य होता ही है !”
सास को बहू की बात लग गयी । वह सेठ के पास जाकर बोलीः “मैं नौकरों मे धोती-साड़ी बाँटूँगी और आस-पास में जो गरीब परिवार रहते हैं उनके बच्चों की फीस मैं स्वयं भरूँगी । अपने पास कितना धन है, किसी के काम आये तो अच्छा है । न जाने कब मौत आ जाय और सब यहीं पड़ा रह जाय ! जितना अपने हाथ से पुण्यकर्म हो जाय अच्छा है ।”
सेठ
बहुत प्रसन्न हुआ कि पहले नौकरों को कुछ देते थे तो लड़ पड़ती थीं पर अब कहती हैं
कि ‘मैं खुद दूँगी ।’ सास दूसरों को
वस्तुएँ देने लगी तो यह देखके दूसरी बहुएँ भी देने लगीं । नौकर भी खुश होके मन
लगाके काम करने लगे और आस-पड़ोस में खुशहाली छा गयी ।
‘गीता’ में आता हैः
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणँ कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।
‘श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा
ही करते हैं । वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते
हैं ।’
छोटी
बहू ने जो आचरण किया उससे उसके घर का तो सुधार हुआ ही, साथ ही पड़ोस पर भी अच्छा
असर पड़ा, उसके घर भी सुधर गये । देने के भाव से आपस में प्रेम-भाईचारा बढ़ गया ।
इस तरह बहू को सत्संग से मिली सूझबूझ ने उसके घर के साथ अनेक घरों को खुशहाल कर
दिया !
स्रोतः
ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 22-24 अंक 201
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