Monthly Archives: August 2009

सत्शास्त्रों का आदर


ग्रंथों में देखा जाय तो कागज और स्याही होती है और होते हैं वर्णमाला के अक्षर, जो तुम विद्यालय में पढ़े हो, पढ़ाते हो । लेकिन फिर भी वे अक्षर सत्संग के द्वारा दुहराये जाते हैं और उस ढंग से छप जाते हैं तब वह पुस्तक नहीं रहती, वह स्याही और कागज नहीं रहता, वह शास्त्र हो जाता है और हम उसे शिरोधार्य करके, उसकी शोभायात्रा निकालकर अपने प्रेम और पुण्य स्वभाव को जागृत करते हैं । जिन ग्रंथों में संतों की वाणी है, संतों का अनुभव है, उन ग्रंथों का आदर होना ही चाहिए । हमारे जीवन में ये सत्शास्त्र अत्यधिक उपयोगी हैं । उनका आदरसहित अध्ययन करके एवं उनके अनुसार आचरण करके हम अपने जीवन को उन्नत कर सकते हैं ।

स्वामी विवेकानंद तो यहाँ तक कहते हैं कि जिस घर में सत्साहित्य नहीं वह घर नहीं वरन् श्मशान है, भूतों का बसेरा है ।

अतः अपने घर में तो सत्साहित्य रखें और पढ़ें ही किंतु औरों को भी सत्साहित्य पढ़ने की प्रेरणा देते रहें । उसमें आपका तो कल्याण होगा ही, औरों के कल्याण में भी आप सहभागी बन जायेंगे ।

मुँह से उँगली गीली करके सत्पुरुषों की वाणी का पन्ना नहीं पलटना चाहिए । पवित्रता  और आदर से संतों की वाणी को पढ़ने वाला ज्यादा लाभ पाता है । सामान्य पुस्तकों की तरह सत्संग की पुस्तक पढ़कर इधर उधऱ नहीं रख देनी चाहिए । जिसमें परमात्मा की, महापुरुषों की अनुभूति है, जो परमात्मशांति देने वाली है वह तो पुस्तक नहीं शास्त्र है । उसका जितना अधिक आदर, उतना अधिक लाभ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 23 अंक 200

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स्वास्थ्य एवं पर्यावरण रक्षक प्रकृति के अनमोल उपहार


अन्न, जल और वायु हमारे जीवन के आधार हैं । सामान्य मनुष्य प्रतिदिन औसतन 1 किलो अन्न और 2 किलो जल लेता है परंतु इनके साथ वह करीब 10000 लीटर (12 से 13.5 किलो) वायु भी लेता है । इसलिए स्वास्थ्य की सुरक्षा हेतु शुद्ध वायु अत्यंत आवश्यक है ।

प्रदूषणयुक्त, ऋण-आयनों की कमीवाली एवं ओजोनरहित हवा से रोगप्रतिकारक शक्ति का ह्रास होता है व कई प्रकार की शारीरिक-मानसिक बीमारियाँ होती हैं ।

सन् 1975 की तुलना में वर्तमान समय में दमे के मरीज दुगने हो गये हैं । हर 9 में से 1 बच्चा दमे से पीड़ित है । दमे के कारण मरने वालों की संख्या वयस्कों में तीन गुना हो गयी है और 5 से 9 वर्ष की उम्र के बच्चों में चार गुनी हो गयी है । पीपल का वृक्ष दमानाशक, हृदयपोषक, ऋणआयनों का खजाना, रोगनाशक, आह्लाद व मानसिक प्रसन्नता का खजाना तथा रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाने वाला है । बुद्धू बालकों तथा हताश-निराश लोगों को भी पीपल के स्पर्श एवं उसकी छाया में बैठने से अमिट स्वास्थ्य-लाभ व पुण्य लाभ होता है । पीपल की जितनी महिमा गायें, कम है । पर्यावरण की शुद्धि के लिए जनता-जनार्दन एवं सरकार को बबूल, नीलगिरी (युकेलिप्टस) आदि जीवनशक्ति का ह्रास करने वाले वृक्ष सड़कों एवं अन्य स्थानों से हटाने चाहिए और पीपल, आँवला, तुलसी, वटवृक्ष व नीम के वृक्ष दिल खोल के लगाने चाहिए । इससे अरबों रुपयों की दवाइयों का खर्च बच जायेगा । ये वृक्ष शुद्ध वायु के द्वारा प्राणिमात्र को एक प्रकार का उत्तम भोजन प्रदान करते हैं । पूज्य बापू जी कहते हैं कि ये वृक्ष लगाने से आपके द्वारा प्राणिमात्र की बड़ी सेवा होगी । यह लेख पढ़ने के बाद सरकार में अमलदारों व अधिकारियों को सूचित करना भी एक सेवा होगी । खुद वृक्ष लगाना और दूसरों को प्रेरित करना भी एक सेवा होगी ।

पीपलः यह धुएँ तथा धूलि के दोषों को वातावरण से सोखकर पर्यावरण की रखा करने वाला एक महत्त्वपूर्ण वृक्ष है । यह चौबीसों घंटे ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है । इसके नित्य स्पर्श से रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि, मनःशुद्धि, आलस्य में कमी, ग्रहपीड़ा का शमन, शरीर के आभामंडल की शुद्धि और विचारधारा में धनात्मक परिवर्तन होता है । बालकों के लिए पीपल का स्पर्श बुद्धिवर्धक है । रविवार को पीपल का स्पर्श न करें ।

आँवलाः आँवले का वृक्ष भगवान विष्णु को प्रिय है । इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल प्राप्त होता है । इसके दर्शन से दुगना और फल खाने से तिगुना पुण्य होता है । आँवले के वृक्ष का पूजन कामनापूर्ति में सहायक है । कार्तिक में आँवले के वन में भगवान श्रीहरि की पूजा तथा आँवले की छाया में भोजन पापनाशक है । आँवले के वृक्षों से वातावरण में ऋणायनों की वृद्धि होती है तथा शरीर में शक्ति का, धनात्मक ऊर्जा का संचार होता है ।

आँवले से नित्य स्नान पुण्यमय माना जाता है और लक्ष्मीप्राप्ति में सहायक है । जिस घर में सदा आँवला रखा रहता है वहाँ भूत, प्रेत और राक्षस नहीं जाते ।

तुलसीः प्रदूषित वायु के शुद्धिकरण में तुलसी का योगदान सर्वाधिक है । तुलसी का पौधा उच्छवास में स्फूर्तिप्रद ओजोन (O3) वायु छोड़ता है, जिसमें ऑक्सीजन के दो के स्थान पर तीन परमाणु होते हैं । ओजोन वायु वातावरण के बैक्टीरिया, वायरस, फंगस आदि को नष्ट करके ऑक्सीजन में रूपांतरित हो जाती है । तुलसी उत्तम प्रदूषणनाशक है । फ्रेंच डॉ, विक्टर रेसीन कहते हैं- ‘तुलसी एक अदभुत औषधि है । यह रक्तचाप व पाचनक्रिया का नियमन तथा रक्त की वृद्धि करती है ।’

वटवृक्षः यह वैज्ञानिक दृष्टि से पृथ्वी में जल की मात्रा का स्थिरीकरण करने वाला एकमात्र वृक्ष है । यह भूमिक्षरण को रोकता है । इस  वृक्ष के समस्त भाग औषधि का कार्य करते हैं । यह स्मरणशक्ति व एकाग्रता की वृद्धि करता है । इसमें देवो का वास माना जाता है ।  इसकी छाया में साधना करना बहुत लाभदायी है । वातावरण शुद्धि में सहायक हवन के लिए वट और पीपल की समिधा का वैज्ञानिक महत्त्व है ।

नीमः नीम की शीतल छाया कितनी सुखद और तृप्तिकर होती है, इसका अनुभव सभी को होगा । नीम में ऐसी कीटाणुनाशक शक्ति मौजूद है कि यदि नियमित नीम की छाया में दिन के समय विश्राम किया जाय तो सहसा कोई रोग होने की सम्भावना ही नहीं रहती ।

नीम के अंग-प्रत्यंग (पत्तियाँ, फूल, फल, छाल, लकड़ी) उपयोगी और औषधियुक्त होते हैं । इसकी कोंपलों और पकी हुई पत्तियों में प्रोटीन, कैल्शियम, लौह और विटामिन ‘ए’ पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं ।

नीलगिरी के वृक्ष भूल से भी न लगायें, ये जमीन को बंजर बना देते हैं । जिस भूमि पर ये लगाये जाते हैं उसकी शुद्धि 12 वर्ष बाद होती है, ऐसा माना जाता है । इसकी शाखाओं पर ज्यादातर पक्षी घोंसला नहीं बनाते, इसके मूल में प्रायः कोई प्राणी बिल नहीं बनाते, यह इतना हानिकारक, जीवन-विघातक वृक्ष है । हे समझदार मनुष्यो ! पक्षी एवं प्राणियों जितनी अक्ल तो हमें रखनी चाहिए । हानिकर वृक्ष हटाओ और तुलसी, पीपल, आँवला आदि लगाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 28 अंक 200

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अहंकार से रहित हो


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

हर व्यक्ति श्रीकृष्ण का रूप है लेकिन….

आत्मसाक्षात्कार सब अनुभवों के बापों का बाप  है । आत्मानुभव के आगे सारे अनुभव छोटे पड़ जाते हैं । आत्मसाक्षात्कार करने के लिए तटस्थ रहना पड़ता है । जैसे दूसरों में दोष देखते हैं ऐसी ही अपने मन के दोष देखो, मन से मिलो मत । अपने मन-बुद्धि के दोषों को ढँकने की कोशिश मत करो अपितु उन्हें बाहर निकालो और ‘निकालने वाला मैं हूँ’ – ऐसा अहंकार न करो । ईश्वर की कृपा का सहारा लेकर उन्हें निकालोगे तो वे आसानी से निकल जायेंगे, नहीं तो निकालने के बहाने और गहरे उतरेंगे ।

अन्य को तज, ईश्वर को भज । बहिर्मुखता छोड़, भीतर आ । ‘मैं क्या करूँ, क्या न करूँ ?’ यह सब चिंता छोड़, ईश्वर में रह बस । सब ठीक हो जायेगा । ॐकार का लम्बा उच्चारण करो । ‘अ’ और ‘म्’ के बीच निःसंकल्प नारायण में शांत होते जाओ । श्वास अंदर आये तो ‘सोऽऽ‘ और बाहर आये तो ‘हम्‘ – अजपा गायत्री में रहो । ‘मैं वही चैतन्य हूँ – सोऽहम् । इसमें विश्रांति पाओ, अपने आत्मसुख में तृप्त होओ, सुखी होओ ।

सेवा करो तो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए । सर्वव्यापी, सर्वेश्वर की सेवा करते समय अपने अहंकार व वासना को महत्त्व न दो । चालबाजी नहीं, सच्चाई रखो । ईश्वर सत्यस्वरूप है । फिर झूठ क्यों बोलें ? कपट क्यों करें ? सुखी होना स्वाभाविक है, सुख तुम्हारा स्वतः स्वभाव है । रात को कुछ नहीं करते तो सुबह कैसे सुखी हो जाते हो ! विकारों के बिना कैसे सुखी रहते हो, पकड़ने-छोड़ने की इच्छा बिना कितने सुखी होते हो ! व्यक्ति बचपन में सहज स्वभाव होता है तो कितना खुश रहता है किंतु जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, अहंकार और पुष्ट होता है, वासनाएँ उभरती हैं तो बेचारे को खुश रहने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है ! और फिर भी उतना खुश नहीं रह पाता ।

एक आदमी ने श्रीमद्भागवत पर फिल्म बनानी चाही । उसने घुँघराले बालों वाले किसी नन्हें-मुन्हें बालक को श्रीकृष्ण की भूमिका अदा करने के लिए पसंद किया, दूसरे पात्रों के लिए उनके अनुरूप कलाकारों का चयन किया । लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उसकी फिल्म अधूरी रह गयी । कुछ वर्षों बाद उसको आर्थिक मदद मिली और वह पुनः अपनी फिल्म बनाने में लग गया । फिल्म में उसे कंस की पात्र की जरूरत पड़ी । खोजते-खोजते उसने एक व्यक्ति को कंस की भूमिका अदा करने हेतु पसंद किया । जब उसने उस व्यक्ति का नाम व पता जाना तो हैरान होकर बोल पड़ाः “अरे, कैसा आश्चर्य ! यह जब नन्हा बच्चा था तब मैंने इसी को श्रीकृष्ण की भूमिका अदा करने के लिए पसंद किया था । वही बालक आज कंस की भूमिका अदा करने हेतु पसंद किया गया ! इसका रूप ऐसा कैसे हो गया ?”

हर व्यक्ति जन्म लेता है तब श्रीकृष्ण का रूप होता है, लेकिन वासना और अहंकार उसे कंस बना देते हैं । इसको छोड़े तो उसका श्रीकृष्ण रूप प्रकट हो जाता है ।

अहंकाररूपी चुंगी देनी ही पड़ेगी

एक आदमी था जिसको अपना माल लेकर नगर में जाना था लेकिन उसने देखा कि रास्ते में चुंगी नाका आता है । उसको चुंगी नहीं देनी थी, अतः उसने थोड़ी देर इधर-उधर घूम-फिरकर फिर जाने की कोशिश की लेकिन हर समय वह चुंगी नाका चालू ! वह पूरी रात चक्कर लगाता रहा किंतु आखिर उसे चुंगी देनी ही पड़ी ।

ऐसे ही कितना भी धन कमा लो, कितनी भी पद-प्रतिष्ठा और सत्ता पा लो, ऋद्धि-सिद्धि पा लो लेकिन शाश्वत सुख पाने के लिए परमात्म-स्वरूप का ज्ञान पाने के लिए अपना अहं परब्रह्म परमात्मा को चुंगी के रूप में देना ही पड़ता है । फिर चाहे भटक-भटककर दो या सीधे ही दे दो । कई जन्म बीत गये, और फिर भी कितने ही बीत जायें, जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक सब दुःखों का अंत नहीं होगा । सब दुःखों से छुटकारा पाना है तो ब्रह्मज्ञानी गुरु के चुंगी नाके से होकर ही जाना पड़ेगा और अहंकाररूपी चुंगी देनी ही पड़ेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 200

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