Monthly Archives: May 2001

ईश्वरप्राप्ति कठिन नहीं है


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता है किः

‘ईश्वर हमसे दूर नहीं है, उसमें और हम में भेद भी कुछ नहीं है तथा वह दुर्लभ भी नहीं है।’

ईश्वर को पाना कठिन नहीं है लेकिन उसका ज्ञान सुनने, विचारने को नहीं मिलता है, उसमें प्रीति नहीं होती है इसलिए उसे पाना कठिन लगता है। जैसे जिसको लिखने-पढ़ने का अभ्यास नहीं है उसे लिखना-पढ़ना कठिन लगता है ऐसे ही मन को ईश्वर विषयक अभ्यास नहीं है। जैसे, स्कूल के प्रारम्भ के दिनों में क….ख….ग… A….B….C….1….2…3… आदि लिखना कठिन लगता था लेकिन अब बड़ी सरलता से लिख लेते हो, ऐसी ही ईश्वर के विषय में है। अभ्यास की बलिहारी है।

दिले तस्वीरे है यार ! जबकि गरदन झुका ली और मुलाकात कर ली।

‘मेरे भाई ने थप्पड़ मार दी…..’ याद आया तो दुःख हो रहा है। अब दुःख किसको हो रहा है ? उसको देखो। दुःख होता है मन को, अपने मन के भी द्रष्टा हो जाओ तो दुःख गायब हो जायेगा। शरीर बीमार है, ऊँह…. ऊँह… करता है। उसको भी देखो तो हँसी आ जायेगी। एक बार इस शरीर को जहरीले मलेरिया और इन्जैक्शनों के रिएक्शन से भयंकर पीड़ा का एहसास हुआ था तो ‘ऊँह… ऊँह…. ऊँह…’ निकल जाता था। मैं अपने शरीर को पूछताः ‘ऊँह…ऊँह..ऊँह.. क्या करता है ?’ ….तो हँसी निकल जाती थी। मैं फिर मन से कहताः ‘तू ऊँह…ऊँह….ऊँह… कर। मैं देखता हूँ।” तो फिर वह ऊँह….ऊँह….ऊँह…. नहीं करता था। देखने वालों को बेचारों को बड़ी पीड़ा होती थी, छुप करके रोते थे कि…..’न जाने क्या हो गया है….’ लेकिन हमको ऐसा नहीं होता था। शरीर को तो पीड़ा होती थी लेकिन हम उसे देखते थे। ऐसे ही अभ्यास हो जाये तो गहरी नींद में भी उसको देखने वाला द्रष्टा अपने को शरीर से पृथक महसूस करता है। जैसे हम दूसरे व्यक्ति को देखते हैं ऐसे ही अपनी नींद में अपने को भी देख सकते हैं। सूक्ष्मता का अभ्यास बढ़ जाने से ऐसा हो जाता है।

ऐसे ही हम दुःख को भी देख सकते हैं और सुख को भी देख सकते हैं। देखने का अभ्यास हो तो यह आसान हो जाता है। जैसे नाटक में अभिनेता कहता हैः ‘मैं राजा विक्रमादित्य हूँ…. मेरे राज्य में ऐसा नहीं चल सकता…..’ लेकिन भीतर से जानता है कि वह कौन है। थोड़ी ही देर में भिखारी का वेश बदल कर दर्शकों को द्रवित कर देता है। थोड़ी देर पहले ही उसने राजाधिराज की भूमिका अदा की थी और अब भिखमंगे की भूमिका अदा कर रहा है  लेकिन भीतर से वह अच्छी तरह से जानता है कि वह केवल भूमिका अदा कर रहा है। ऐसे ही है जिसको शरीर से पृथक्त्व का अभ्यास हो जाता है वह सुख-दुःख से पार हो जाता है।

इसमें झूठा बेईमान-कपटी आदमी सफल नहीं होता है। वह जितना छल-कपट छोड़ेगा उतना ही आगे बढ़ेगा। जितनी बेईमानी छोड़ेगा उतना ही आगे बढ़ेगा। झूठ-कपट-बेईमानी-दगाबाजी होती भी है देह को ‘मैं’ मानकर एवं संसार को सत्य मानकर सुखी होने की बेवकूफी से। यदि आत्मा को ‘मैं’ माने एवं संसार को मिथ्या जाने तो कितना भी बेईमान इन्सान होगा उसकी बेईमानी व दुर्गुण घटते जायेंगे और वह महान बन जायेगा।

सत्संग की और भगवान को पाने की महत्ता समझ में आ जाये तो मन पवित्र होने लगता है। जब तक भगवान को पाने की महत्ता का पता नहीं, तभी तक सारे दुःख विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाने की महिमा नहीं जानते, ईश्वर ही सार है-ऐसा नहीं जानते, तभी तक छल-कपट आदि सारे दुर्गुण विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाना ही सार है-ऐसा समझ में आ जाये तो सारे छल-कपट कम होते चले जायेंगे। सारी शिकायतें दूर होती चली जायेंगी। फिर वह अपनी गलती की सफाई नहीं देगा वरन् उसे अपनी गलती खटकेगी एवं गलती को निकालने में तत्पर बनेगा। जिसको ईश्वरप्राप्ति की रूचि नहीं है उसकी गलती बताओगे तो सफाई देगा, अपनी गलती नहीं मानेगा और ज्यों-ज्यों सफाई देगा त्यों-त्यों उसकी गलती गहरी उतरती जायेगी। उसको पता ही नहीं चलेगा किः ‘मैं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूँ।’

जो गलती की सफाई देगा, चतुराई करेगा, कपट करेगा उसके जीवन में फिर सच्ची उन्नति नहीं हो सकेगी। जो औरों को धोखा देता है सको भी कोई न कोई बड़ा धोखा दे देता है। दगा किसी का सगा नहीं। झूठ-छल-कपट…. इसी से सारे दुष्कर्म उत्पन्न होते हैं और यह सब होता है शरीर एवं संसार को सत्य  मानने से। संसार को सत्य मानना, संसार की चर्चा करना, आत्मा-परमात्मा से प्रीति नहीं करना – यही सारे दुःखों का मूल है।

जो केवल परमात्मा को ही सत्य मानकर उसे पाने का यत्न करता है, उसके लिए ईश्वरप्राप्ति सरल है। जो भगवान की प्रीति, भगवान की प्रसन्नता एवं भगवदस्वरूप के ज्ञान के लिए ईमानदारी से सेवा करता है उसके लिए भगवदप्राप्ति सहज है। ऐसा साधक शीघ्र ही परमपद को पाकर समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। परमसुख स्वरूप अपने आत्मा-परमात्मा मे प्रीति और तृप्ति का अनुभव करता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 9-10, अंक 101

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ब्रह्मज्ञान की महिमा


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।

छिन्नद्वेधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।

‘जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो संपूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। (गीताः 5.25)

संसार स्वप्न जैसा है। जन्म से लेकर जीवनभर मजदूरी करो लेकिन कुछ हाथ नहीं लगता है, जैसे भूसी को छडने से कुछ हाथ नहीं लगता है। संसार की बातें करना भूसी छड़ना है। माया से पार होने की बातें करना धान छड़ना है और ब्रह्म-परमात्मा की बातें करना चावल छड़ना है। जो ब्रह्म-परमात्मा को पाये हुए हैं उनके लिए संसार एक खेलमात्र है।

तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय।

जैसे  ज्वर के जोर से भूख विदा हो जाय।।

जिनके पाप जोर करते हैं उनको हरि चर्चा, ब्रह्म परमात्मा की चर्चा नहीं सुहाती है, उनके मन में तो माया के (भूसी छड़ने के) विचार घूमते हैं। जिनके सब पाप निवृत्त हो गये हैं वे माया में रहते हुए भी माया के विचारों से लेपायमान नहीं होते हैं। ज्ञान के द्वारा जिनके सब संशय निवृत्त हो गये हैं ऐसे पुण्यात्मा को अपने स्वरूप के विषय में कोई संशय नहीं रहता है।

जगत सत्य है या मिथ्या ? आत्मा सत्य है कि परमात्मा सत्य है ? आत्मा और परमात्मा भिन्न हैं कि अभिन्न हैं ? जीते जी मुक्ति मिलती है कि मरने के बाद मिलती है ? जीव ब्रह्म में भिन्नता है कि अभिन्नता ? इस विषय में उनके संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो जाते हैं। मैं जन्मने मरने वाला तुच्छ जीव नहीं हूँ किन्तु सर्वव्यापक ब्रह्म हूँ… मैं व्यक्ति विशेष परिच्छिन्न नहीं हूँ किन्तु अखण्ड ब्रह्माण्ड में व्यापक परब्रह्म हूँ…. इसमें उनको कोई संदेह नहीं होता है क्योंकि उन्होंने अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान पा लिया है।

जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहते हैं, वे ज्ञानी महापुरुष हैं। हर प्राणी का अपना-अपना प्रारब्ध होता है, अपना-अपना स्वभाव होता है, अपनी-अपनी पकड़ होती है और अपनी-अपनी मान्यता होती है। ज्ञानी महापुरुष सबमें स्थित परमात्मा में विश्रांति पाते हैं। अतः अपने स्वरूप में विश्रांति पाये हुए ऐसे महात्मा को देखकर सब प्रसन्न होते हैं और उनको स्नेह करते हैं। पशु पक्षियों पर भी यदि ज्ञानवान की दृष्टि जाती है वे उनमें भी अपनी आत्मा को निहारते हैं। दूसरों में आत्मस्वरूप निहारना यह भी उनका हित करने का बड़ा साधन है। जैसे ‘एक्स रे’ मशीन अपनी जगह पर होते हुए भी हड्डियों तक की फोटो ले लेती है वैसे ही ज्ञानी महापुरुषों की ब्रह्मभावपूर्ण निगाहें हम पर पड़ती हैं तो हमारे लिए भी अपने स्वरूप तक पहुँचने का मार्ग सरल हो जाता है।

शास्त्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि लकड़ी पत्थर इत्यादि जड़ वस्तुओं को यदि ज्ञानी छूते हैं यह उन पर उनकी दृष्टि पड़ती है, स्पर्श मिलता है तो देर-सवेर उनका भी उद्धार हो जाता है तो चेतन जीवों का कल्याण हो जाये इसमें क्या आश्चर्य है ? इसीलिए ज्ञानी ‘सर्वभूतहिते रताः’ कहे गये हैं।

‘सर्वभूतहिते रताः का अर्थ यह नहीं है कि सब प्राणी अपना जैसा हित चाहते हैं वैसा हित। बच्चा अपनी बुद्धि के अनुसार अपना हित चाहता है, कामी अपनी बुद्धि के अनुसार अपना हित चाहता है, लोभी अपनी बुद्धि के अनुसार अपना हित चाहता है, अहंकारी अपनी बुद्धि के अनुसार अपना हित चाहता है। वास्तव में उनका उसमें हित नहीं है लेकिन ज्ञानी उनमें ब्रह्मदृष्टि की निगाह डालते हैं और उसी में सबका हित निहित है। इसी दृष्टि से कहा गया है कि ज्ञानी महापुरुष सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहते हैं।

आत्मज्ञान के पश्चात ज्ञानी महापुरुष का शेष जीवन लोगों को आत्मज्ञान पाने के प्रति जागृत करने में बीतता है। यह आत्म-जागृति का कार्य भी उनका स्वनिर्मित विनोद है। जो विनोदमय कार्य होता है उसमें थकान नहीं लगती है और उसमें कर्तापन का भाव भी नहीं होता है। जो थोपा जाता है वह थकान लाता है और जो किया जाता है वह कर्तापन लाता है लेकिन जो विनोद से होता है उसमें न कर्तापन होता है न थकान।

विनोदमात्र व्यवहार जेना ब्रह्मनिष्ठ प्रमाण।

ऐसे महापुरुषों का प्रत्येक व्यवहार विनोदमात्र होता है। उनका राज्य करना भी विनोदमात्र और भिक्षा माँगना भी विनोदमात्र…. उनका युद्ध करना भी विनोदमात्र और ‘रणछोड़राय’ कहलाकर भाग जाना भी विनोदमात्र। उनके लिए तो सब विनोदमात्र है लेकिन सामने वाले का जीवन बदल जाता है। सूर्य के लिए प्रकाश देना तो स्वाभाविक है लेकिन सारी वसुन्धरा के लिए जीवनदान हो जाता है। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषों की तो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है लेकिन हम लोगों के हृदय में आनंद और उल्लास छा जाता है, हमारे जीवन में ताजगी और स्फूर्ति छा जाती है, सदप्रेरणा, सदप्रवृत्ति सत्स्वरूप परमात्म-प्रीति जागृत हो जाती है। हमारे जीवन में एक नई रोशनी छा जाती है, समझ आ जाती है। वे ही बताते हैं-

ऐ तालबेमंजिले तू मंजिल किधर देखता है ?

दिल ही तेरी मंजिल है, तू अपने दिल की ओर देख।

ऐ सुख के तलबगार ! ऐ सुख को ढूँढने वाले !

तू सुख को कहाँ खोजता है ?

सुखस्वरूप तेरा अपना-आपा है, उसी में तू देख।

लुत्फ कुछ भी नहीं जहाँ में, लेकिन दुनिया जान दे देती है।

बंदे को अगर खुद की खुदाई का पता होता, न जाने क्या कर देता ?

तू सुख को कहाँ खोजता है ?

अपना आनंद, अपनी खुशी, अपना ज्ञान, अपना आत्मिक खजाना अगर समझ में आ जाये तो बंदा कितना धन्य धन्य हो जाये !

यह ब्रह्मविद्या अदभुतत चमत्कार करती है। शरीर का ढाँचा वही का वही, नाम वही का वही, लेकिन गुरुदेव थोड़ी समझ बदल देते हैं तो दुनिया कुछ और ही  निगाहों से दिखने लगती है। यह ब्रह्मविद्या ही है, जिससे सब शोक, चिंताएँ, क्लेश, दुःख नष्ट हो जाते हैं।

छिन्नद्वेधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।

ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की दृष्टि जहाँ तक पड़ती है एवं जहाँ तक उनकी वाणी जाती है वहाँ तक के जीवों को तो शांति मिलती ही है लेकिन जब वे मौन होते हैं, एकांत में होते हैं तो ब्रह्मलोक तक के जीवों को मदद मिलती है और उन्हें पता भी नहीं होता है कि मैंने किस-किस को मदद की है। जैसे सूर्य नारायण सदा अपनी महिमा में स्थित रहते हैं। उनके प्रकाश से कितने जीवों ने जीवन पाया-क्या वे इसकी गिनती रखते होंगे ? नहीं। सूर्यदेव अपनी जगह पर स्थित होते हुए भी, ब्रह्माकार वृत्ति से ब्रह्माण्डों को छूते हुए भी सबसे अलिप्त रहते हैं। सचमुच में बढ़िया से बढ़िया काम, बढ़िया से बढ़िया सेवा तो ब्रह्मवेत्ता ही कर सकते हैं। उनकी सेवा के आगे हमारी सेवा की तो कोई कीमत ही नहीं है। ऐसे ही आत्मसाक्षात्कारी पुरुष ‘सर्वभूतहिते रताः हैं।

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं…. जिनका जीता हुआ मन निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

मन को जीतने के हजार-हजार उपाय किये जायें लेकिन जब तक मन को भीतर का रस ठीक से नहीं मिलता तब तक वह ठीक से जीता नहीं जा सकता। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा।

‘निज का सुख, अपने आत्मस्वरूप का सुख जब तक नहीं मिला तब तक मन स्थिर नहीं होता है।’

व्रत-उपवास करने से, एकांत जगह में रहने से कुछ समय के लिए मन शांत हो जाता है लेकिन फिर से बहिर्मुख हो जाता है। जैसे ठण्ड के दिनों में प्रभातकाल की ठण्डी से साँप ठिठुर जाता है एवं चुपचाप पड़ा रहता है लेकिन ज्यों ही सूर्य की किरणें मिलीं कि वह अपनी चाल चलने लगता है। ऐसे ही व्रत-उपवास, एकांतसेवन करने से थोड़ी देर के लिए तो मन स्थिर होता है लेकिन ज्यों ही भोग-सामग्री सामने आती है त्यों ही मन उसमें आसक्त हो जाता है क्योंकि उसे भीतर का रस नहीं मिला है। जिन्होंने भीतर के रस को पा लिया है उनका मन तो शांत होता ही है, साथ ही ऐसे महापुरुषों के सम्पर्क में आने वालों का मन भी शांत होने लगता है।

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः….

जिनके कल्मष दूर हो गये हैं, पाप दूर हो गये हैं वे ऋषि ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होते हैं।

बड़े में बड़ा पा है जगत के भोगों को सच्चा मानकर जगदीश्वर को भूलना। जो जगत को सत्य मानकर व्यवहार करता है वह चौरासी के चक्कर में ही घूमता रहता है लेकिन जो जगत को मिथ्या मानकर जगदीश्वर में मन लगाता है, संयम सदाचार को अपनाता है वह देर-सवेर जगदीश्वर तत्त्व का अनुभव पाने में भी सफल हो जाता है।

इसीलिए भगवान कहते हैं-

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।

छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 101

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