आत्मशांति सौंदर्य से बड़ी है, आत्मशांति संसारी दुःखों से बड़ी है, स्वर्ग से, अष्टसिद्धियों-नवनिधियों से भी बड़ी है, आत्मशांति हमारा स्वभाव है ।
मन में काम आया, आप कामी हुए, अशांत हुए, काम चला गया, आप शांत हो गये । मन में क्रोध आया, आप अशांत हुए, थक गये, क्रोध चला गया, आप शांत हुए, सोये तो थकान मिटी । मन में भय आया, आप भयभीत हुए, अशांत हुए, भय चला गया, आप शांत हो गये । मन में मोह आया, आप चिंतित हुए, अशांत हुए, मोह चला गया, आप निश्चिंत हुए, शांत हुए ।
आत्मशांति जीवन की माँग है, यह जीवात्मा का स्वाभाविक स्वरूप है । जिसके पास धन है और चित्त में शांति नहीं वह कंगाल है । जिसके पास सत्ता है और चित्त में शांति नहीं है तो क्या खाक है सत्ता !
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिं…. (गीताः 4.39)
स्व के ज्ञान (आत्मज्ञान) से परम शांति की प्राप्ति होती है । शिक्षा का ज्ञान अलग है, ‘स्व’ का ज्ञान अलग है । ऐहिक शिक्षा का ज्ञान पेट भरने के काम आता है, उसकी जरूरत है पर आत्मिक ज्ञान की उससे भी ज्यादा जरूरत है । ऐहिक ज्ञान हिटलर के पास था लेकिन आत्मशांति नहीं थी तो खुद भी दुःखी था और दूसरों को भी दुःख के, मौत के घाट उतारता था । ऐहिक ज्ञान भी और स्व को आनंदित करने का, शांत रखने का, समाधिस्थ करने का ज्ञान भी है । राम जी में ऐहिक ज्ञान भी है, स्व को शांत करने का सामर्थ्य भी है । पूर्ण जीवन उन्हीं का होता है जो आत्मशांति पाना जानते हैं । कार्य करने के पहले शांति होती है, कार्य करने के बाद भी शांति होती है तो कार्य ऐसे ढंग से करो कि जब चाहो तब परम शांति का स्वाद ले सको । जब वासना के अधीन होकर कर्म करते हैं तो भय, अशांति, उद्वेग, चिंता आदि आपकी शक्तियों को क्षीण कर देते हैं । जब वासना को छोड़कर कर्तव्य समझ के कर्म करते हैं और फल की आकांक्षा नहीं करते तो आपको शांति, सामर्थ्य, प्रसन्नता, निश्चिंतता आदि सद्गुण आ प्राप्त होते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 5, अंक 341
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