ईश्वर प्राप्ति सरल कैसे ?

ईश्वर प्राप्ति सरल कैसे ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

ईश्वरप्राप्ति का गणित बहुत सरल है। लोगों ने विषय-विकारों को महत्त्व देके, किसी ने कल्पना और व्याख्या कर-करके ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को कोई बड़ा लम्बा-चौड़ा कठिन मार्ग मान लिया। कोई बड़ा लम्बा चौड़ा कठिन मार्ग मान लिया। ईश्वर प्राप्ति से सुगम कुछ है ही नहीं। मैं तो यह बात मानने को तैयार हूँ कि रोटी बनाना कठिन है लेकिन ईश्वर प्राप्ति कठिन नहीं है। अगर आटा गूँथना नहीं आये तो आटे में गाँठ-गाँठ हो जाती है। रोटी सेंकनी न आये तो हाथ जल जाता है। परमात्मा प्राप्ति में तो न हाथ जलने का डर है, न आटा खराब होने का डर है वह तो सहज है।

संसार की प्राप्ति में तो अपना पुरुषार्थ चाहिए, अपना प्रारब्ध चाहिए, वातावरण चाहिए तब संसार की चीजें मिलती हैं और मिल मिलकर चली जाती हैं। भगवान की प्राप्ति में न तो केवल तीव्र इच्छा हो जाये बस, फिर तो भगवान अपने आप अंदर कृपा करते हैं – यह अनुभव वसिष्ठजी महाराज का है।

‘श्री योगवसिष्ठजी महारामायण’ में आता है कि ‘हे राम जी ! फूल पत्ता और टहनी मसलने में परिश्रम है, अपने आत्मा परमात्मा को पाने में क्या परिश्रम है !’

उपदेशमात्र से मान तो लेते हैं कि परमात्म प्राप्ति ही सार है, सुनते सुनते विचार करते करते, जगत के थप्पड़ खाते खाते लगता है कि तत्त्वज्ञान के बिना, परमात्मज्ञान के बिना जीवन व्यर्थ है किंतु उसमें टिक नहीं पाते क्योंकि टिकने की सात्त्विक बुद्धि, दृढ़ निश्चय, सजगता और तड़प नहीं है। आहार-विहार पवित्र हो, बुद्धि सात्त्विक हो, सजगता हो तथा परमात्म प्राप्त महापुरुषों में और उनके वचनों में महत्त्वबुद्धि हो, परमात्माप्राप्ति की तीव्र तड़प हो तो टिकना कोई कठिन नहीं है। शाश्वत में महत्त्वबुद्धि के अभाव से ही सहज, सुलभ परमात्मा दुर्लभ हो रहा है। नश्वर में महत्त्वबुद्धि होने का फल यह दुर्भाग्य है कि सब कुछ करते कराते भी दुःख, शोक, जन्म-मरण की यातनाएँ मिटती नहीं।

सुबह नींद में से उठते ही थोड़ी देर चुप बैठी और विचारों की ‘वह कौन है जो आँखों को देखने की, मन को सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की सत्ता देता है ?’ उसी में शांत हो जाओ, परमात्माप्राप्ति के नजदीक आ जाओगे। दुःख आये उससे जुड़ो नहीं, सुख आये उससे मिलो नहीं। सुख को बाँटो और दुःख में सम रहो तो उनका जो साक्षी है उस परमात्मा में टिकने लगोगे। वह इतना निकट है कि

सो साहब सद सदा हजूरे।

अंधा जानत ताँको दूरे।।

ज्ञानचक्षु नहीं है और बाहर भागने की आदत है इसीलिए वह कठिन लग रहा है, नहीं तो ईश्वरप्राप्ति जैसा कोई सुगम कार्य नहीं है।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया।।

‘शरीर रूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।’

(गीताः 18.61)

जैसे गाड़ी में बैठने वालों को गाड़ी की गति प्राप्त होती है, जहाज में बैठने वाला जहाज की गति से भागता है, बस में बैठने वाला बस की गति से भागता है, कार में बैठने वाला कार की गति से भागता है ऐसे ही यह इन्द्रियों में बैठने वाला जीव इन्ही यंत्रों में उलझ गया है। जहाँ से बैठने की सत्ता आती है उसमें बैठो तो अभी ईश्वरप्राप्ति हो जाय, जैसे अर्जुन को भगवान की कृपा से बात समझ में आ गयी।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा। (गीताः 18.73)

अगर कठिन होता तो परीक्षित राजा को सात दिन में कैसे मिल जाता ! भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू की कृपा हम पर 40 दिन में कैसे बरसती और कैसे मिल जाता !

एक वर्ष तक ॐकार का जप करे, नीच कर्मों का त्याग करे और ईश्वरप्राप्ति का ऊँचा उद्देश्य बना ले तो साधारण से साधारण आदमी को भी ईश्वरप्राप्ति सहज में हो जाय। लेकिन हमारी रूचि है – यह हो जाय, वह हो जाय….। जो हो – होकर बदलता है वही करने की रुचि रखते हैं।

मान मिल जाय, बड़े हो जायें, बापू जी जैसे हो जायें ऐसा कुछ नहीं चाहिए। हर फूल अपनी जगह पर खिलता है, किसी को नकल नहीं करनी है और बाहर से बापू जी जैसा हो जाने से ईश्वरप्राप्ति हो जाती है इस वहम में नहीं पड़ना। जो जहाँ है ईश्वरप्राप्ति का अधिकारी है और सोचे कि ‘बाहर से बापू जी जैसा हो जाऊँ’, तो माइयों को दाढ़ी आयेगी नहीं, तो क्या ईश्वर नहीं मिलेगा ? जिनके सिर पर बाल नहीं हैं, क्या उनको ईश्वर नहीं मिलेगा ? बाहर से नकल नहीं करनी है, केवल उस मिले-मिलाये में प्रीति चाहिए।

भगवान से प्रीति करने की, भगवान को पान की महत्ता समझ में आ जाय तो मन पवित्र होने लगता है। जब तक भगवान को पाने की महत्ता का पता नहीं, तभी तक सारे दुःख विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाने में ही सार है – ऐसा नहीं जानते, तभी तक छल-कपट आदि सारे दुर्गुण विद्यमान रहते हैं। यदि वह सम में आ जाय तो सारे छल-कपट कम होते चले जायेंगे, सारी शिकायतें दूर होती चली जाएँगी। जिसको ईश्वरप्राप्ति की रूचि नहीं है उसको गलती बताओगे तो सफाई देगा, अपनी गलती नहीं मानेगा और ज्यों-ज्यों सफाई देगा त्यों-त्यों उसकी गलती गहरी उतरती जायेगी। उसको पता ही नहीं चलेगा कि मैं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूँ और उसका परमात्मप्राप्ति का मार्ग लम्बा होता चला जायेगा।

तो ईश्वरप्राप्ति में रूचि हो जाये। और यह रुचि कैसे हो ? बार-बार सत्संग का आश्रय लो, ईश्वर कान नाम लो, उसका गुणगान करो, उसको प्रीति करो। और कभी फिसल जाओ तो आर्तभाव से पुकारो। वे परमात्मा-अंतरात्मा सहाय करते हैं, सहाय करते हैं, बिल्कुल करते हैं।  ॐ नारायण… ॐ गोविंद…. ॐ अच्युत….. ॐ केशव…. ॐ परमेश्वर…. ॐ सर्वसुहृदाय नमः…. ॐ अंतर्यामी…. ॐ सर्वज्ञ…. ॐ दयानिधे नमः…… ॐॐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 19, अंक 208

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