साधना का चरम लक्ष्य-पूज्य बापू जी

साधना का चरम लक्ष्य-पूज्य बापू जी


माला घुमाते-घुमाते एक दिन ऐसा आता है कि मान्यता घूम जाय। जो शरीर में, समाज में, पद-प्रतिष्ठा में अहं बैठा है वह विराट में खो जाय। माला घुमाने का परम लक्ष्य, चरम फल यही है। बस, अजपाजप होने लगे। मानसिक जप बिना माला के भी जप की आदत डालते जायें और फिर कभी जप छूटे ही नहीं….. अहं बाधित हो जाय। तुम साधन-भजन करते चलो तो ऐसा कोई मौका आता है जब घटना घट जाती है। ईश्वरप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करते-करते हृदय शुद्ध हो जाता है। बस, फिर तो पलभर की देरी होती है। निमित्त हो जाता है श्रवण। अर्जुन श्रवणमात्रेण तैयार हो गया, कृतकृत्य हो गया। राजा जनक अष्टावक्र जी को कहते हैं- “गुरु जी ! आपका उपदेश सुनने मात्र से मैं जग गया। जिसको आज तक जनक मान रहा था वह मैं हूँ ही नहीं, मैं विराट हूँ। मैं शुद्ध-बुद्ध हूँ, परिच्छिन्न देह मैं नहीं हूँ। मुझे न भूख लगती है न प्यास, मेरा न जन्म होता है न मृत्यु। जन्म-मृत्यु मेरे शरीर के होते हैं, मैं तो उनसे  न्यारा हूँ। मैं कभी मर नहीं सकता।”

तुम्हारी मृत्यु कभी होती ही नहीं….

सच पूछो तो तुम जब विराट में खो जाते हो तो तुम्हें अनुभव होगा कि तुम्हारी मृत्यु कभी होती ही नहीं है। मरने का कोई उपाय ही नहीं है। वैज्ञानिक बोलते हैं कि ‘व्यक्ति झूठ-मूठ में भी जैसा चिंतन या कल्पना करता है, वैसा हो जाता है।’ लेकिन मरने की तुम लाख बार कल्पना करो, वह सत्य नहीं होती क्योंकि तुम एक ऐसा सत्य हो कि जहाँ मृत्यु कभी पहुँच नहीं सकती, मृत्यु आये तो वह भी अमर हो जाती है।

बोले, ‘बापू जी ! सारी दुनिया मर रही है और आप कहते हैं हम नहीं मरते ! हम भी तो मरेंगे।’

नहीं, तुमने अपनी मृत्यु कभी देखी नहीं। और शरीर की मौत से तुम मरते तो हजारों बार शरीर मर गया, तुम नहीं मरे।

बोलेः ‘हमने मृत्यु देख ली है।’

नहीं, दूसरे को मरते हुए देखा तो तुमने मान्यता बना ली कि ‘हम भी मरेंगे या मर रहे हैं….।’

लेकिन जो मरने पड़ता है न, वह सचमुच मरता नहीं, बेहोश हो जाता है और सूक्ष्म शरीर निकल जाता है फिर दूसरी जगह व्यवस्था हो जाती है। जैसे शल्यक्रिया (ऑपरेशन) करनी होती है न, तो क्लोरोफॉर्म या और जो नये साधन निकले हैं उनसे बेहोश किया जाता है। प्रकृति तुम्हारा बड़ा-से-बड़ा रूपांतरण करती है, पूरा-का-पूरा शरीर बदल देती है। पूरी-की-पूरी व्यवस्था, समाज, जाति, पंथ बदल देती है। मनुष्य के जीवात्मा को घोड़े के शरीर में रखना है, घोड़े के जीवात्मा को गधे के शरीर में रखना है, गधे के जीवात्मा को चूहे के शरीर में रखना है तो बड़े-में-बड़ा रूपांतरण है…. इसलिए जीवात्मा थोड़ी देर के लिए बेहोश हो जाता है। तुम्हें मूर्च्छा आ जाती है, तुम्हारी मृत्यु नहीं होती।

जो लोग मूर्च्छा में मर रहे हैं उनका मरना चालू रहता है और वे अपने को मरणधर्मा मानते रहते हैं लेकिन जिनके पास किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की कृपा पहुँच गयी है और वह ज्ञान जिन्होंने हजम किया है, जो उनके स्वरूप को ठीक से समझ चुके हैं, वे सजग हो जाते हैं। वे मृत्यु को भी देखते हैं। जैसे आदमी अपने शरीर को देख रहा है, शरीर के दर्द को देख रहा है, शरीर के अंग-प्रत्यंग को महसूस कर रहा है ऐसे ही जब मृत्यु आती है तो मृत्यु भी शरीर पर घटती है। मृत्यु को भी देखने वाला बचा रहता है। कोई होश में मरता है, कोई बेहोश हो के मरता है। जो होश में मर जाता है वह अमर हो जाता है और जो बेहोश मरता है वह मरता ही रहता है। आत्मसाक्षात्कार का अर्थ यह है कि अपने स्वरूप का होश आ जाय। जो होश से जी सकता है वह होश से मर सकता है। जो बेहोशी में जीता है वह बेहोश हो के मरता है।

बेहोशी क्या है ? जैसा अहं का आवेग आया, जैसी मन की धारणा बनी, जैसा बुद्धि ने निर्णय दिया ऐसा हम करने लग गये। उनके आवेग में हम बहे जा रहे हैं। यह बेहोशी है। होश यह है कि हमने धारणा, ध्यान, साधना करके अपने अस्तित्व को, अपनी असलियत को पहचाना। शरीर और मान्यता का ‘मैं’ कपोलकल्पित समझ लिया व अपने शुद्ध-बुद्ध ‘मैं’ में जग गये।

शाह लतीफ कहते हैं, जे भाई जोगी थियां, त तमा छदि तमाम। यदि तुम चाहते हो कि ‘मैं योगी होऊँ, ईश्वर के साथ एकता करूँ, जन्म-मरण की धारा से बच जाऊँ….’ तो तमन्नाओं का त्याग करो। शास्त्र, गुरु और साधना के बल से जो तुम्हारी वास्तविक जरूरत तुम्हें प्रतीत हो, वह जरूर अपने आप पूरी हो जायेगी।

अनन्याश्चिन्तयतो मां ये जनाः  पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं व्हाम्यहम्।। (गीताः 9.22)

जो अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करता है, मेरी उपासना करता है मैं उसकी आवश्यकताएँ तो पूरी करता हूँ, साथ ही आवश्यकताओं के साधनों की सुरक्षा भी करता हूँ – ऐसा भगवान का वचन है और इस वचन की महानता का मुझे भी व मेरे साधकों को भी अनुभव है। जो भगवान की तरफ चल पड़ता है, उसकी जो आवश्यकताएँ हैं वे अपने आप पूरी होने लग जाती हैं, उसका योग (प्राप्ति) और क्षेम (सुरक्षा) भगवान वहन करते हैं।

जे भाई जोगी थियां, त तमा छदि तमाम।

सबुर जे शमशेर सां, कर कीन्हे खे कतलाम।

‘यदि योगी बनना चाहते हो तो तमाम इच्छाएँ छोड़ दो। सब्र की तलवार से अभावों का कत्लेआम कर दो।’

‘नहीं होगा…. मेरा दम नहीं… हम इस मार्ग में नहीं चल सकते….’ यह जो नकारात्मक सोच है, निराशा है उसको छोड़ दो। जो तथाकथित गुरु या संत बोलते हैं कि ‘यह कठिन है, असम्भव है, तुम्हारा दम नहीं है’ वे तुम्हारी कायरता बढ़ा रहे हैं, उन बातों का, विचारों का त्याग कर देना। जिनको परमात्मा प्राप्त हो गया है वे तो ऐसी हिम्मत देते हैं कि ‘हो सकता है…. आत्मसाक्षात्कार कठिन नहीं है।’ जिनको आत्मसाक्षात्कार कठिन नहीं महसूस होता ऐसे गुरुओं की उपलब्धि होना बड़ा सौभाग्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 29, अंक 302

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *