Monthly Archives: August 2022

यदि ईश्वर के रास्ते जाने से कोई रोके तो… – पूज्य बापू जी



संत तुलसीदास जी को मीराबाई ने पत्र लिखा कि ‘घरवाले मेरे
अऩुकूल नहीं हैं, मैं भक्ति नहीं कर पा रही हूँ । क्या करूँ ?’ तुलसीदास
जी ने लिखाः
जा के प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
जो भगवान के रास्ते चलने में अनुकूल नहीं हैं, जिनको परमात्मा
प्यारा नहीं लगता वे चाहे बड़े स्नेही हों, बड़े प्यारे हों, बहुत अपने हों,
अर्धांगिनी हो, अर्धांगा (पति) हो…. तो भी उनको करोड़ों वैरियों के
समान समझकर त्याग दें ।
‘फलाना मेरा इतना प्यारा है कि मेरे लिए जान देने के लिए तैयार
रहता है…’ लेकिन भगवान की तरफ नहीं चलने देता है तो करोड़ों बैरियों
जैसा है । ‘कमा के मेरे को खिलाता है, मेरे पैर दबाता है, आज जो हूँ
इसी के सहारे बना हूँ…’ कमा के खिलाता है तो क्या हुआ ?
भगवत्प्राप्ति के रास्ते चलने नहीं देता तो पैर दबाये या नहीं दबाये,
उसका संग छोड़ दो ।
जिसको भगवान प्यारे नहीं लगते हैं वह कितना भी प्यारा हो,
उसका संग-साथ और उसकी बात को ठुकरा दो ।
मेरा भाई अपने मित्र व्यापारियों को बोलकर आता कि ‘मेरे भाई
को जरा समझाओ ।’ वे नासमझ लोग मेरे को समझाने आते । मैं थोड़ा
बहुत अपना बही-खाते आदि का काम भी करता रहता और उनका सुनता
भी रहता । वे सुना के चले जाते तो मैं बोलताः ‘डर्ररऽऽऽऽ…’ और जोर-
जोर से हँसता ‘हाहाहा…! हाहाहा !!’ तो मेरा भाई चिढ़ता था और बोलताः
“ऐसा क्यों करते हो ?”

मैं कहताः “जिनको ईश्वर मिला नहीं है वे मेरे को सीख देने आये,
उनकी सीख में क्या दम है ! डर्रऽऽऽ…!”
”तुम हो ही ऐसे ।”
“हाँ, हम ऐसे ही हैं ।”
हम ऐसे रहे तो अभी बापू बन गये । अगर उन नासमझ मूढ़ों की
बात मानते तो हम भी वैसे ही हो जाते ।
उस दिन तो सत्संग में जरूर जाओ
जिस दिन आपको घरवाले मना करते हैं कि सत्संग में नहीं जाओ
उस दिन तो जरूर जाओ, नहीं तो मना करने का पाप उनको लगेगा ।
अन्य किसी दिन तुम नहीं जा पाओ तो मत जाओ परंतु जिस दिन
पति, पत्नी या अन्य किसी ने भी मना कर दिया तो उस दिन तो जरूर
जाओ । क्योंकि अपना संबंधी है, उसकी तबाही न हो । ईश्वर के रास्ते
जाने से जो रोकते हैं वे बड़ा अपराध, बड़ा पाप तो करते हैं परंतु उनके
कहने से यदि हम रुक जायें तो उनको और महापाप लगेगा और हम
रुके नहीं तो वे महापाप से बच जायेंगे ।
भावग्राही जनार्दनः । तुम किसी भी भाव से भगवान को भजते हो
तो भी भगवान तो जानते हैं कि मेरा भजन करता है । आप भगवान
को चाहो फिर जो रुकावट आती है उससे बचने की युक्ति भी आ जाती
है, जैसे रास्ते में जाते-जाते कोई काँटा-वाँटा होता है और जूतेवाला पैर है
तो उस काँटे को खदेड़ देते हैं, नहीं तो काँटे से बच के निकल जाते हैं ।
मेरे भाई ने माँ की मति घुमा दी । माँ आयी, आज्ञा देने लगीः
“तुम बोलते हो कि माँ-बाप की आज्ञा माननी चाहिए । मैं आज्ञा करती
हूँ कि भाई के साथ रहो घऱ में, यह कुटिया-वुटिया बनाने की जरूरत
नहीं है, ये ईंटें वापस करो ।”

मैंने कहाः “यह तुम्हारी आज्ञा नहीं है, यह मोह की आज्ञा है ।
तुम्हें किसी ने यह बोला है ।”
अगर मैं उसकी आज्ञा मान को मोक्ष कुटिया बनाना रद्द करता
और खांडवाले भाई के साथ झख मारता तो मेरी तो दुर्गति होती, माँ की
भी सद्गति नहीं होती । तो माँ-बाप को कौन सी आज्ञा मानना और
कौन सी आज्ञा से बच के निकलना यह भी विवेक चाहिए । गुरु की
आज्ञा माननी चाहिए परंतु कोई ऐसा-वैसा गुरु बन के बैठ जाय और
कहेः “बेटा ! ले, सुलफा पी ले । बेटा ! जरा दारु पी ले ।” तो कहना
पड़ेगा कि “गुरु महाराज ! यह आज्ञा पालने की ताकत मेरे में नहीं है ।”
निगरे कितने परेशान होते हैं, बीमारियों में घसीटे जाते हैं उतने
मेरे दीक्षित साधक परेशान या बीमार नहीं होते, यह बात तो पक्की है ।
इसका मुझे संतोष है लेकिन देखादेखी निगुरों की नकल करके फिसलने
वाले फिसलें नहीं, अडिग रहें ।
मेरे भाई ने मेरे को आग्रह किया कि “मामा के बेटे की शादी है ।
एक ही तो मामा है और उसका एक ही बेटा है । और कुछ नहीं केवल
आईसक्रीम खा के आ जाना ।”
मैंने कहाः “मैं नहीं जाऊँगा वहाँ के वातावरण में ।” घर में रहता
था तब भी भक्ति का महत्त्व जानता था ।
“तू इतनी सी बात नहीं मानता है !”
“नहीं मानूँगा यह बात !”
जिस बात से भक्ति में विघ्न पड़े वह बात चाहे भाई की हो, चाहे
बाप की हो, चाहे और किसी की हो, उसके मानना कमजोरी है । भाई
की बात नहीं मानी हमने तो वह थोड़ा नाराज हो गया तो मैं भी नाराज
हो के मंदिर में जाकर बैठा 2-3 घंटे । फिर तो वह एकदम मीठा-मीठा

व्यवहार करने लगा । मैं तो उसकी नस (कमजोरी) जान गया था ।
अपना ईश्वरप्राप्ति का काम बनाना था । एक युक्ति है, यह व्यवहार
और परमार्थ दोनों में काम आती है । कभी दम मार के काम बनाना
पड़ता है कि ‘अगर तुम् सत्संग में नहीं जाने दोगे तो मैं चुपचाप कहीं
चला जाऊँगा, साधु बन जाऊँगा, कभी दिखूँगा नहीं,..’ और कभी आद्य
शंकराचार्य जैसे माया रच के युक्ति से भी काम बनाना पड़ता है ।
शंकराचार्य बालक थे तब एक बार नदी में स्नान करते समय मगर
ने उनका पैर पकड़ लिया । उन्होंने पुकार लगायीः “माँ ! माँ !!”
माता बोलीः “बेटा ! बेटा !! बेटा…! तू बच जा ।”
‘माँ ! मेरे को आतुर-संन्यास लेने की आज्ञा दे दोगी तो मगर छोड़
देगा ।”
“हाँ बेटा ! हीँ बेटा !! तू संन्यासी हो जा ।”
तो कभी युक्ति से काम बनाना पड़ता है और कहीं दम मार के भी
काम बनाना पड़ता है ।
श्रीकृष्ण बोलते हैं-
अभयं सत्त्वसंशुद्धिः… निर्भय रहो ।
गुरुवाणी में भी आता हैः
निरभउ जपै सगल भउ मिटै ।।
ईश्वर के रास्ते से कोई रोके तो उसकी बात ‘डर्रऽऽऽ…’ करके उड़ा
दो । ‘मैं तो आना चाहता हूँ किन्तु धर्मपत्नी छोड़ती नहीं है ।’
डर्रऽऽऽ…’
‘मैं तो आना चाहती हूँ परंतु पतिदेव नहीं मानते ।’ पतिदेव ? वह
काहे का पतिदेव ! देव होता तो देवत्व की बात करता । उसमें देवत्व
होता परमात्मदेव की तरफ जाने से रोकता ?

जा के प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
परम स्नेही है लेकिन करोड़ो वैरियों के समान है क्योंकि ईश्वर का
रास्ते जाने से रोकता है ।
भगवान ऋषभदेव ने अपने भरत बेटे को और दूसरे बेटों को कहाः
“पिता का कर्तव्य है कि अपने पुत्र-पुत्रियों को विवेक देवे, वैराग्य देवे,
संसार की आसक्ति से ऊपर उठा के ईश्वर के रास्ते लगाये । अगर नहीं
लगाता है तो वह पिता पिता नहीं है । पिता न स स्यात्… । माँ का
भी यही कर्तव्य है । यदि माँ ईश्वर के रास्ते नहीं लगाती तो वह माँ माँ
नहीं है । जननी न सा स्यात्… । स्वजनो न स स्यात्… मामा है, चाचा
है, काका है – कोई भी हो, वह स्वजन स्वजन नहीं है जो अपने प्रिय
संबंधी को संयम और भक्ति का मार्ग दिखाकर मुक्ति के रास्ते न ले
जाय । देवता भी अगर ईश्वर के रास्ते जाने में विघ्न डालता है तो दैवं
न तत्स्यात्… वह देव देव नहीं है । गुरु भी अगर ईश्वर के रास्ते जाने
से रोकते हैं तो गुरुर्न स स्यात्… वह गुरु गुरु नहीं है ।”
जिस-किसी के आगे मत गिड़गिड़ाओ, जिस किसी के आगे खुशामद
मत करो । अरे ! एक साधे सब सधे….।
एक अंतरात्मा द्रष्टा को साध लो । साक्षी चैतन्य अंतर्यामी, जो
अपना है, उसको अपना मान के लग जाओ बस !
कबिरा इह जग आय के, बहुत से कीन्हे मीत ।
जिन दिल बाँधा एक से, वो सोये निश्चिंत ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 4,5,7 अंक 356
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

साधन अनेक, अंतिम स्वरूप एक



साधन दो प्रकार के होते हैं । एक वह जिसके द्वारा हम अपने
लक्ष्य को पहचानते या प्राप्त होता है या लक्षित होता है अर्थात् लक्ष्य
का शोधन । अंतःकरण परमात्मा की प्राप्ति का साधन है । अतः उसको
शुद्ध करने के लिए जो कुछ किया जाता है उसको बहिरंग साधन कहते
हैं । जैसे बंदूक से लक्ष्य पर गोली चलाना हो तो बंदूक की सफाई यह
करण की शुद्धि है और लक्ष्य को ठीक-ठीक देख लेना यह लक्ष्य की
शुद्धि है । करण की शुद्धि बहिरंग है और लक्ष्य की शुद्धि अंतरंग है
। परमात्मप्राप्ति के लिए क्रमशः विवेक-वैराग्य तथा श्रवण-मनन आदि
बहिरंग-अंतरंग होते हैं ।
अब विवेक कीजिये ! आपको अपने ही ज्ञान से जो अपना स्वरूप
न मालूम पड़े उसकी ओर से मन को हटा लीजिये । आपकी दृष्टि से
जो अनित्य है, जड़ है, दुःखरूप है उसमें मन लगाने की प्रवृत्ति को
रोकिये । आप स्वयं तो रहेंगे ही । बस, शांति है !
इस आत्मा और अनात्मा के विवेक से अर्थात् पृथक्ककरण से
आत्मा के प्रति उपरामता का उदय होगा । विवेक से स्वरूप-स्थिति भी
शांति है और वैराग्य यानि राग-द्वेष की निवृत्ति भी शांति ही है । अतः
विवेक और वैराग्य के फल में किसी प्रकार का अंतर नहीं है । हाँ, यह
अवश्य है कि पहले विवेक होगा, पीछे वैराग्य । दोनों साथ-साथ भी हो
सकते हैं । परंतु ये दोनों दो नहीं हैं, फलस्वरूप से शांति ही है ।
आप यह मत सोचिये कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा सत्य
के साक्षात्कार के लिए बहुत से साधन करने पड़ते हैं अथवा बड़े कठिन-
कठिन साधन करने पड़ते हैं । गम्भीरता से अनुभव कीजिये – मन में
काम-क्रोध का न आना शम है, वह शांति ही है, इन्द्रियों का चंचल न

होना दम है, वह भी तो शांति ही है, कर्म-विक्षेप की निवृत्ति उपरति है,
वह भी शांति ही है, दुःख-विक्षेप की शांति तितिक्षा है । अभिमान-विक्षेप
की शांति श्रद्धा है । अपने संकल्पों या विचारों को समेट लेने का नाम
समाधान है । इनके नाम अलग-अलग हैं परंतु इनका स्वरूप शांति ही है
। इसलिए साधक बहुत-से नाम सुनकर घबराना नहीं चाहिए । निराश
मत हो, उदास मत हो, यह तो सब एक ही निःसंकल्प जाग्रत के नाम हैं
। इनमें एक ही वस्तु है, केवल शांति, शांति, शांति ! यह शांति की दशा
जब निरंतर नहीं रहती और यह निश्चय हो जाता है कि ‘चित्त सदा एक
स्थिति में नहीं रह पाता, नहीं रह सकता’, तब चित्त से ही मुक्त होने
की तीव्र आकांक्षा जागृत होती है – आने जाने वाले विनश्वर पदार्थों से
मुक्त होकर अपने परमानंद, अद्वितीय स्वरूप के अनुभव की इच्छा
अर्थात् मुमुक्षा ।
साधनों का अंतिम स्वरूप
हाँ, तो अब यह विचार कीजिये कि जब सब साधनों का अंतिम
स्वरूप शांति ही है तो उनके नाम अनेक क्यों हैं ? अनेक इसलिए हैं कि
शांति एक होने पर भी उसके कार्य पृथक-पृथक हैं । काम-क्रोध को
मिटाने वाली शांति इत्यादि । अतः बहिरंग साधन इतना सुगम, इतना
सरल है कि थोड़ी-सी सावधानता आपको इससे सम्पन्न बना देगी और
आप सद्गुण के पास पहुँचकर अंतरंग साधन श्रवण-मनन आदि के
योग्य हो जायेंगे ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 22,25 अंक 356
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

…वे देर-सवेर परमात्म-साक्षात्कार तक पहुँच जाते हैं – पूज्य बापूजी



ध्यान लगाना अच्छा है लेकिन विकारों से बचना उससे भी अच्छा
है और विक्षेपरहित स्थिति में टिके रहना… ओहो ! यह तो सर्वोपरि है ।
आकर्षण के समय आकर्षणरहित होना उसका एक ही उपाय है कि
जो आकर्षणरहित सत्तास्वरूप परमात्मा है उससे प्रीति, उसमें स्थिति हो
जाय ।
आकर्षण के समय आकर्षण रहित होना, इसका एक ही उपाय है
कि जो आकर्षणरहित सत्तास्वरूप परमात्मा है उससे प्रीति, उसमें स्थिति
हो जाय ।
लाख उपाय कर ले प्यारे ! कदे (कभी) न मिलसी यार ।
बेखुद हो जा देख तमाशा, आपे खुद दिलदार ।।
अपने इस देह के अहं को छोड़कर परमात्म-अहं में शांत होता
जायेगा तो फिर दिलदार की शांति, मस्ती और मति की ऊँचाई आ
जायेगी । मति दुर्बल होती है तो मन उसे खींच लेता है और मन को
इन्द्रियाँ खींच लेती हैं और इन्द्रियाँ विषय-विकारों में गिरा देती हैं । मति
बार-बार परमात्म-स्मरण और ध्यान में रहती है तो मति पुष्ट रहती है,
मन सात्त्विक बनता है, इन्द्रियों के धोखे में नहीं आता । फिर भी कभी
गिरता है, उठता है, फिर गिरता है, फिर उठता है, जैसे बच्चा चलते-
चलते कई बार गिरता है फिर दौड़ भी लगा लेता है और दौड़ में,
प्रतियोगिता में इनाम भी पा लेता है । जो अभी प्रतियोगिता में दौड़ के
इनाम पा रहे हैं, वे बचपन में चलते समय कई बार गिरे होंगे । ऐसे ही
ईश्वर का रास्ता है – चलते हैं, फिसलते हैं, चलते हैं, फिसलते हैं । ऐसा
कोई माई का लाल नहीं रहा होगा कि चल पड़ा हो और फिसला न हो ।

फिसलाहट तो आती है परंतु फिसलकर जो निराश हो जाते हैं वे अपना
गला घोंटते हैं, जो फिसलकर फिसलते ही रहते हैं व अपनी तबाही करते
हैं परंतु जो फिसलने पर प्रभु का आश्रय लेते हैं, सत्संग का, नियम और
व्रत का आश्रय लेते हैं वे धनभागी देर-सवेर परमात्म-साक्षात्कार तक
पहुँच जाते हैं ।
जो फरियाद करते रहते हैं वे बेचारे उलझ जाते हैं ।
चलती चक्की देख के दिया कबिरा रोय ।
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय ।।
तो राग-द्वेष, सुख-दुःख, जड़-चेतन के दो पाटों में सारे जीव पिसे
जा रहे है । कोई विरले हैं जो अपने चेतन में टिक जाते हैं ।
चक्की चले तो चालन दे, तू काहे को रोय ।
लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय ।।
तू अपनी परमात्म-सत्ता से लगा रह भैया ! बहन ! तू लगी रह बेटी
परमात्म-सत्ता से । फिसले तो फिर लग, फिसले तो फिर लग… फिर
लग…। जैसे बच्चा चलता है, गिरता है, फिर चलता है, गिरता है, चलने
की गाड़ी ले के चलता है त भी गिरता है, फिर भी चलना नहीं छोड़ता है
त वह कालांतर में दौड़ता है । आप भी ऐसा ही करके आये हो ।… तो
अभी हिम्मत क्यों हारना ?
हे परमात्मा के सपूतो ! तुम हिम्मत मत हारना, निराश मत होना
। अगर कभी असफल भी हुए तो हताश मत होना । वरन् पुनः प्रयास
करना, ऋषियों द्वारा वर्णित प्राणाय़ाम, ध्यान आदि की विधि को
सीखकर अपना मनोबल, प्राणबल बढ़ाना । फिर तुम जो चाहोगे वह कर
सकने में समर्थ हो जाओगे । तुम्हारे लिए असम्भव कुछ भी नहीं होगा
। ॐ…ॐ…ॐ…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 20 अंक 356
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ