अपना पुरुषार्थ लघु उनकी कृपा गुरु

अपना पुरुषार्थ लघु उनकी कृपा गुरु


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

सरल-में-सरल एक चीज  है और वही चीज कठिन-में-कठिन है। सरल भी इतनी कि साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी उसको कर सकता है और कठिन भी इतनी कि बड़े-बड़े महाराथी भी हार जाते हैं। वह क्या है ?

‘भक्ति।’

रघुपति भगति करत कठिनाई।

भगवान की भक्ति बड़ी कठिन है। युद्ध कर लेंगे, राज कर लेंगे, लड़ाई में मर जायेंगे लेकिन भक्ति नहीं कर पायेंगे… मनमुख व्यक्तियों के लिए यह इतनी कठिन है और  जो सत्संगी हैं उनके लिए तो – कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।

भक्तिमार्ग में क्या प्रयास है ! योग में तो समाधि लगानी पड़े, उपवास करना पड़े, यह करना पड़े, वह करना पड़े…. लेकिन भक्ति में तो बस भगवान का सुमिरन !

जोग न मख जप तप उपवासा।

सरल सुभाव न मन कुटिलाई।

जथा लाभ संतोष सदाई।

हो गयी भक्ति ! इतनी सरल है।

मोर दास कहाईइ नर आसा।

करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा। (श्रीरामचरित. उ.कां. 45.1-2)

भगवान की भक्ति तो भाई पुरुषार्थहीन, बुद्धिहीन, साधनहीन पशु भी कर सकते हैं। बंदर ने भी भक्ति की, ऊँट और कुत्ते भी भक्ति करने में सफल हो जाते हैं। भील और वक्ष भी भगवान के भक्त हो गये और कुब्जा भी भगवान की भक्त बन गयी। कुब्जा ने कोई साधन नहीं किया।

भक्ति सरल भी है और कठिन भी है। तीसमारखाँ के लिए बड़ी कठिन है। भगवान की भक्ति पुरुषार्थ से नहीं मिलती। जो आपके पुरुषार्थ से मिलता है वह  नष्ट हो जायेगा। चाहे धन मिले चाहे स्वास्थ्य, चाहे सुंदरी मिले चाहे सुंदरा, उसे आप छोड़ जायेंगे या छूट जायेगा। कर्म से जो कुछ भी मिलेगा वह छूट जायेगा। भक्ति कर्म का फल नहीं है।

एक छोटी सी घटना सुनाता हूँ। हनुमान जी सीता जी को खोजने के लिए लंका पहुँचे। रात भर घूमे, प्रभात को भी घूमे, सारी लंका छान मारी लेकिन सीता जी नहीं मिलीं। सीता जी कौन हैं ? भक्ति, ब्रह्मविद्या ही सीता जी है और राम जी हैं भगवान, ब्रह्म। हनुमान जी ने पुरुषार्थ किया लेकिन भक्ति नहीं मिली, ब्रह्मविद्या नहीं मिली। जब विभीषण मिले तो उन्होंने बतायाः “सीता जी लंका की अशोक वाटिका में हैं।”

हनुमान जी बोलेः “मैंने तो पूरी लंका देखी और अशोक वाटिका भी तो लंका में ही है, मुझे तो सीता जी नहीं दिखीं !”

सीता जी कैसे मिलेंगी ? पुरुषार्थ से नहीं मिलेंगी, युक्ति से मिलेंगी। सीता जी को जानने वाले हनुमान जी जैसा पुरुषार्थ तुम्हारे हमारे में नहीं है। तो हम पुरुषार्थ से भगवान को या भगवान की भक्ति को नहीं पा सकते हैं, युक्तिदाता सद्गुरु का इशारा मिले तो भक्ति और भगवान को पाना सुगम हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 20 अंक 225

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