दुःखों की कमी नहीं फिर भी दुःखी नहीं ! – पूज्य बापू जी

दुःखों की कमी नहीं फिर भी दुःखी नहीं ! – पूज्य बापू जी


(श्री कृष्ण जन्माष्टमीः 28 अगस्त 2013)

श्रीकृष्ण के जीवन में आध्यात्मिक उन्नति व वैदिक ज्ञान ऐसा था कि नास्तिक लोग भी उनको योगिराज, नीतिज्ञशिरोमणि, उच्च दार्शनिक मानते थे। मुसलमानों में भी रसखान, ताज बेगम, रेहाना तैयय्यब और रहीम खानखाना आदि लोगों ने श्री कृष्ण की भक्ति और प्रशंसा करके अपना जीवन धन्य किया।

श्रीकृष्ण संघर्षों का तगड़ा अनुभव करते हुए संघर्षों के बीच कैसे मुस्कराते रहे, यह उनकी लीलाओं और जीवन-संदेश में है। श्रीकृष्ण के आने के निमित्त माँ-बाप को कारावास मिला, उनके छः भाई मारे गये और स्वयं श्री कृष्ण जन्में हैं कारागृह में ! जन्मते ही पराये घर लिवाये गये। श्रीकृष्ण अष्टमी को प्रकटे हैं और चौदस को पूतना जहर भरकर आयी। जहरमिश्रित दूध पीना पड़ा। दो महीने के हुए तो शकटासुर आ गया, कभी धेनुकासुर आया, कभी बकासुर आया और कृष्ण को निगल गया। गायें चरानी पड़ीं, नृत्य सिखाने वाले तोक का तमाचा सहना पड़ा, कंस मामा का पूरा राजशासन विरोधी था। 17 बार शत्रु को मार भगाया परंतु 18वीं बार स्वयं भागना पड़ा। एक ही वस्त्र पर कई महीने रहे और फिर छुपकर द्वारिका बसायी। न जाने कितने उपद्रव हुए लेकिन आधिभौतिक उपद्रवों को श्रीकृष्ण ने महत्त्व नहीं दिया तो आपको भी महत्त्व नहीं देना चाहिए। कृष्ण अपने आनंदस्वभाव में रहे तो आपको भी आनंदस्वभाव में रहना चाहिए। कृष्ण अपने ज्ञान प्रकाश में जिये तो आपको भी ज्ञान प्रकाश में जीना चाहिए।

ʹमहाभारतʹ में आता है कि श्रीकृष्ण के जीवन में दुःख के निमित्तों की कमी नहीं है लेकिन शोक की एक रेखा भी नहीं है। सदा हँसते रहे, मुस्कराते रहे, गीत गाते रहे। कैसी भी परिस्थितियाँ आयीं लेकिन भगवान श्रीकृष्ण उन परिस्थितियों को सत्य मान के मुसीबतों का हौवा बनाकर अपने सिर पर ढोते नहीं थे बल्कि उऩ पर नाचते थे। महाभारत का युद्ध हो रहा है पर श्रीकृष्ण की बंसी बज रही है। कुछ के कुछ आरोप लग रहे हैं और बंसी बज रही है। जयकारे लग रहे हैं पर चित्त में समता है।

सुख-दुःख में कैसे जियें ? सुख-दुःख को साधन कैसे बनायें ? यह सब श्रीकृष्ण के अनुभव की पोथी ʹगीताʹ में है। गीता श्रीकृष्ण के अनुभवजन्य ज्ञान की स्मृति (स्मृति-ग्रंथ) है। गीता किसी सम्प्रदाय अथवा मजहब की किताब नहीं है। इसमें श्रीकृष्ण के द्वारा जितना बुद्धि का आदर किया गया है, ऐसा और किसी जगह पर नहीं है। गीता कैसी भी परिस्थिति में अपनी बुद्धि को डाँवाडोल न होने देने की सीख देती है।

जैसे अर्जुन के जीवन में उतार-चढ़ाव व दुःख आये लेकिन भगवान के आगे दुखड़ा रोया तो वह दुःख भी ʹविषादयोगʹ हो गया। अर्जुन दुःखी हुए, बोलेः ʹमेरा जीवन चलेगा ही नहीं….।ʹ सारी मनोवृत्तियाँ शोक से भर गयीं और उत्साह ठंडा हो गया लेकिन श्रीकृष्ण ने ज्ञान तथा उत्साह भर दिया तो महाभारत का युद्ध भी आराम से जीत लिया।

श्रीकृष्ण बहुत ऊँची बात बताते हैं कि दुष्कृत और सुकृत से आप ऊपर उठ जाओ। ऐसा और कोई मार्ग नहीं है, जैसा श्रीकृष्ण बता रहे हैं। पैसे चले गये तो दुःख हो गया और आ गये तो सुख हो गया लेकिन गीता तो कहती है – जो आया वह भी स्वप्नतुल्य, गया वह भी स्वप्नतुल्य।

श्रीकृष्ण आनंद-अवतार हैं। ʹयह खाऊँ, यह भोगूँ, यह करूँ, यह न करूँ….ʹ – ऐसी कोई चाह उनको नहीं है इसलिए कृष्ण आनंद में हैं। कृष्ण खुले आनंद में हैं तो उनको देखकर गौएँ, बछड़े और गोप-गोपियाँ आनंदित हो जाते हैं।

देवकी की कोख से श्रीकृष्ण जन्में हैं लेकिन जितनी प्रीति यशोदा को मिलती है उतनी देवकी को नहीं। देवकी शरीर से जन्म देती है लेकिन यशोदा तो हृदयपूर्वक यश दे रही है। यशोदा तो आप बन सकते हैं। जरूरी नहीं कि आपके पेट से भगवान पैदा हों, आपके हृदय में भगवान अभी भी प्रकट हो सकते हैं। वाह ! वाह !! हर परिस्थिति में वाह ! भगवान को यश दो तो आपकी बुद्धि यशोदा हो जायेगी और आत्म कृष्ण तो हैं ही हैं। श्रीकृष्ण जो आकृति लेकर आये उतने ही श्रीकृष्ण नहीं हैं, वेदों में श्रीकृष्ण के प्राकट्य से पहले भी ʹकृष्णʹ का नाम था। जो कर्षित कर दे, आकर्षित, आनंदित, आह्लादित कर दे उस अंतर्यामी विभु परमेश्वर का नाम कृष्ण है।

मनुष्य जितनी ऊँचाई का धनी हो सकता है उतनी ऊँचाई के धनी थे अर्जुन और श्रीकृष्ण उनके साथ में थे। अर्जुन सशरीर स्वर्ग जाते हैं, उर्वशी जैसी अप्सरा के मोह-जाल को ठुकरा देते हैं, स्वयं श्री कृष्ण उनके रथ की बागडोर सँभालते हैं फिर भी अर्जुन का दुःख नहीं मिटता। जब श्रीकृष्ण कहते हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।ʹ (गीताः 18.62)

शरीर से जो करो, उस परमात्मा को समझने के लिए करो। मन से जो सोचो, उसके लिए सोचो और बुद्धि से जो निर्णय करो, अपने सत्-चित्-आनंदस्वभाव की तरफ जाने के लिए ही करो तो दुःखों से पार हो जाओगे, जैसे अर्जुन को ज्ञान हो गया – ʹनष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा…ʹ

मोह बोलते हैं उलटे ज्ञान को। हम शरीर नहीं हैं लेकिन मानते हैं अपने को शरीर ! मोह सभी व्याधियों का मूल है। ʹरामायणʹ में कहा गयाः

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

गीता मोह मिटाने की और अपने सच्चिदानंद स्वभाव में जगने की सुंदर युक्तियाँ देती है।

तो श्रीकृष्ण का प्राकट्य कितना महत्त्वपूर्ण है और कितना रहस्यमय है ! श्री कृष्ण की महत्ता समझकर आप श्रीकृष्ण के भक्त हो जाओ इसलिए जन्माष्टमी नहीं है। आप कृष्ण के अनुभव से सम्पन्न होकर निर्दुःख जीवन जियो, मुक्तात्मा, दिव्यात्मा, समाहित आत्मा (शांतात्मा) बनो। आप जिस मजहब में हो, जिस इष्टदेव को मानते हों, चाहे आपके इष्टदेव कृष्ण हों, शिव हों, राम हों लेकिन कृष्ण की जीवनलीलाओं से आप अपने जीवन को लीलामय बना लीजिये। आपका जीवन बोझ न हो इसलिए जन्माष्टमी का पर्व है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 248

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