संत तुलसीदास जी को मीराबाई ने पत्र लिखा कि ‘घरवाले मेरे
अऩुकूल नहीं हैं, मैं भक्ति नहीं कर पा रही हूँ । क्या करूँ ?’ तुलसीदास
जी ने लिखाः
जा के प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
जो भगवान के रास्ते चलने में अनुकूल नहीं हैं, जिनको परमात्मा
प्यारा नहीं लगता वे चाहे बड़े स्नेही हों, बड़े प्यारे हों, बहुत अपने हों,
अर्धांगिनी हो, अर्धांगा (पति) हो…. तो भी उनको करोड़ों वैरियों के
समान समझकर त्याग दें ।
‘फलाना मेरा इतना प्यारा है कि मेरे लिए जान देने के लिए तैयार
रहता है…’ लेकिन भगवान की तरफ नहीं चलने देता है तो करोड़ों बैरियों
जैसा है । ‘कमा के मेरे को खिलाता है, मेरे पैर दबाता है, आज जो हूँ
इसी के सहारे बना हूँ…’ कमा के खिलाता है तो क्या हुआ ?
भगवत्प्राप्ति के रास्ते चलने नहीं देता तो पैर दबाये या नहीं दबाये,
उसका संग छोड़ दो ।
जिसको भगवान प्यारे नहीं लगते हैं वह कितना भी प्यारा हो,
उसका संग-साथ और उसकी बात को ठुकरा दो ।
मेरा भाई अपने मित्र व्यापारियों को बोलकर आता कि ‘मेरे भाई
को जरा समझाओ ।’ वे नासमझ लोग मेरे को समझाने आते । मैं थोड़ा
बहुत अपना बही-खाते आदि का काम भी करता रहता और उनका सुनता
भी रहता । वे सुना के चले जाते तो मैं बोलताः ‘डर्ररऽऽऽऽ…’ और जोर-
जोर से हँसता ‘हाहाहा…! हाहाहा !!’ तो मेरा भाई चिढ़ता था और बोलताः
“ऐसा क्यों करते हो ?”
मैं कहताः “जिनको ईश्वर मिला नहीं है वे मेरे को सीख देने आये,
उनकी सीख में क्या दम है ! डर्रऽऽऽ…!”
”तुम हो ही ऐसे ।”
“हाँ, हम ऐसे ही हैं ।”
हम ऐसे रहे तो अभी बापू बन गये । अगर उन नासमझ मूढ़ों की
बात मानते तो हम भी वैसे ही हो जाते ।
उस दिन तो सत्संग में जरूर जाओ
जिस दिन आपको घरवाले मना करते हैं कि सत्संग में नहीं जाओ
उस दिन तो जरूर जाओ, नहीं तो मना करने का पाप उनको लगेगा ।
अन्य किसी दिन तुम नहीं जा पाओ तो मत जाओ परंतु जिस दिन
पति, पत्नी या अन्य किसी ने भी मना कर दिया तो उस दिन तो जरूर
जाओ । क्योंकि अपना संबंधी है, उसकी तबाही न हो । ईश्वर के रास्ते
जाने से जो रोकते हैं वे बड़ा अपराध, बड़ा पाप तो करते हैं परंतु उनके
कहने से यदि हम रुक जायें तो उनको और महापाप लगेगा और हम
रुके नहीं तो वे महापाप से बच जायेंगे ।
भावग्राही जनार्दनः । तुम किसी भी भाव से भगवान को भजते हो
तो भी भगवान तो जानते हैं कि मेरा भजन करता है । आप भगवान
को चाहो फिर जो रुकावट आती है उससे बचने की युक्ति भी आ जाती
है, जैसे रास्ते में जाते-जाते कोई काँटा-वाँटा होता है और जूतेवाला पैर है
तो उस काँटे को खदेड़ देते हैं, नहीं तो काँटे से बच के निकल जाते हैं ।
मेरे भाई ने माँ की मति घुमा दी । माँ आयी, आज्ञा देने लगीः
“तुम बोलते हो कि माँ-बाप की आज्ञा माननी चाहिए । मैं आज्ञा करती
हूँ कि भाई के साथ रहो घऱ में, यह कुटिया-वुटिया बनाने की जरूरत
नहीं है, ये ईंटें वापस करो ।”
मैंने कहाः “यह तुम्हारी आज्ञा नहीं है, यह मोह की आज्ञा है ।
तुम्हें किसी ने यह बोला है ।”
अगर मैं उसकी आज्ञा मान को मोक्ष कुटिया बनाना रद्द करता
और खांडवाले भाई के साथ झख मारता तो मेरी तो दुर्गति होती, माँ की
भी सद्गति नहीं होती । तो माँ-बाप को कौन सी आज्ञा मानना और
कौन सी आज्ञा से बच के निकलना यह भी विवेक चाहिए । गुरु की
आज्ञा माननी चाहिए परंतु कोई ऐसा-वैसा गुरु बन के बैठ जाय और
कहेः “बेटा ! ले, सुलफा पी ले । बेटा ! जरा दारु पी ले ।” तो कहना
पड़ेगा कि “गुरु महाराज ! यह आज्ञा पालने की ताकत मेरे में नहीं है ।”
निगरे कितने परेशान होते हैं, बीमारियों में घसीटे जाते हैं उतने
मेरे दीक्षित साधक परेशान या बीमार नहीं होते, यह बात तो पक्की है ।
इसका मुझे संतोष है लेकिन देखादेखी निगुरों की नकल करके फिसलने
वाले फिसलें नहीं, अडिग रहें ।
मेरे भाई ने मेरे को आग्रह किया कि “मामा के बेटे की शादी है ।
एक ही तो मामा है और उसका एक ही बेटा है । और कुछ नहीं केवल
आईसक्रीम खा के आ जाना ।”
मैंने कहाः “मैं नहीं जाऊँगा वहाँ के वातावरण में ।” घर में रहता
था तब भी भक्ति का महत्त्व जानता था ।
“तू इतनी सी बात नहीं मानता है !”
“नहीं मानूँगा यह बात !”
जिस बात से भक्ति में विघ्न पड़े वह बात चाहे भाई की हो, चाहे
बाप की हो, चाहे और किसी की हो, उसके मानना कमजोरी है । भाई
की बात नहीं मानी हमने तो वह थोड़ा नाराज हो गया तो मैं भी नाराज
हो के मंदिर में जाकर बैठा 2-3 घंटे । फिर तो वह एकदम मीठा-मीठा
व्यवहार करने लगा । मैं तो उसकी नस (कमजोरी) जान गया था ।
अपना ईश्वरप्राप्ति का काम बनाना था । एक युक्ति है, यह व्यवहार
और परमार्थ दोनों में काम आती है । कभी दम मार के काम बनाना
पड़ता है कि ‘अगर तुम् सत्संग में नहीं जाने दोगे तो मैं चुपचाप कहीं
चला जाऊँगा, साधु बन जाऊँगा, कभी दिखूँगा नहीं,..’ और कभी आद्य
शंकराचार्य जैसे माया रच के युक्ति से भी काम बनाना पड़ता है ।
शंकराचार्य बालक थे तब एक बार नदी में स्नान करते समय मगर
ने उनका पैर पकड़ लिया । उन्होंने पुकार लगायीः “माँ ! माँ !!”
माता बोलीः “बेटा ! बेटा !! बेटा…! तू बच जा ।”
‘माँ ! मेरे को आतुर-संन्यास लेने की आज्ञा दे दोगी तो मगर छोड़
देगा ।”
“हाँ बेटा ! हीँ बेटा !! तू संन्यासी हो जा ।”
तो कभी युक्ति से काम बनाना पड़ता है और कहीं दम मार के भी
काम बनाना पड़ता है ।
श्रीकृष्ण बोलते हैं-
अभयं सत्त्वसंशुद्धिः… निर्भय रहो ।
गुरुवाणी में भी आता हैः
निरभउ जपै सगल भउ मिटै ।।
ईश्वर के रास्ते से कोई रोके तो उसकी बात ‘डर्रऽऽऽ…’ करके उड़ा
दो । ‘मैं तो आना चाहता हूँ किन्तु धर्मपत्नी छोड़ती नहीं है ।’
डर्रऽऽऽ…’
‘मैं तो आना चाहती हूँ परंतु पतिदेव नहीं मानते ।’ पतिदेव ? वह
काहे का पतिदेव ! देव होता तो देवत्व की बात करता । उसमें देवत्व
होता परमात्मदेव की तरफ जाने से रोकता ?
जा के प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
परम स्नेही है लेकिन करोड़ो वैरियों के समान है क्योंकि ईश्वर का
रास्ते जाने से रोकता है ।
भगवान ऋषभदेव ने अपने भरत बेटे को और दूसरे बेटों को कहाः
“पिता का कर्तव्य है कि अपने पुत्र-पुत्रियों को विवेक देवे, वैराग्य देवे,
संसार की आसक्ति से ऊपर उठा के ईश्वर के रास्ते लगाये । अगर नहीं
लगाता है तो वह पिता पिता नहीं है । पिता न स स्यात्… । माँ का
भी यही कर्तव्य है । यदि माँ ईश्वर के रास्ते नहीं लगाती तो वह माँ माँ
नहीं है । जननी न सा स्यात्… । स्वजनो न स स्यात्… मामा है, चाचा
है, काका है – कोई भी हो, वह स्वजन स्वजन नहीं है जो अपने प्रिय
संबंधी को संयम और भक्ति का मार्ग दिखाकर मुक्ति के रास्ते न ले
जाय । देवता भी अगर ईश्वर के रास्ते जाने में विघ्न डालता है तो दैवं
न तत्स्यात्… वह देव देव नहीं है । गुरु भी अगर ईश्वर के रास्ते जाने
से रोकते हैं तो गुरुर्न स स्यात्… वह गुरु गुरु नहीं है ।”
जिस-किसी के आगे मत गिड़गिड़ाओ, जिस किसी के आगे खुशामद
मत करो । अरे ! एक साधे सब सधे….।
एक अंतरात्मा द्रष्टा को साध लो । साक्षी चैतन्य अंतर्यामी, जो
अपना है, उसको अपना मान के लग जाओ बस !
कबिरा इह जग आय के, बहुत से कीन्हे मीत ।
जिन दिल बाँधा एक से, वो सोये निश्चिंत ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 4,5,7 अंक 356
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