Monthly Archives: August 2009

एको धर्मः परं श्रेयः


महात्मा विदुर राजा धृतराष्ट्र से बोलेः राजन ! एको धर्मः परं श्रेयः । ‘एकमात्र धर्म ही परम कल्याणकारी है ।’ भगवती श्रुति की आज्ञा हैः धर्मं चर, धर्मान्न प्रमदितव्यम् ।’ धर्म करो, धर्मकार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए ।’

वेदों में जिन कर्मों का विधान किया गया है वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है वे अधर्म हैं । वेद स्वयं भगवान के स्वरूप हैं । वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास हैं । वेद, स्मृति, सत्पुरुषों का आचरण और अपने आत्मा की प्रसन्नता – ये चार धर्म के परिचायक हैं ।

इस लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोक में उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है ।

धनाद्धर्मस्ततः सुखम् ।

धन से धर्म और धर्म से सुख होता है ।’

धर्मानुसरण में ही शक्ति और मुक्ति निहित है । शास्त्रों में यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ – ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग बताये गये हैं ।

धर्म के आश्रय से ही ऋषियों ने संसार-समुद्र को पार किया है । धर्म पर ही संपूर्ण लोक टिके हुए हैं । धर्म से ही देवताओं की उन्नति हुई है और धर्म में ही अर्थ की भी स्थिति है ।

धर्ममेवानुवर्तस्व न धर्माद् विद्यते परम् ।

हे राजन ! तुम धर्म का पालन करो । धर्म से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है । सज्जन पुरुषों द्वारा किये हुए धर्माचरण को करने वाले राजा की राज्यभूमि धन-धान्य से पूर्ण होकर समृद्धि को प्राप्त होती है और उसके ऐश्वर्य को बढ़ाती है । जो राजा धर्म को छोड़कर अधर्म को अपनाता है, उसकी राज्यभूमि आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो जाती है । इसलिए –

धर्मेण राज्यं विन्देत धर्मेण परिपालयेत् ।

धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते ।।

‘धर्म से ही राज्य प्राप्त करें और धर्म से ही उसकी रक्षा करें क्योंकि धर्ममूलक राज्यलक्ष्मी को पाकर न तो राजा उसे छोड़ता है और न वह राजा को छोड़ती है ।’

दृष्टांत कथा

‘महाभारत के वन पर्व में आता है कि धर्मराज युधिष्ठिर से द्रौपदी कहती हैः “हे कुंतीनंदन ! आपका राज्य व जीवन दोनों धर्म के लिए ही हैं । आप मेरे सहित भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव को भी त्याग देंगे पर धर्म का त्याग नहीं करेंगे । मैंने आर्यों के मुँह से सुना है कि यदि धर्म की रक्षा की जाय तो वह धर्मरक्षक राजा की भी रक्षा करता है किंतु मुझे मालूम होता है कि वह आपकी रक्षा नहीं कर रहा है । जो आर्यशास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन व धर्म की हानि करने वाला, क्रर तथा लोभी है उस धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधन को धन देकर विधाता क्या फल पाता है ?”

युधिष्ठिर बोलेः “सुशोभने ! मैं धर्म का फल पाने के लोभ से धर्म का आचरण नहीं करता अपितु साधु पुरुषों के आचार-व्यवहार को देखकर शास्त्रीय मर्यादा का उल्लंघन न करके स्वभाव से ही मेरा मन धर्मपालन में लगा है । जो मनुष्य कुछ पाने की इच्छा से धर्म का व्यापार करता है वह धर्मवादी पुरुषों की दृष्टि में हीन और निंदनीय है ।

कृष्णे ! सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा महर्षियों द्वारा प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरित पुरातन धर्म पर शंका नहीं करनी चाहिए । जो धर्म के प्रति संदेह करता है, उसकी शुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है ।

साध्वी द्रौपदी ! यदि धर्मपरायण पुरुषों द्वारा पालित धर्म निष्फल होता तो संपूर्ण जगत असीम अंधकार में निमग्न हो जाता । कृष्णे ! यहाँ धर्म का फल देने वाले ईश्वर अवश्य हैं, यह बात जानकर ही उन ऋषि आदिकों ने धर्म का आचरण किया है । धर्म ही सनातन श्रेय (श्रेष्ठ, मंगलमय) है । धर्म निष्फल नहीं होता ।

धर्म का फल तुरंत दिखायी न दो तो इस कारण धर्म एवं देवताओं पर शंका नहीं करनी चाहिए । दोषदृष्टि न रखते हुए यत्नपूर्वक यज्ञ और दान करते रहना चाहिए । कर्मों का फल यहाँ अवश्य प्राप्त होता है, यह धर्मशास्त्र का विधान है । इसलिए कृष्णे ! यह सब कुछ सत्य है, ऐसा निश्चय करके तुम्हारा धर्मविषयक संदेह कुहरे की भाँति नष्ट हो जाना चाहिए ।

कल्याणी ! जो सदा धर्म के विषय में पूर्ण निश्चय रखने वाला है और सब प्रकार की आशंकाएँ छोड़कर धर्म की ही शरण लेता है, वह परलोक में अक्षय, अनंत सुख का भागी होता है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । इसीलिए मनस्विनी ! समस्त प्राणियों का भरण-पोषण करने वाले ईश्वर पर आक्षेप बिल्कुल न करो । कृष्णे ! जिनके कृपाप्रसाद से उनके प्रति भक्तिभाव रखने वाला मरणधर्मा मनुष्य अमरत्व को प्राप्त हो जाता है, उन परम देव परमेश्वर की तुमको किसी प्रकार अवहेलना नहीं करनी चाहिए ।”

इस प्रकार जो मनुष्य धर्म-अनुसार आचरण करता है व सब प्रकार के लाभों में धर्मलाभ को ही सर्वोपरि समझता है, वह चिरकाल तक सुख का उपभोग करता है ।

धर्मो हि विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा ।

‘धर्म से ही संपूर्ण जगत की प्रतिष्ठा है ।’

अतः कामना, भय व लोभ से तथा इस जीवन के लिए भी कभी धर्म का त्याग न करें । धर्म नित्य है, सुख-दुःख अनित्य हैं । आप अनित्य को छोड़कर नित्य धर्मस्वरूप उस परमेश्वर में स्थित होइये, वही अखण्ड, एकरस आनंद का आश्रय है ।

इतिहास साक्षी है अधर्म का आचरण करने वाला दुर्योधन बाहर से समृद्ध था, सुखी लगता था पर उसका और उसका साथ देने वालों का अंत क्या हुआ ?

पांडव अकिंचन, अभावग्रस्त दिखते थे फिर भी शांत, सौम्य व प्रसन्न रहते थे । अंत में उनको भोग और मोक्ष, मधुमय मुक्ति प्राप्त हुई । अधर्म की, बाहर की क्षणिक चमक-दमक देखकर कभी भी संसार की आसक्ति हटाने वाला व अपनी आंतरिक शांति, संतोष, प्रभुप्रीति देने वाला धर्म नहीं छोड़ना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 26 अंक 200

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

संतों का समय व्यर्थ न करें – पूज्य बापू जी


चाणोद करनाली में श्री रंगअवधूत महाराज नर्मदा के किनारे उसकी शांत लहरों को निहार रहे थे । एक स्टेशन मास्टर ने देखा कि जिनका नाम काफी सुना है, वे ही श्री रंगअवधूत महाराज  बैठे हुए हैं । वह उनको प्रणाम करके बोलाः “बाबा जी ! बाबा जी !! 42वाँ साल चल रहा है, अभी तक घर में झूला नहीं बँधा, संतान नहीं हुई ।”

श्री रंगअवधूत जी बोलेः “यहाँ भी संतान की ही बात करता है ! अच्छा जा, हो जायेगी ।”

अधिकारी बोलाः “लेकिन डॉक्टर लोग बोलते हैं खराबी है, ऐसा है वैसा है ।”

“अरे ! हो जायेगी । जा अब यहाँ से ।”

“बाबा जी ! बेटा होगा क्या मुझे ?”

“हाँ बाबा हाँ ! जा अब यहाँ से ।”

“किन्तु बाबा जी ! डॉक्टर तो मना करते हैं । एक बार फिर से कह दीजिये न, कि बेटा होगा !”

“जा साले ! अब कभी नहीं होगा । कितना सिर खपाया तूने संत का ! संत चुप रहते हैं तो ईश्वर के साथ रहते हैं । बोलना पड़ता है, सुनना पड़ता है तो कितना नीचे गिरा रहा है । अब कभी नहीं होगी जा !”

सत्यस्वरूप में जागे हुए महापुरुष का संकेत ही काफी होता है । जो महापुरुष सत्यस्वरूप परमात्मा में स्थित हैं, वे तो नजरों-नजरों में ही दे देते हैं । अतः एक ही बात उनसे बार-बार पूछकर उनका समय खराब करना माने अपना भाग्य ही खराब करना है । संतों के पास श्रद्धा-भक्ति से बैठकर सत्संग-श्रवन करना और उसका मनन चिंतन करना तो बढ़िया है किंतु संसार की नश्वर वस्तुओं के लिए बार-बार उनका समय लेना अपराध है ।

सूर्य को बोलेः ‘प्रकाश दो ।’ चन्द्रमा को बोलेः ‘चाँदनी दो ।’ गंगा को बोलेः ‘पानी दो ।’… यह तो उनका स्वभाव है । ऐसे ही आत्मज्ञानी संतों को बोलते हैं- ‘आशीर्वाद दो ।’ ऐसे लोग अनगढ़, नासमझ होते हैं । उसमें भी स्टेशन मास्टर ने हद कर दी नासमझी की !

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आत्मरसायन

जीवन के सत्य को स्वीकार करना सत्संग है । बुराई रहित होना, चाहरहित होना और प्रेमी होना सत्संग है । बुराई रहित होने का उपाय है – किसी न किसी नाते सभी को अपना मानना । चाहरहित होने का अर्थ है – अपना कोई संकल्प न रहना और प्रेमी होने का अर्थ है – केवल प्रभु से ही नित्य एवं आत्मीय संबंध स्वीकार करना । इन तीनों बातों को करने में मानवमात्र स्वाधीन है और वर्तमान मे कर सकता है ।

सभी को अपना मानने से निर्विकारिता, किसी को अपना न मानने से निःसंदेहता और सर्वसमर्थ प्रभु को अपना मानने से निर्भयता की अभिव्यक्ति होती है । निर्विकारिता से जीवन जगत के लिए, निःसंदेहता से अपने लिए और निर्भयता से प्रभु के लिए उपयोगी होता है । यही जीवन की पूर्णता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 200

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

श्रीकृष्ण अवतार का उद्देश्य-पूज्य बापू जी


(श्रीकृष्ण जन्माष्टमीः 14 अगस्त 2009)

मनुष्य जीवन कितना ऊँचा है कि वह भगवान का भी अवतरण करा सकता है । अपने अंतःकरण में भगवान का अवतरण, अपनी बुद्धि में भगवान का अवतरण, अपने ‘स्व’ में भगवान का अवतरण हो गया तो फिर साक्षात्कार हो जाता है । निष्काम कर्म करते हो तो कर्म में भगवान का अवतरण होता है और कर्म स्वार्थ से जुड़ा हो तो मनुष्य दुःख पाता है ।

मनुष्य को दुःख तीन बातों से होता है – एक कंस से दुःख होता है, दूसरा काल से और तीसरा अज्ञान से दुःख होता है । मथुरा के लोग कंस से दुःखी थे, यह संसार ही मथुरा है । कंस के दो रूप हैं – एक तो खपे-खपे (और चाहिए, और चाहिए….) में खप जाय और दूसरे का चाहे कुछ भी हो जाय, उधर ध्यान न दे । यह कंस का स्थूल रूप है । दूसरा है कंस का सूक्ष्म रूप – ईश्वर की चीजों में अपनी मालिकी करके अपने अहं की विशेषता मानना कि ‘मैं धनवान हूँ, मैं सत्तावान हूँ, मेरा राज्य है, मेरा वैभव है, मुझसे बड़ा कोई नहीं….।’ यह अंदर में भाव होता है ।

तीन भेद होते हैं समय, वस्तु और स्थान के कारण दुःख होना । जैसे – यह कलियुग का काल है, इस काल में अमुक-अमुक समय में, अमुक-अमुक वस्तु से, अमुक-अमुक स्थान में व्यक्ति दुःख पाता है । दूषित काल है, प्रदोषकाल है तो उस काल में व्यक्ति पीड़ा पाता है, दुःख पाता है । शराब का अड्डा है, वेश्यागृह है, झगड़ा करने वाले लोगों का संग है तो उस स्थान के कारण किसी को दुःख होता है । वस्तु से भी व्यक्ति दुःख पाता है । जैसे – शराब है, कबाब है और दूसरे हानि पहुँचाने वाले व्यसन आदि । फास्टफूड खा लिया तो आगे चलके बीमारी होगी । खूब नाचे फिर खड़े-खड़े ठंडा पानी पिया तो आगे चलकर पैरों की पिण्डलियाँ दर्द करेंगी । यह काल का दुःख है कि अभी तो कर लिया लेकिन समय पाकर दुःख होगा । अभी तो निन्दा कर ली, सुन ली लेकिन समय पाकर अशांति होगी, दुःख होगा, नरकों में पड़ेंगे, आपस में लड़ेंगे, उपद्रव होगा ।

तीसरा होता है अज्ञानजन्य दुःख । अज्ञान क्या है ? हम जो हैं उसको हम नहीं जानते और हम जो नहीं हैं उसको हम मैं मानते हैं तो

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।

‘अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं ।’ (गीताः 5.15)

कितने बचपन आये, कितनी बार मृत्यु आयी, कितने जन्म आये और गये फिर भी हम हैं…. तो हम नित्य हैं, चैतन्य हैं, शाश्वत हैं, अमर हैं । इस बात को न जानना यह अज्ञान है । इससे उलटा ज्ञान हो गया इसलिए हम जिस शरीर में आये उसी के कर्म और व्यवहार को सच्चा मानने लगे ।

तो कंस से, काल से और अज्ञान से छुटकारा – यह है श्रीकृष्ण-अवतार का उद्देश्य । श्रीकृष्ण कंस को तो मारते हैं, काल से अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और ज्ञान से अज्ञान हरके भक्तों को ब्रह्मज्ञान देते हैं । यह श्रीकृष्ण-अवतार है ।

श्रीकृष्ण-अवतार मतलब तुम्हारे हृदय में भगवदावतार कैसे हो ? यह जन्माष्टमी का पर्व सत्संग के द्वारा तुम्हारे हृदय में श्रीकृष्ण अवतार कराना चाहता है, तुम्हारा कितना सौभाग्य है ! श्रीकृष्ण नाम का अर्थ क्या है ? कर्षति आकर्षति इति कृष्णः । जो कर्षित कर दे, आकर्षित कर दे, आनंदित कर दे उसको कृष्ण बोलते हैं । आप सुख और आनंद से कर्षित होते हैं और जहाँ-जहाँ, जिस-जिस में सुख होता है, उस-उस अवस्था से आप आकर्षित होते हैं और उस-उस परिस्थिति से आप आनंदित होते हैं । श्रीकृष्ण का यह बाह्य अवतार कर्षित-आकर्षित, आनंदित करने वाला है और श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप सत्संग से समझ में आता है । श्रीकृष्ण बंसी बजाते हैं तो सब कर्षित-आकर्षित होते हैं और फिर कुछ लीला करते हैं तो आनंदित होते हैं । ऐसा हो-होके बदल जाता है लेकिन श्रीकृष्ण का तात्त्विक अवतार अर्जुन के अंतःकरण में हुआ तो अर्जुन सदा के लिए पार हो गये । जिस-जिस गोपी के अंतःकरण में श्रीकृष्ण का तात्त्विक अवतरण हुआ, वे सब सदा के लिए पार हो गयीं ।

तो हम कंस में फँसे हैं, काल से फँसे हैं, अज्ञान से फँसे हैं और इनको निवृत्त करने के लिए श्रीकृष्ण अवतार चाहिए ।

‘पातंजल योगदर्शन’ के ‘व्यासभाष्य’ में व्यास जी ने लिखा हैः

नानुपहत्य भूतानि उपभोगः सम्भवतीति ।

‘प्राणियों को हानि पहुँचाये बिना उपभोग कभी संभव नहीं हो सकता ।’ (यो.द.सा.प. – 15)

‘दूसरों का जो होने वाला हो, हो लेकिन मेरे को भोग मिले, यश मिले, पद मिले, सब कुछ मैं-ही-मैं हो जाऊँ’ – इसी वृत्ति का नाम है कंस । यहाँ तक कि ग्वाल-गोपियाँ अपने बच्चों को मक्खन नहीं दे सकते थे, कंस का इतना आतंक था । अपने भोग के लिए, अपनी सत्ता के लिए, अपनी अहंता के लिए कुछ भी करने को तैयार – वह है कंस और सभी के मंगल के लिए, माधुर्य जगाने के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े, उसके लिए जो हमेशा तैयार है – उसका नाम है कृष्ण । ‘बहुजनहिताय-बहुजन सुखाय’ व्यापक जनसमाज के विकास के लिए चाहे नंद बाबा का बेटा बनना पड़े, चाहे वसुदेव का बेटा बनना पड़े, चाहे दशरथनंदन बनना पड़े, चाहे किसी संतरूप में किसी माई का और बाबा का बेटा कहलाना पड़े, चाहे निंदा हो, चाहे आरोप लगें फिर भी लोक-मांगल्य करता है – यह संत अवतरण है ।

तो अब क्या करना है ? अपना उद्देश्य बना लें कि हमारे अंतःकरण में श्रीकृष्ण अवतार हो, भगवदावतार हो, भगवद्ज्ञान का प्रकाश हो, भगवत्सुख का प्रकाश हो तो भगवदाकार वृत्ति पैदा होगी । जैसे घटाकार वृत्ति से घट दिखता है, ऐसे ही भगवदाकार वृत्ति बनेगी, ब्रह्माकार वृत्ति बनेगी तब ब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार होगा । तो भगवद्ज्ञान, भगवत्प्रेम और भगवद्विश्रांति सारे दुःखों को सदा के लिए उखाड़ के रख देगी । इसलिए ब्रह्मज्ञान का सत्संग सुनना चाहिए, उसका निदिध्यासन करके विश्रांति पानी चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 200

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ