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Shastra Prasad

स्यमंतक मणि की चोरी की कथा का गूढ़ रहस्य – पूज्य बापू जी



भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी का चन्द्रमा भूल से दिख जाय तो भागवत में
दिया गया ‘स्यमंतक मणि की चोरी का प्रसंग’ सुनने से कलंक का जोर
टूट जाता है । सत्राजित की भक्ति से तृप्त होकर भगवान सूर्य ने उसे
स्यमंतक मणि दी । वह ऐसी मणि थी जो रोज सोना देती थी । ऐसी
भी मणियाँ होती हैं जो रोज सोना पैदा करती हैं परंतु ब्रह्मर्षि तो ब्रह्म
दे देते हैं जहाँ सोने का कोई महत्त्व नहीं ।
वह मणि गले में धारण करके सत्राजित सूर्य की तरह प्रकाशमान
होकर द्वारिका में आया और ब्राह्मणों द्वारा उस मणि को अपने घर के
देवमंदिर में स्थापित करा दिया । एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश
कहाः “सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो ।” परंतु वह
इतना अर्थलोलुप, लोभी था कि उसने मना कर दिया । एक दिन
सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को गले में बाँधकर जंगल में गया ।
वहाँ शेर ने उसे मार दिया और मणि ले ली । फिर शेर को जाम्बवान
रीछ ने मारा और वह मणि अपनी गुफा में ले आया ।
इधर सत्राजित सोचता है कि ‘श्रीकृष्ण को मणि की जरूरत थी और
मैंने दी नहीं थी । भाई मणि गले में बाँधकर जंगल में गया था तो
श्रीकृष्ण ने उसे मरवा के मणि ले ली होगी ।’
श्रीकृष्ण को कलंक लग गया । श्रीकृष्ण तो सब कुछ जानते हैं,
राजाओं में राजा, योगियों में योगी, तपवानों में तपेश्वर हैं । कलंक
मिटाने के लिए वे वन में गये । वहाँ उऩ्होंने जाम्बवान रीछ को युद्ध
में हरा दिया । जाम्बवान रीछ ने फिर लड़की जाम्बवती श्रीकृष्ण को
अर्पण की । मणि मिल गयी, कन्यादान मिल गया । रीछ ने अपनी
लड़की का विवाह भगवान से करा दिया, इसके तो रोचक अर्थ हैं !

कथा का यथार्थ संदेश यह है कि हृदयगुहा में आत्मप्रकाशरूपी
मणि रहती है परंतु आसुरी वृत्तियों के अधीन वह आत्मप्रकाश वहाँ शोभा
नहीं देता । तो आसुरी वृत्तियों को जीतकर, आसुरी भावों को शरणागत
करके हृदय का प्रकाश प्रकट किया जाता है ।
जाम्बवान की लड़की जाम्बवती माने आसुरी वृत्ति श्रीकृष्ण को
अर्पित हुई तो श्रीकृष्णमय हो गयी, ईश्वर स्वरूप हो गयी । श्रीकृष्ण वह
मणि सत्राजित को देकर बोलेः “तुम्हारे भाई को मैंने नहीं मारा था ।
ऐसी-ऐसी घटना घटी ।…”
सत्राजित को हुआ कि ‘मैंने नाहक श्रीकृष्ण का नाम लिया,
निरपराधी को अपराधी ठहराना यह पाप है । अपने पाप का प्रायश्चित्त
क्या करूँ ?’ तो उसने अपनी कन्या सत्यभामा और वह मणि श्रीकृष्ण
को अर्पण कर दी । परंतु श्रीकृष्ण ने उसे मणि वापस लौटा दी ।
सत्यभामा के साथ भगवान का विवाह हुआ, माने जिसकी वृत्ति में
सत्यनिष्ठा है, झूठकपटवाली नहीं है, वह सत्यवृत्ति सत्स्वरूप ब्रह्म से
मिलती है यह अर्थ लेना है ।
सत्यभामा माने सत्यवृत्ति श्रीकृष्ण को अर्पित हो गयी, कृष्णमय हो
गयी । ऐसे ही ब्रह्माकार वृत्ति ब्रह्ममय हो जाती है । भागवत की कथा
का तात्त्विक अर्थ यह है । बाकी स्थूल बुद्धि की दुनिया में स्थूल
कहानियों का अवलम्बन लेकर सूक्ष्म तत्त्व समझाया जाता है ।
फिर शतधन्वा ने सत्राजित को मारकर मणि ले ली और अक्रूर को
दे दी । भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा का वध करके उसके वस्त्रों में
मणि खोजी परंतु उनको मणि मिली नहीं । अनुमान लगाया कि ‘ये
अक्रूर से मिले हैं तो अक्रूर के पास अमानत रखी होगी ।’ फिर श्रीकृष्ण
अक्रूर से मिले कि ‘तुम तो सत्यवादी हो, उदार आत्मा हो और जहाँ

मणि होती है वहाँ सुवर्ण होता है और वह व्यक्ति रोज यज्ञ, दान-पुण्य
खूब करता है । आप दान-पुण्य खूब करते हो और आपके होने से यहाँ
प्रकाश है, खुशहाली है । इससे मेरे को पक्का पता है कि आपके पास
मणि है । परंतु लोग ‘मैंने मणि चुरायी है’ – ऐसा कलंक लगाते हैं, हमारे
बड़े भाई बलराम जी भी मणि के संबंध में मेरी बात का पूरा विश्वास
नहीं करते हैं । इसलिए उन लोगों को जरा बताने के लिए मुझे मणि दे
दो ।”
ऐसा करके मणि ले ली, दिखा दी कि ‘भाई ! देखो मणि हमने नहीं
चुरायी थी ।’ श्रीकृष्ण ने अपना कलंक दूर करके पुनः मणि अक्रूर जी
को लौटा दी ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 356
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श्रवणद्वादशी-व्रत की कथा



भविष्य पुराण में श्रवणद्वादशी के व्रत की सुंदर कथा आती है ।
भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर को एक प्राचीन आख्यान सुनाते हुए
कहते हैं- “दशार्ण देश के पश्चिम भाग के मरुस्थल में अपने साथियों से
बिछुड़ा हुआ एक व्यापारी पहुँचा । वह भूख-प्यास से व्याकुल हो इधर-
उधर घूमने लगा । उसने एक प्रेत के कंधे पर बैठे प्रेत को देखा, जिसे
चारों ओर से अन्य प्रेत घेरे हुए थे । कंधे पर चढ़े प्रेत ने कहाः “तुम
इस निर्जल प्रदेश में कैसे आ गये ?”
व्यापारीः “मेरे साथी छूट गये हैं । मैं अपने किसी पूर्व कुकृत्य के
फल से यहाँ पहुँचा हूँ । मैं अपने जीने का कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ
।”
“क्षणमात्र प्रतीक्षा करो, तुम्हें अभीष्ट लाभ होगा ।”
व्यापारी ने प्रतीक्षा की । प्रेत ने आकर दही भात व जल वैश्य को
दिय़ा । वैश्य खाकर तृप्त हुआ । प्रेत ने अन्य प्रेतों को भी भोजन
कराया और शेष भाग को स्वयं खाया ।
व्यापारी ने प्रेतराज से पूछाः “ऐसे दुर्गम स्थान में अन्न-जल की
प्राप्ति आपको कहाँ से होती है ? थोड़े से ही अन्न-जल से बहुत से लोग
कैसे तृप्त होते हैं ?”
“हे भद्रे ! मैंने पहले बहुत दुष्कृत्य किया था । दुष्ट बुद्धिवाला मैं
रमणीय शाकल नगर में रहता था । व्यापार में ही मैंने अपना अधिकांश
जीवन बिताया । प्रमादवश मैंने धन के लोभ से कभी भी भूखे को न
अन्न दिया और न प्यासे की प्यास बुझायी । एक बार एक ब्राह्मण मेरे
साथ भाद्रपद मास की श्रवण नक्षत्र से युक्त द्वादशी के योग में तोषा
नाम के तीर्थ में गये । वहाँ हम लोगों ने स्नान और नियमपूर्वक व्रत,

उपवास किया । कालांतर में मेरी मृत्यु हुई और नास्तिक होने से मुझे
प्रेत योनि प्राप्त हुई । इस घोर वन में जो हो रहा है वह तो आप देख
ही रहे हैं । ब्राह्मणों के धन का अपहरण करने वाले इन पापियों को भी
प्रेत योनि प्राप्त हुई है – इनमें कोई परस्त्रीगामी, कोई स्वामीद्रोही और
कोई मित्रद्रोही है । मेरे अन्न-पान से पालन-पोषण करने के नाते ये सभी
मेरे सेवक हुए हैं । हे महाभाग ! आप इन प्रेतों की मुक्ति के लिए गया
में जाकर इनके नाम, गोत्र उच्चारणपूर्वक श्राद्ध करें ।” इतना कहकर
वह प्रेतराज मुक्त हो के विमान में बैठ के स्वर्गलोक में चला गया ।
वैश्य ने गया तीर्थ में जाकर श्राद्ध किया । वह जिस-जिस प्रेत की
मुक्ति के निमित्त श्राद्ध करता, वह उसे स्वप्न में दर्शन देकर कहता कि
“हे महाभाग ! भगवन्नाम-जप पूर्वक किये गये श्राद्ध व आपकी कृपा से
मैं प्रेतत्व से मुक्त हो गया हूँ और सद्गति हुई है ।” इस प्रकार वे सभी
प्रेत मुक्त हो गये । राजन् ! उस वैश्य ने घर में आकर भाद्रपद मास के
श्रवणद्वादशी के योग में संयम-नियमपूर्वक भगवान की पूजा की,
संकीर्तन, ध्यान, जप, सत्संग का श्रवण, चिंतन, मनन किया और
गोदान किया । प्रतिवर्ष यह करते हुए अंत में उसने मानवों के लिए
दुर्लभ ऐसी ऊँची गति प्राप्त की ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 356
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आरती क्यों करते हैं ?


हिन्दुओं के धार्मिक कार्यों में, संध्योपासना तथा किसी भी मांगलिक पूजन में आरती का एक विशेष स्थान है । शास्त्रों में जो आरती को ‘आरात्रिक’ अथवा ‘नीराजन’ भी कहा गया है ।

पूज्य बापू जी वर्षों से न केवल आरती की महिमा, विधि, उसके वैज्ञानिक महत्त्व  आदि के बारे में बताते रहे हैं बल्कि अपने सत्संग-समारोहों में  सामूहिक आरती द्वारा उसके लाभों का प्रत्यक्ष अनुभव भी करवाते रहे हैं ।

पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत में आता हैः ″आरती एक प्रकार से वातावरण में शुद्धिकरण करने तथा अपने और दूसरे के आभामंडलों में सामंजस्य लाने की व्यवस्था है । हम आरती करते हैं तो उससे आभा, ऊर्जा मिलती है । हिन्दू धर्म के ऋषियों ने शुभ प्रसंगों पर एवं भगवान की, संतों की आरती करने की जो खोज की है वह हानिकारक जीवाणुओं को दूर रखती है, एक दूसरे के मनोभावों का समन्वय करती है और आध्यात्मिक उन्नति में बड़ा योगदान देती है । शुभ कर्म करने के पहले आरती होती है तो शुभ कर्म शीघ्रता से फल देता है । शुभ कर्म करने के बाद आरती करते हैं तो शुभ कर्म में कोई कमी रह गयी हो तो वह पूर्ण हो जाती है । स्कंद पुराण में आरती की महिमा का वर्णन है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत्कृतं पूजनं मम ।

सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने सुत ।।

‘जो मंत्रहीन एवं क्रियाहीन (आवश्यक विधि-विधानरहित) मेरा पूजन किया गया है, वह मेरी आरती कर देने पर सर्वथा परिपूर्ण हो जाता है ।’ (स्कंद पुराण, वैष्णव खंड, मार्गशीर्ष माहात्म्यः 9.37)

सामान्यतः 5 ज्योत वाले दीपक से आरती की जाती है, जिसे ‘पंचप्रदीप’ कहा जाता है । आरती में या तो एक ज्योत हो या तीन हों या पाँच हों । ज्योत विषम संख्या (1, 3, 5…) में जलाने से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होता है । यदि ज्योत की संख्या सम (2, 4, 6…) हो तो ऊर्जा-संवहन की क्रिया निष्क्रिय हो जाती है ।

अतिथि की आरती क्यों ?

हर व्यक्ति के शरीर से ऊर्जा, आभा निकलती रहती है । कोई अतिथि आता है तो हम उसकी आरती करते हैं क्योंकि सनातन संस्कृति में अतिथि को देवता माना गया है । हर मनुष्य की अपनी आभा है तो घर में रहने वालों की आभा को उस अतिथि की नयी आभा विक्षिप्त न करे और वह अपने को पराया न पाये इसलिए आरती की जाती है । इससे उसको स्नेह-का-स्नेह मिल गया और घर की आभा में घुल मिल जाने के लिए आरती के 2-4 चक्कर मिल गये । कैसी सुंदर व्यवस्था है सनातन धर्म की !″

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 22 अंक 345

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