ईश्वरप्राप्ति कठिन नहीं है

ईश्वरप्राप्ति कठिन नहीं है


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता है किः

‘ईश्वर हमसे दूर नहीं है, उसमें और हम में भेद भी कुछ नहीं है तथा वह दुर्लभ भी नहीं है।’

ईश्वर को पाना कठिन नहीं है लेकिन उसका ज्ञान सुनने, विचारने को नहीं मिलता है, उसमें प्रीति नहीं होती है इसलिए उसे पाना कठिन लगता है। जैसे जिसको लिखने-पढ़ने का अभ्यास नहीं है उसे लिखना-पढ़ना कठिन लगता है ऐसे ही मन को ईश्वर विषयक अभ्यास नहीं है। जैसे, स्कूल के प्रारम्भ के दिनों में क….ख….ग… A….B….C….1….2…3… आदि लिखना कठिन लगता था लेकिन अब बड़ी सरलता से लिख लेते हो, ऐसी ही ईश्वर के विषय में है। अभ्यास की बलिहारी है।

दिले तस्वीरे है यार ! जबकि गरदन झुका ली और मुलाकात कर ली।

‘मेरे भाई ने थप्पड़ मार दी…..’ याद आया तो दुःख हो रहा है। अब दुःख किसको हो रहा है ? उसको देखो। दुःख होता है मन को, अपने मन के भी द्रष्टा हो जाओ तो दुःख गायब हो जायेगा। शरीर बीमार है, ऊँह…. ऊँह… करता है। उसको भी देखो तो हँसी आ जायेगी। एक बार इस शरीर को जहरीले मलेरिया और इन्जैक्शनों के रिएक्शन से भयंकर पीड़ा का एहसास हुआ था तो ‘ऊँह… ऊँह…. ऊँह…’ निकल जाता था। मैं अपने शरीर को पूछताः ‘ऊँह…ऊँह..ऊँह.. क्या करता है ?’ ….तो हँसी निकल जाती थी। मैं फिर मन से कहताः ‘तू ऊँह…ऊँह….ऊँह… कर। मैं देखता हूँ।” तो फिर वह ऊँह….ऊँह….ऊँह…. नहीं करता था। देखने वालों को बेचारों को बड़ी पीड़ा होती थी, छुप करके रोते थे कि…..’न जाने क्या हो गया है….’ लेकिन हमको ऐसा नहीं होता था। शरीर को तो पीड़ा होती थी लेकिन हम उसे देखते थे। ऐसे ही अभ्यास हो जाये तो गहरी नींद में भी उसको देखने वाला द्रष्टा अपने को शरीर से पृथक महसूस करता है। जैसे हम दूसरे व्यक्ति को देखते हैं ऐसे ही अपनी नींद में अपने को भी देख सकते हैं। सूक्ष्मता का अभ्यास बढ़ जाने से ऐसा हो जाता है।

ऐसे ही हम दुःख को भी देख सकते हैं और सुख को भी देख सकते हैं। देखने का अभ्यास हो तो यह आसान हो जाता है। जैसे नाटक में अभिनेता कहता हैः ‘मैं राजा विक्रमादित्य हूँ…. मेरे राज्य में ऐसा नहीं चल सकता…..’ लेकिन भीतर से जानता है कि वह कौन है। थोड़ी ही देर में भिखारी का वेश बदल कर दर्शकों को द्रवित कर देता है। थोड़ी देर पहले ही उसने राजाधिराज की भूमिका अदा की थी और अब भिखमंगे की भूमिका अदा कर रहा है  लेकिन भीतर से वह अच्छी तरह से जानता है कि वह केवल भूमिका अदा कर रहा है। ऐसे ही है जिसको शरीर से पृथक्त्व का अभ्यास हो जाता है वह सुख-दुःख से पार हो जाता है।

इसमें झूठा बेईमान-कपटी आदमी सफल नहीं होता है। वह जितना छल-कपट छोड़ेगा उतना ही आगे बढ़ेगा। जितनी बेईमानी छोड़ेगा उतना ही आगे बढ़ेगा। झूठ-कपट-बेईमानी-दगाबाजी होती भी है देह को ‘मैं’ मानकर एवं संसार को सत्य मानकर सुखी होने की बेवकूफी से। यदि आत्मा को ‘मैं’ माने एवं संसार को मिथ्या जाने तो कितना भी बेईमान इन्सान होगा उसकी बेईमानी व दुर्गुण घटते जायेंगे और वह महान बन जायेगा।

सत्संग की और भगवान को पाने की महत्ता समझ में आ जाये तो मन पवित्र होने लगता है। जब तक भगवान को पाने की महत्ता का पता नहीं, तभी तक सारे दुःख विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाने की महिमा नहीं जानते, ईश्वर ही सार है-ऐसा नहीं जानते, तभी तक छल-कपट आदि सारे दुर्गुण विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाना ही सार है-ऐसा समझ में आ जाये तो सारे छल-कपट कम होते चले जायेंगे। सारी शिकायतें दूर होती चली जायेंगी। फिर वह अपनी गलती की सफाई नहीं देगा वरन् उसे अपनी गलती खटकेगी एवं गलती को निकालने में तत्पर बनेगा। जिसको ईश्वरप्राप्ति की रूचि नहीं है उसकी गलती बताओगे तो सफाई देगा, अपनी गलती नहीं मानेगा और ज्यों-ज्यों सफाई देगा त्यों-त्यों उसकी गलती गहरी उतरती जायेगी। उसको पता ही नहीं चलेगा किः ‘मैं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूँ।’

जो गलती की सफाई देगा, चतुराई करेगा, कपट करेगा उसके जीवन में फिर सच्ची उन्नति नहीं हो सकेगी। जो औरों को धोखा देता है सको भी कोई न कोई बड़ा धोखा दे देता है। दगा किसी का सगा नहीं। झूठ-छल-कपट…. इसी से सारे दुष्कर्म उत्पन्न होते हैं और यह सब होता है शरीर एवं संसार को सत्य  मानने से। संसार को सत्य मानना, संसार की चर्चा करना, आत्मा-परमात्मा से प्रीति नहीं करना – यही सारे दुःखों का मूल है।

जो केवल परमात्मा को ही सत्य मानकर उसे पाने का यत्न करता है, उसके लिए ईश्वरप्राप्ति सरल है। जो भगवान की प्रीति, भगवान की प्रसन्नता एवं भगवदस्वरूप के ज्ञान के लिए ईमानदारी से सेवा करता है उसके लिए भगवदप्राप्ति सहज है। ऐसा साधक शीघ्र ही परमपद को पाकर समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। परमसुख स्वरूप अपने आत्मा-परमात्मा मे प्रीति और तृप्ति का अनुभव करता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 9-10, अंक 101

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