अहंकार से रहित हो

अहंकार से रहित हो


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

हर व्यक्ति श्रीकृष्ण का रूप है लेकिन….

आत्मसाक्षात्कार सब अनुभवों के बापों का बाप  है । आत्मानुभव के आगे सारे अनुभव छोटे पड़ जाते हैं । आत्मसाक्षात्कार करने के लिए तटस्थ रहना पड़ता है । जैसे दूसरों में दोष देखते हैं ऐसी ही अपने मन के दोष देखो, मन से मिलो मत । अपने मन-बुद्धि के दोषों को ढँकने की कोशिश मत करो अपितु उन्हें बाहर निकालो और ‘निकालने वाला मैं हूँ’ – ऐसा अहंकार न करो । ईश्वर की कृपा का सहारा लेकर उन्हें निकालोगे तो वे आसानी से निकल जायेंगे, नहीं तो निकालने के बहाने और गहरे उतरेंगे ।

अन्य को तज, ईश्वर को भज । बहिर्मुखता छोड़, भीतर आ । ‘मैं क्या करूँ, क्या न करूँ ?’ यह सब चिंता छोड़, ईश्वर में रह बस । सब ठीक हो जायेगा । ॐकार का लम्बा उच्चारण करो । ‘अ’ और ‘म्’ के बीच निःसंकल्प नारायण में शांत होते जाओ । श्वास अंदर आये तो ‘सोऽऽ‘ और बाहर आये तो ‘हम्‘ – अजपा गायत्री में रहो । ‘मैं वही चैतन्य हूँ – सोऽहम् । इसमें विश्रांति पाओ, अपने आत्मसुख में तृप्त होओ, सुखी होओ ।

सेवा करो तो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए । सर्वव्यापी, सर्वेश्वर की सेवा करते समय अपने अहंकार व वासना को महत्त्व न दो । चालबाजी नहीं, सच्चाई रखो । ईश्वर सत्यस्वरूप है । फिर झूठ क्यों बोलें ? कपट क्यों करें ? सुखी होना स्वाभाविक है, सुख तुम्हारा स्वतः स्वभाव है । रात को कुछ नहीं करते तो सुबह कैसे सुखी हो जाते हो ! विकारों के बिना कैसे सुखी रहते हो, पकड़ने-छोड़ने की इच्छा बिना कितने सुखी होते हो ! व्यक्ति बचपन में सहज स्वभाव होता है तो कितना खुश रहता है किंतु जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, अहंकार और पुष्ट होता है, वासनाएँ उभरती हैं तो बेचारे को खुश रहने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है ! और फिर भी उतना खुश नहीं रह पाता ।

एक आदमी ने श्रीमद्भागवत पर फिल्म बनानी चाही । उसने घुँघराले बालों वाले किसी नन्हें-मुन्हें बालक को श्रीकृष्ण की भूमिका अदा करने के लिए पसंद किया, दूसरे पात्रों के लिए उनके अनुरूप कलाकारों का चयन किया । लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उसकी फिल्म अधूरी रह गयी । कुछ वर्षों बाद उसको आर्थिक मदद मिली और वह पुनः अपनी फिल्म बनाने में लग गया । फिल्म में उसे कंस की पात्र की जरूरत पड़ी । खोजते-खोजते उसने एक व्यक्ति को कंस की भूमिका अदा करने हेतु पसंद किया । जब उसने उस व्यक्ति का नाम व पता जाना तो हैरान होकर बोल पड़ाः “अरे, कैसा आश्चर्य ! यह जब नन्हा बच्चा था तब मैंने इसी को श्रीकृष्ण की भूमिका अदा करने के लिए पसंद किया था । वही बालक आज कंस की भूमिका अदा करने हेतु पसंद किया गया ! इसका रूप ऐसा कैसे हो गया ?”

हर व्यक्ति जन्म लेता है तब श्रीकृष्ण का रूप होता है, लेकिन वासना और अहंकार उसे कंस बना देते हैं । इसको छोड़े तो उसका श्रीकृष्ण रूप प्रकट हो जाता है ।

अहंकाररूपी चुंगी देनी ही पड़ेगी

एक आदमी था जिसको अपना माल लेकर नगर में जाना था लेकिन उसने देखा कि रास्ते में चुंगी नाका आता है । उसको चुंगी नहीं देनी थी, अतः उसने थोड़ी देर इधर-उधर घूम-फिरकर फिर जाने की कोशिश की लेकिन हर समय वह चुंगी नाका चालू ! वह पूरी रात चक्कर लगाता रहा किंतु आखिर उसे चुंगी देनी ही पड़ी ।

ऐसे ही कितना भी धन कमा लो, कितनी भी पद-प्रतिष्ठा और सत्ता पा लो, ऋद्धि-सिद्धि पा लो लेकिन शाश्वत सुख पाने के लिए परमात्म-स्वरूप का ज्ञान पाने के लिए अपना अहं परब्रह्म परमात्मा को चुंगी के रूप में देना ही पड़ता है । फिर चाहे भटक-भटककर दो या सीधे ही दे दो । कई जन्म बीत गये, और फिर भी कितने ही बीत जायें, जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक सब दुःखों का अंत नहीं होगा । सब दुःखों से छुटकारा पाना है तो ब्रह्मज्ञानी गुरु के चुंगी नाके से होकर ही जाना पड़ेगा और अहंकाररूपी चुंगी देनी ही पड़ेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 200

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