भक्तकवि संत पुरंदरदासजी

भक्तकवि संत पुरंदरदासजी


विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय का समकालीन श्रीनिवास नायक नाम का एक सेठ था, जो रत्नों का व्यापार करता था । उसके पास एक ब्राह्मण आया और बोलाः “सेठ जी ! मैंने अपनी कन्या की मँगनी कर दी है लेकिन अब शादी करने के लिए धन की जरूरत है इसीलिए आप जैसे सेठ के पास आया हूँ । आपके सिवाय मेरा कोई सहारा नहीं ।”

सेठः “क्या तेरी कन्या की शादी का हमने ठेका लिया है ! हम एक पैसा भी नहीं देंगे ।”

अब उस ब्राह्मण ने सोचा कि क्या करूँ ? उसने देखा कि सेठ की पत्नी भगवान को मानती है और वह जानती है कि अंत में दुनिया से कुछ नहीं ले जाना है इसलिए सत्कर्म् करना चाहिए । वह ब्राह्मण श्रीनिवास की पत्नी के पास गया ।

बाई ने सोचा कि ‘मैं पति से माँगूगी…. नहीं-नहीं, वे तो देंगे नहीं । बेचारे ब्राह्मण का कार्य कैसे होगा ?’ सेठ श्रीनिवास की पत्नी ने अपनी कीमती नथनी ब्राह्मण को दे दी और बोलीः “इसको गिरवी रख के अपनी कन्या की शादी के लिए सामान ले लेना ।”

ब्राह्मण ने देखा कि ऐसा कीमती नग कौन लेगा ? वह गया श्रीनिवास सेठ के पास और बोलाः “सेठ जी ! यह नथनी आप ले लो और मेरे को पैसा दे दो जितना दे सकते हैं ।”

सेठ ने नथनी देखी और मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘इतना कीमती नग ! इस कंगले ब्राह्मण को किसने दिया होगा ?’ उसने खूब जाँचा-परखा और बोलाः “अरे, ब्राह्मण ! तुम कल आना । कल मैं इस पर तुमको पैसे दूँगा ।”

सेठ ने नथनी को तिजोरी के अंदर के खाने में डाला और उसकी चाबी अपने पास रख ली । फिर तिजोरी का बाहर का ताला भी लगाया और घर गया । पत्नी को बुलाकर पूछाः “तेरी वह कीमती नथनी कहाँ है जो तू कभी-कभी पहनती थी ?”

वह समझ गयी कि ‘अब कुछ बोलूँगी तो मेरी क्या हालत होगी !’ सोचने लगी, क्या करूँ ?’

वह हडबड़ाती हुई बोलीः “अंदर पड़ी है ।”

“अंदर कहाँ पड़ी है ?”

वह समझ गयी कि ‘अब मुझे ये नहीं छोड़ेंगे । पतिदेव इतने कंजूस हैं कि अब उस नग के चक्कर में मेरे ये अंग न जाने कैसे हो जायेंगे ?’

उसने कटोरी में जहर घोल दिया । भगवान के सामने आकर बोली कि माधव ! अब मैं तेरे चरणों में समर्पित होने के लिए यह विष पान करूँगी । दूसरा कोई चारा ही नहीं है माधव ! तुम ही मेरी रक्षा करो । और एक काम करना प्रभु ! मेरे पतिदेव को अपनी भक्ति का दान दे दो । मैं तो तुम्हारे चरणों में समा जाऊँ । क्या करूँ, विष पिये बना छुटकारा नहीं है । जो तुम्हारी मर्जी हो देव !’ आर्तभाव से प्रार्थना और फिर चुप्पी… परमात्मदेव तो व्यापक है, सब जगह पर है, सर्वसमर्थ है । उस परमात्मा की सत्ता ने क्या लीला की ! ज्यों कटोरी नजदीक आती है मुँह के, धड़ाक से उसमें वह नथनी गिर पड़ी !

‘यह क्या हुआ ?’ बाहर निकाला तो वही नथनी ।

‘भगवान ! तू सृष्टिकर्ता है, पालनकर्ता है, संहारकर्ता है यह तो सुना था लेकिन आज तेरी अदभुत लीला मुझे प्रत्यक्ष देखने को मिली !…’ अब उसका हृदय कैसा हुआ होगा, श्रीनिवास की पत्नी ही जाने । अपने प्रेमभरे, धन्यवादभरे आँसू पोंछती जा रही है और भगवान को धन्यवाद देती जा रही हैः ‘जो लोग अपने को अनाथ मानते हैं, असहाय मानते हैं वे बड़ी गलती करते हैं । माधव ! तू सर्व का नाथ, सर्व के सदा साथ है । मुझे भी मालूम नहीं था, मैं तो प्राण अर्पण कर रही थी प्राणनाथ के चरणों में लेकिन तू प्राण बचाना चाहता था । तूने नथनी लाकर कटोरी में डाल दी । मैंने तो प्रार्थना की थी कि मुझे अपने चरणों में रख ले । पतिदेव के द्वारा डाँट-फटकार और क्या-क्या होगा ! लेकिन देव तू !…..’

बस, ऐसा करते-करते वह भाव-समाधि के आनंद में मग्न हो गयी । भले दिल से ईश्वर से एकाकारता करते-करते जो शांति मिलती है, जो आनंद मिलता है, जो माधुर्य मिलता है वह कोई भक्त ही जाने ! शांति से भरा हुआ दिल, धन्यवाद और प्रेमाश्रुओं से भरे हुए नेत्र ! उसने पति को कहाः “लो, यह नथनी पतिदेव !”

“क्या ! यह नथनी…. यह तो तेरी है ! तो मेरे पास आयी वह किसकी है ?”

सेठ तुरंत अपनी दुकान की ओर भागा । दुकान पास में ही थी । तिजोरी का मुख्य दरवाजा खोला । अंदर का चोर दरवाजा खोला । देखा कि नथनी गायब !

‘अरे, इतना छुपा के रखी थी तब भी कैसे पत्नी के पास पहुँच गयी ? मैं कंजूस इस मिथ्या संसार को सत्य मानता हूँ, मरने वाले तन को सत्य मानता हूँ लेकिन तुझ अमर की महिमा को मैं नहीं जानता था । हाय माधव ! हाय प्रभु ! हे दीनदयाल ! भक्तवत्सल !’ श्रीनिवास, सेठ श्रीनिवास नहीं रहा, भगवद्निवास हो गया । उसने ढिंढोरा पिटवा दियाः ‘जिसको जो कुछ चाहिए श्रीनिवास के घर से, दुकान से अपनी आवश्यकताएँ पूरी करो ! ले लो ! ले लो ! ले लो !

इकट्ठा करने में तो जिंदगी पूरी हो जाती है, छोड़ने में क्या देर लगती है ? आप प्राण छोड़ देंगे तो सब छूट जायेगा, यह भी पक्की बात है । श्रीनिवास ने तो छोड़ा, आप नहीं छोड़ोगे ऐसी बात नहीं है, आप भी छोड़ोगे । श्रीनिवास ने भगवान के लिए छोड़ा और दूसरे लोग छोड़ते हैं मजबूरी के कारण । मर गये तो छूट गया ! छोड़े बिना कोई रहेगा ? छूटे बिना रहेगा ? कंगले-से-कंगला आदमी भी कुछ-न-कुछ छोड़ के ही जाता है । सब छूट जाय उससे पहले सब जिसका है उसमें थोड़ा शांत होना सीखें । भगवान के लिए तड़पें अथवा भगवान को अपना मानकर उससे एकाकार हों ।

श्रीनिवास सब कुछ लुटा के साधु बन गये । चार बच्चों एवं पत्नी को लेके संत व्यासरायजी के आश्रम में गये कि ‘महाराज ! आपने जो पाया है, वह आत्म-अमृत हमें भी मिले ।”

श्रीनिवास की भक्ति देखकर गुरु व्यासरायजी ने उनका नाम रख दिया ‘पुरंदर विट्ठल’ । वही श्रीनिवास पुरंदरदास बन गये और भगवान पुंडरीकाक्ष की भक्ति में ऐसे लगे कि उनका जीवन धन्य हो गया ।

पुरन्दरदास जी भिक्षा माँगने जाते थे । झोली में जो भी रूखा-सूखा मिलता वह अकेले नहीं खाते थे । अपने से भी जो गरीब-गुरबे मिलते, उनको बाँटके फिर अपने हिस्से का रखते । कल के लिए संग्रह नहीं करते । उनके चारों पुत्र एवं पत्नी ये सभी भगवान की भक्ति में मग्न रहते थे ।

पुरंदरदासजी की ख्याति दिनों दिन बढ़ने लगी, लोग उनकी भजन-मण्डली में अधिकाधिक संख्या में एकत्र होने लगे । एक ओर जहाँ संत का दर्शन करके, उनका सत्संग-सान्निध्य पाकर आनंदित एवं लाभान्वित होने वाले पुण्यात्मा समाज में होते हैं, वहीं दूसरी और उनका यश देखकर जलने वाले पामर निंदक भी होते हैं । समाज को कुटिल स्वार्थी तत्त्वों से सावधान करने वाले प्रत्येक लोकसंत के साथ आज तक जो होता आया है वही इन लोकसंत के साथ भी हुआ । कुछ अधम लोग उनकी लोकप्रियता देखकर ईर्ष्यावश उन्हें परेशान करने लगे । इससे उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई बल्कि और भी अधिक बढ़ गयी, क्योंकि लोग उनसे, उनकी आध्यात्मिकता से परिचित थे ।

पुरंदरदासजी के भक्तिमय गीत जनता में बहुत प्रसिद्ध हुए और घर-घर गाये जाने  लगे । कुछ लोग उनके गीतों की पूजा उपनिषद् आदि पवित्र गंथों की तरह करने लगे । अब तो हर प्रकार से विफल एवं समाज द्वारा तिरस्कृत हुए धर्मद्रोही कुप्रचारकों के हृदय में ईर्ष्या की ज्वालाएँ भड़क उठी । उन्होंने पंडितों को उकसाया । पंडितों ने पुरंदरदास जी के गीतों के संग्रह उठाकर फेंक दिये । समाज में हाहाकार मच गया । सज्जनों ने संगठित होकर षड्यंत्रकारियों को खूब लताड़ा और पुरंदरदास जी से अश्रुपूरित नेत्रों से प्रार्थना की कि ‘कैसे भी करके आपके ग्रंथ समाज को वापस मिल जाये ।’ पुरंदरदास जी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और वे ग्रंथ भक्तों को वापस मिले । लोगों ने पुरंदरदास जी के ग्रंथों की आदरपूर्वक पूजा की और अपना लिया । वे ही सद्ग्रंथ ‘पुरंदरदासजी की उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध हुए । ये महान लोकसंत अस्सी वर्ष की अवस्था में वि.सं. 1562 में भगवद्धाम पधारे ।

अब तो पुरंदरदासजी के भक्तिगीतों का प्रचार-प्रसार बहुत ही बढ़ गया है परंतु धनभागी तो वे हैं जिन्होंने इन संत की हयाती में ही इनका प्रत्यक्ष सत्संग-सान्निध्य लाभ लिया एवं इनके दैवी कार्य में लगके अपने जीवन को रसमय, आनंद-माधुर्यमय बनाया !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 9-11 अंक 203

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *