Monthly Archives: May 2021

जीवन की माँग की पूर्ति किससे ? – पूज्य बापू जी


आत्मशांति सौंदर्य से बड़ी है, आत्मशांति संसारी दुःखों से बड़ी है, स्वर्ग से, अष्टसिद्धियों-नवनिधियों से भी बड़ी है, आत्मशांति हमारा स्वभाव है ।

मन में काम आया, आप कामी हुए, अशांत हुए, काम चला गया, आप शांत हो गये । मन में क्रोध आया, आप अशांत हुए, थक गये, क्रोध चला गया, आप शांत हुए, सोये तो थकान मिटी । मन में भय आया, आप भयभीत हुए, अशांत हुए, भय चला गया, आप शांत हो गये । मन में मोह आया, आप चिंतित हुए, अशांत हुए, मोह चला गया, आप निश्चिंत हुए, शांत हुए ।

आत्मशांति जीवन की माँग है, यह जीवात्मा का स्वाभाविक स्वरूप है । जिसके पास धन है और चित्त में शांति नहीं वह कंगाल है । जिसके पास सत्ता है और चित्त में शांति नहीं है तो क्या खाक है सत्ता !

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिं…. (गीताः 4.39)

स्व के ज्ञान (आत्मज्ञान) से परम शांति की प्राप्ति होती है । शिक्षा का ज्ञान अलग है, ‘स्व’ का ज्ञान अलग है । ऐहिक शिक्षा का ज्ञान पेट भरने के काम आता है, उसकी जरूरत है पर आत्मिक ज्ञान की उससे भी ज्यादा जरूरत है । ऐहिक ज्ञान हिटलर के पास था लेकिन आत्मशांति नहीं थी तो खुद भी दुःखी था और दूसरों को भी दुःख के, मौत के घाट उतारता था । ऐहिक ज्ञान भी और स्व को आनंदित करने का, शांत रखने का, समाधिस्थ करने का ज्ञान भी है । राम जी में ऐहिक ज्ञान भी है, स्व को शांत करने का सामर्थ्य भी है । पूर्ण जीवन उन्हीं का होता है जो आत्मशांति पाना जानते हैं । कार्य करने के पहले शांति होती है, कार्य करने के बाद भी शांति होती है तो कार्य ऐसे ढंग से करो कि जब चाहो तब परम शांति का स्वाद ले सको । जब वासना के अधीन होकर कर्म करते हैं तो भय, अशांति, उद्वेग, चिंता आदि आपकी शक्तियों को क्षीण कर देते हैं । जब वासना को छोड़कर कर्तव्य समझ के कर्म करते हैं और फल की आकांक्षा नहीं करते तो आपको शांति, सामर्थ्य, प्रसन्नता, निश्चिंतता आदि सद्गुण आ प्राप्त होते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 5, अंक 341

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सेवा-अमृत


(पूज्य बाप जी के सत्संग से संकलित)

भलाई करके ईश्वर को अर्पण करोगे तो ईश्वरप्रीति मिलेगी, ईश्वरप्रीति मिलेगी तो बुद्धि ईश्वर-विषयिणी हो जायेगी ।

जितना हो सके भलाई करो, किसी भी प्रकार से बुराई न करो तो ईश्वर को प्रकट होना ही है ।

जो जबरन परोपकार करता है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट नहीं होता, जो समझकर परोपकार करता है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट होता है ।

तटस्थ विचारों के अभाव के कारण व्यक्ति कर्मों के जाल में बँधता है ।

गुरुसेवा सब तपों का तप है, सब जपों का जप है, सब ज्ञानों का ज्ञान है ।

ईमानादारी से जो गुरुसेवा करते हैं उनमें गुरुतत्त्व का बल, बुद्धि, प्रसन्नता आ जाते हैं ।

गुरुसेवा से दुर्मति दूर होती है ।

देश के लिए,  विश्व के लिए मानव-जाति के लिए वे लोग बहुत बड़ा काम करते हैं, बहुत उत्तम काम करते हैं जो संत और समाज के बीच मे सेतु बनने की कोशिस करते हैं और वे लोग बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं जो संतों और समाज के बीच में अश्रद्धा की खाई खोद रहे हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 341

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

शास्त्रानुकूल आचरण का फल क्या ? – पूज्य बापू जी


शास्त्रानुकूल आचरण, धर्म-अनुष्ठान का फल यह है कि ससांर से उबान आ जाय, वैराग्य आ जाय । अगर वैराग्य नहीं आता तो जीवन में धर्म नहीं किया तुमने, शास्त्रों का पूरा अर्थ नहीं समझा । सत्संग का, शास्त्र अध्ययन का, धर्म का फल यही हैः

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ।। (श्रीरामचरित. अर. कां. 15.1)

धर्म का अनुष्ठान (धर्म का आचरण) करने से विरक्ति और योग का अनुष्ठान करने से ज्ञान होता है । ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, निर्वाण हो जाता है । जैसे दीया निर्वाण हो जाता है, बुझ जाता है ऐसे ही ज्ञान से जन्म-मरण की परम्परा टूट जाती है, खत्म हो जाती है, तभी तो उसने मनुष्य जन्म का फल पाया, नहीं तो मजूरी कीः ‘हईशो-हईशो-हईशो….।’ खिला-पिला के शरीर बनाया, उसको भी जला दिया । क्या किया ?

मृत्यु आकर अपने को संसार से ले जाय उसके पहले अपने ढंग से ही भगवान की तरफ चल लेना ठीक है । मौत आकर घसीट के मकान से बाहर निकाल दे उसके पहले मकान की ममता छोड़ दी जाय । शरीर मुर्दा बन जाय और कुटुम्बी या साधक लोग चीजें दूसरों का बाँटें उसके पहले अपने हाथ से क्यों न बाँट देना ? ईश्वर के सिवाय किसी भी वस्तु, व्यक्ति, अवस्था में मन लगाना यह अपने से धोखा करना है । धर्म तें बिरति….

कितने धार्मिक हैं हम ?

हमारे हृदय में धर्म हुआ है कि नहीं ? धर्म होगा तो वैराग्य भड़केगा । जितना धर्म का रंग गाढ़ा होगा, उतनी वैराग्य की खुमारी अधिक रहेगी और जितना पापाचरण होगा उतनी विषय भोगने में रुचि रहेगी । फिर देखेगा नहीं कि मैं कौन-सी चीज का उपभोग कर रहा हूँ, क्या कर रहा हूँ । वासना व्यक्ति को अंधा कर देती है । वासना अंधा करे उसके पहले ज्ञान की आँख खुल जाय । मौत मार दे उसके पहले अमरता का रस आ जाय । कुटुम्बी घर से बाहर निकालें अर्थी पर, उसके पहले ही हम अपने मन को ही कुटुम्ब स बाहर निकाल के परमात्मा में लगा दें । ॐॐॐ…

वे लोग स्वयं से ही धोखा करते हैं

ईश्वर के रास्ते चलने वालों को जो भोगों में गिराते हैं, संसार में आकर्षित करते हैं वे लोग बहुत पाप कमाते हैं । जो लोग भोग-वासना के संकल्प करते हैं, भोग की तृप्ति चाहते हैं, ईश्वर के मार्ग पर जाने वाले व्यक्तियों से संसार का उल्लू सीधा कराना चाहते हैं, वे लोग अपने-आपसे धोखा करते हैं । किसी का वस्त्र या धन छीन लेना इतना पाप नहीं है, किसी की दुकान या मकान छीन लेना इतना पाप नहीं है जितना पाप भगवान का रास्ता छीन लेने से होता है । किसी साधक का या किसी संत का समय छीन लेने से बहुत पाप  होता है । संत तो क्षमाशील होते हैं, वे तो कुछ नहीं करेंगे लेकिन संत का समय लेने वाले लोग अगर ईश्वर के रास्ते नहीं चले तो उन्हें बहुत बदला चुकाना पड़ेगा । ईश्वर के रास्ते चलने के नाते अगर संत का समय लिया तो ठीक है किंतु यदि नहीं चले और संत का समय व्यर्थ में नष्ट किया तो उसका बदला चुकाना पड़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 4 अंक 341

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ