ऐसी वाणी बोलिये….

ऐसी वाणी बोलिये….


एक राजकुमार था । वह बड़ा ही घमंडी और उद्दण्ड था । उसके मुँह से जब देखो तब कठोर वचन ही निकलते थे । लोग उसके दुर्व्यवहार से बहुत परेशान थे । राजा उसे बहुत समझाता लेकिन उस पर कुछ असर ही नहीं होता था । विवश होकर राजा एक दिन एक संत के पास गया और उनके चरणों में प्रणाम कर अपनी परेशानी बतायी । संतश्री ने उसे सांत्वना देकर कहाः “घबराओ नहीं, सब ठीक हो जायेगा ।”

कुछ दिन बाद राजकुमार उन्हीं संत के दर्शन करने गया । संत श्री ने कहाः “राजकुमार ! सामने जो पौधा है, उसकी कुछ पत्तियाँ तोड़ कर लाओ ।”

राजकुमार पत्तियाँ तोड़ लाया ।

संत बोलेः “इन्हें खा लो ।”

राजकुमार ने ज्यों ही पत्तियाँ मुँह में डालीं कि कड़वाहट के कारण तुरंत थूक दिया और जाकर उस पौधे को उखाड़ के फेंक दिया ।

संत ने पूछाः “क्यों, क्या हुआ ?”

राजकुमार ने कहाः “उस पौधे की पत्तियाँ बहुत कड़वी हैं । वह किसी काम का नहीं है
इसीलिए मैंने उसे उखाड़ दिया ।”

संत मुस्कराये और बोलेः “राजकुमार ! तुम भी तो लोगों को कड़वे वचन बोलते हो । अगर वे भी तुम्हारे दुर्व्यवहार से क्षुब्ध होकर वहीं करें, जो तुमने इस पौधे के साथ किया तो क्या परिणाम होगा ? देखो बेटा ! मीठी और हितभरी वाणी दूसरों को आनंद, शांति और प्रेम का दान करती है और स्वयं आनंद, शांति और प्रेम को खींचकर लाती है । मुख से ऐसा शब्द कभी मत निकालो जो किसी का दिल दुखाये और अहित करे ।

हर व्यक्ति को स्नेह, प्रेम, सहानुभूति और आदर की आवश्यकता है । अतः किसी के भी साथ अनादर और द्वेषभरा व्यवहार न करके सबके साथ सहानुभूति और नम्रतायूक्त प्रेमभरा व्यवहार करो ।”

राजकुमार को अपनी भूल का अहसास हुआ । संत की सीख मानकर उस दिन से उसने अपना व्यवहार बदल दिया । संत के उपदेश को आचरण में लाकर वह समस्त प्रजाजनों का प्रिय बनकर यश का भागी हुआ ।

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय ।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ।।

कागा काको धन हरै, कोयल काको देत ।

मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनी करि लेत ।।

कुटुम्ब-परिवार में भी वाणी का प्रयोग करते समय यह अवश्य ख्याल में रखा जाय कि मैं जिससे बात करता हूँ वह कोई मशीन नहीं है, रोबोट नहीं है, लोहे का पुतला नहीं है मनुष्य है । उसके पास दिल है । हर दिल को स्नेह, सहानुभूति, प्रेम और आदर की आवश्यकता होती है । अतः अपने से बड़ों के साथ विनययुक्त व्यवहार, बराबरी वालों से प्रेम और छोटों के प्रति दया तथा सहानुभूति-सम्पन्न तुम्हारा व्यवहार जादुई असर करता है ।

जैसे जहाज समुद्र को पार करने के लिए साधन है, वैसे ही सत्य ऊर्ध्वलोक में जाने के लिए सीढ़ी है । व्यर्थ बोलने की अपेक्षा मौन रहना बेहतर है । वाणी की यह प्रथम विशेषता है । सत्य बोलना दूसरी विशेषता । प्रिय बोलना तीसरी विशेषता है । धर्मसम्मत बोलना यह चौथी विशेषता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009,  पृष्ठ संख्या 20 अंक 203

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