Rules of Distribution of Grains

Rules of Distribution of Grains


 

अन्न आदि के वितरण का नियम 

जब निमंत्रित ब्राम्हण भोजन से तृप्त हो जाये तो भूमि पर थोडा-सा अन्न डाल देना चाहिए | आचमन के लिए उन्हें एक-एक बार शुद्ध जल देना आवश्यक है | तदनंतर भलीभांति तृप्त हुए ब्राम्हणों से आज्ञा लेकर भूमि पर उपस्थित सभी प्रकार के अन्न से पिंडदान करने का विधान है | श्राद्ध के अंत में बलिवैस्वदेव का भी विधान है | श्राद्ध के आरंभ में व् अंत में निम्नालिखित मंत्र का तीन बार जप करे :

देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगीभ्य एव च |
नम: स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नम: ||       

पिण्डदान करते समय एकाग्रचित होकर इसका जप करना चाहिए | इससे पितर शीघ्र ही आ जाते है और राक्षस भाग खड़े होते है | तीनों लोकों के पितृ तृप्त होते है | यह मंत्र पितरों को तारनेवाले है |
श्राद्ध के अंत में दान देते समय हाथ में काले तिल, जौ और कुशा के साथ पानी लेकर ब्राम्हण को दान देना चाहिए ताकि उसका शुभ फल पितरों तक पहुँच सके नहीं तो असुर लोग हिस्सा ले जाते है | ब्राम्हण के हाथ में अक्षत (चावल) देकर यह मंत्र बुलवाया-बोला जाता है :

अक्षतं वास्तु में पुण्यं शान्ति पुष्टिधृतिश्च में |
यदिच्छेयस कर्मलोके तदस्तु सदा मम ||

‘मेरा पुण्य अक्षय हो, मुझे शांति, पुष्टि और घृति प्राप्त हो, लोक में जो कल्याणकारी वस्तुएँ  हे वे सदा मुझे मिलती रहे |’ उपरोक्त अर्थ की प्रार्थना भी की जा सकती है |

पितरों को श्राद्ध से ही बुलाया जा सकता है| केवल कर्मकाण्ड या वस्तुओं से काम नहीं होता है | श्राद्ध की विधि है श्रद्धा और शुद्ध मंत्रोच्चारण के साथ पितरों का नाम, उनके पिता का नाम , उनके कुल-गोत्र का नाम लेकर उनका आवाहन किया जाता है |

श्राद्धकाल में ब्राम्हणों को अन्न देने में यदि कोई समर्थ न हो तो ब्राम्हणों को वन्य  कंदमूल-फल, जंगली शाक एवं थोड़ी -सी दक्षिणा ही दे दे | यदि इतना करने में भी कोई समर्थ न हो तो किसी भी द्विजश्रेष्ट को प्रणाम करके एक मुट्ठी काले तिल दे दे अथवा पितरों के निमित्त पृथ्वी पर भक्ति एवं नम्रतापूर्वक सात-आठ तिलों से युक्त जलांजलि  दे दे | यदि इसका भी अभाव हो तो कही – न – कही से एक दिन का घास लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक पितरों के उद्देश से गौ को खिलाये एवं इन सभी वस्तुओ का अभाव होने पर वन में जाकर अपना कक्षमूल (बगल ) सूर्य को दिखाता हुआ उच्च स्वर से यह कहे :

न में रिस्त वित्तं न धनं न धान्य- च्छ्धस्य योग्यं स्वपितृन्नातोस्मी |
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतो भुजो ततों वत्मर्नी मारुतस्य ||

‘मेरे पास श्राद्धकर्म के योग्य न धन-संपति है और न कोई अन्य सामग्री | अत: मै अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ | वे मेरी भक्ति से ही तृप्तिलाभ करे | मैंने अपनी दोनों बांहे आकाश में उठा राखी है |  (वराह पुराण : १३.५८ )

पितरों के कल्याणार्थ इन श्राद्ध के दिनों में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए | पितरों को जो श्रद्धामय प्रसाद मिलता है उससे वे तृत्प होते है और अपने कुटुम्बियों को मदद भी करते है |

ऊँचे में ऊँचा, सबसे बढ़िया श्राद्ध इन श्राद्धपक्ष की तिथियों में होता है | हमारे पूर्वज जिस तिथि में इस संसार से गए है उसी तिथि के दिन इस श्राद्ध पक्ष में किया जानेवाला श्राद्ध सर्वश्रेष्ठ होता है |

हमारे जो सबंधी देव हो गये है, जिनको दूसरा शरीर नही मिला है वे पितृलोक में अथवा इधर-उधर विचरण करते है, उनके लिए पिण्डदान किया जाता है | बच्चों एवं संन्यासियों के लिए पिण्डदान नही किया जाता | पिण्डदान उन्ही का होता है जिनको ‘मै – मेरे’ की आसक्ति है | बच्चों की ‘मै-मेरे’ की  स्मृति और आसक्ति विकसित नहीं होते और संन्यास ले लेने पर संन्यासी को शरीर को ‘मै’ मानने की स्मृति हटा देनी होती है | शरीर में उनकी आसक्ति नहीं होती इसलिए उनके लिए पिण्डदान नहीं किया जाता |

श्राद्ध में बाह्य रूप से जो चावल का पिण्ड बनाया जाता है केवल उतना बाह्य कर्मकाण्ड ही नहीं है वरन पिण्डदान के पीछे तात्विक ज्ञान भी छुपा है | जो शरीर में नहीं रहे है, पिण्ड में है,उनका नौ तत्वों का पिण्ड रहता है “चार अन्त:करण और पाँच ज्ञानेद्रियाँ | उनका स्थूल पिण्ड नहीं रहता है वरन वायुमय पिण्ड रहता है | वे अपनी आकृति दिखा सकते है किन्तु आप उन्हें छू नहीं सकते | दूर से ही वे आपकी दी हुई चीज को भावनात्मक रूप से ग्रहण करते है  | दूर से ही वे आपको प्रेरणा आदि देते है अथवा कोई-कोई स्वप्न में भी मार्गदर्शन देते है |

अगर पितरों के लिए किया गया पिण्डदान एवं श्राद्धकर्म व्यर्थ होता तो वे मृतक पिटर स्वप्न में यह नहीं कहते कि : ‘हम दु:खी है | हमारे लिए पिण्डदान करी ताकि हमारी पिण्ड कि आसक्ति छूटे और हमारी आगे कि यात्रा हो, हमें दूसरा शरीर, दूसरा पिण्ड मिल सके |’

श्राद्ध इसलिए किया जाता है कि पितर मंत्र एवं श्रद्धापूर्वक किये गये श्राद्ध की वस्तुओं से तृप्त होकर हमें भलाई करते है |

आप जिससे भी बात करते है उससे यदि आप प्रेम से, नम्रता से और उनके हित की बात करते है तो वह भी आपके साथ प्रेम से और आपके हित की ही बात करेगा | यदि आप सामनेवाले से काम करवाकर फिर उसकी एयर देखते तक नहीं तो वह भी आपकी और नहीं देखेगा या आपसे रुष्ट हो जायेगा | किसीके घर में ऐरे-गैरे या लूले-लंगड़े या माँ-बाप को दुःख देनेवाले बेटे पैदा होते ही तो उसका कारण भी यही बताया जाता है कि जिन्होंने पितरों को तृत्प नही किया, पितरों का पूजन नहीं किया, अपने माँ-बाप को तृप्त नहीं किया, उनके बच्चे भी उनको तृप्त करनेवाले नहीं होते |

अरविन्द घोष जब जेल में थे तब उन्होंने लिखा : “मुझे विवेकानंद कि आत्मा द्वारा प्रेरणा मिलती थी और मै १५ दिन तक महसूस करता था कि स्वामी विवेकानंद की आत्मा मुझे सूक्ष्म जगत की साधना का मार्गदर्शन देती है |”

जब उन्होंने परलोकगमनवालों की साधना की तब उन्होंने महसूस किया की रामकृष्ण का अंतवाहक शरीर (उनकी आत्मा) भी उन्हें सहयोग देता था |

श्रद्धा से किये हुए पिण्डदान आदि कर्ता को मदद करते है | श्राद्ध का एक विशेष फायदा यह ही कि ‘मरने के बाद भी जिव का अस्तित्त्व रहता है’ इस बात कि स्मृति बनी रहती है | दूसरा लाभ यह है कि इसमें अपनी संपत्ति का सामाजिकरण होता है | गरीब गुरबे, कुटुम्बियों आदि को भोजन मिलता है | दूसरे भोजन-समारोहों में रजो-तमोगुण होता है लेकिन श्राद्ध हेतु दिया गया भोजन धार्मिक भावना को बढाता है और परलोक सबंधी ज्ञान और भक्तिभाव को विकसित करता है |

भगवान श्रीराम ने भी अपने पिता दशरथ का श्राद्ध किया था और ब्रम्हज्ञानी महापुरुष एकनाथजी महाराज भी अपने पिता का श्राद्ध करते थे |

श्राद्धं काल में शरीर द्रव्य, स्री, भूमि, मन, मंत्र और ब्राम्हण ये सात चीजे विशेष शुद्ध होनी चाहिए | श्राद्ध में तिन  बातों को ध्यान में रखना चाहिए |शुद्धि, अक्रोध और अत्वरा (जल्दबाजी नहीं करना) |

श्राद्ध में कृषि और वाणिज्य का धन उत्तम, उपकार के बदले दिया गया धन मध्यम और व्याज, सूद एवं छल-कपट से कमाया गया धन अधम माना जाता है | उत्तम धन से देवता और पितरों की तृप्ति होती है, वे प्रसन्न होते है | मध्यम धन से मध्यम प्रसन्नता होती है और अधम धन से छोटी योनि (चांडाल योनि) में जो अपने पितर है उनको तृप्ति मिलती है | श्राद्ध में जो अन्न इधर-उधर छोड़ा जाता है उससे पशु योनि एवं इतर योनि में भटकते हुए हमारे कुल के लोगों को तृप्ति मिलती है |

श्राद्ध में मंत्र का बड़ा महत्व है | श्राद्ध में आपके द्वारा दी गई, वस्तु कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो, लेकिन आपके द्वारा यदि उच्चारण ठीक न हो तो काम अस्त-व्यस्त हो जाता है |मंत्रोच्चारण शुद्ध होना चाहिए और जिसके निमित्त श्राद्ध करते हो उसके नाम का उच्चारण शुद्ध करना चाहिए |

मान लो, हमारे पिता चल बसे है और हमें तिथि का पता नही है तो भूली हुई तिथिवालों का श्राद्ध अमावस्या के दिन करना चाहिए | हमारे अमावस्या पितरों का दोपहर का समय होता है | दोपहर को सभी को भूख लगती है | अपने सत्कर्मो से अपना अंत:करण पवित्र होता है और अपने संबंधियों की उन्नति होती है |

हिंदुओं में जब पत्नी संसार से जाती है तो पति को हाथ जोड़कर कहती है : “मेरे से कुछ अपराध हो गया हो तो क्षमा करना, मेरी सदगति के लिए आप प्रार्थना करना |” पति भी बदले में हाथ जोडते हुए कहता है : “जाने अनजाने तेरे साथ मैंने कभी कठोर व्यवहार किया हो तो तू भी मुझे क्षमा कर देना और मेरी सदगति के लिए प्रार्थना करना |”हम एक-दूसरे की सदगति के लिए जीते-जी भी सोचते है और मरते समय भी सोचते है, मरने के बाद भी सोचते है |

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