सेवा कोटि-कोटि दुःख को वरण करके भी अपने स्वामी को सुख
पहुँचाती है । व्यजन करने वाला (पंखा झलने वाला) स्वयं प्रस्वेद
(पसीना) से स्नान करके भी अपने इष्ट को व्यजन का शीतल मंद
सुगंधित वायु से तर करता है । यही सेवा ‘मैं’ के अंतर्देश में विराजमान
आत्मा को इष्ट के अंतर्देश में विराजमान परमात्मा से एक कर देती है
।
सेवा में इष्ट तो एक होता ही है , सेवक भी एक ही होता है । वह
सब सेवकों से एक हो के अऩेक रूप धारण करके अपने स्वामी की सेवा
कर रहा है । अनेक सेवकों को अपना स्वरूप देखता हुआ सेवा के सब
रूपों को भी अपनी ही रूप देखता है । अपने इष्ट के लिए सुगंध, रस,
रूप, स्पर्श और संगीत बनकर वह स्वयं ही उपस्थित होता है । सेवक
का अनन्य स्वामी होता है और स्वामी का अनन्य भोग्य सेवक । सभी
गोपियों को राधारानी अपना ही स्वरूप समझती हैं और सभी विषयों के
रूप में वे ही श्रीकृष्ण को सुखी करती हैं । भिन्न दृष्टि होने पर ईर्ष्या
का प्रवेश हो जाता है और सेवा में ईर्ष्या विष है और सरलता अमृत है ।
रसास्वादन व कटुता हैं विघ्न
सेवा में समाधि लगना विघ्न है । किसी देश-विशेष में या काल-
विशेष में विशेष रहनी के द्वारा सेवा करने की कल्पना वर्तमान सेवा को
शिथिल बना देती है । सेवा में अपने सेव्य से बड़ा ईश्वर भी नहीं होता
और सेवा से बड़ी ईश्वर-आराधना भी नहीं होती । स्वयं रसास्वादन करने
से भी स्वामी को सुख पहुँचाने में बाधा पड़ती है । किसी भी कारण से
किसी के प्रति चित्त में कटुता आने पर सेवा भी कटु हो जाती है क्योंकि
सेवा शरीर का धर्म नहीं है, रसमय हृदय का मधुमय, नित्य नूतन
उल्लास है । सेवा भाव है, क्रिया नहीं है । भाव मधुर रहने पर ही सेवा
मधुर होती है । इस बात से कोई संबंध नहीं कि वह कटुता किसके प्रति
है । किसी के प्रति भी हो, रहती तो हृदय में ही है । वह कटुता अंग-
प्रत्यंग को अपने रंग से रंग देती है, रोम-रोम को कषाययुक्त कर देती
है । अतः अविश्रांतरूप से नितांत शांत रहकर रोम-रोम से अपने अंतर
के रस का विस्तार करना ही सेवा है । अपना स्वामी सब है और हमारा
सब कुछ उनकी सेवा है ।
जो करो सुचारु रूप से करो और करने के बाद सोचो कि जो हुआ
है वह सब इन्द्रियों, मन और बुद्धि ने किया है, मैं सत्तामात्र, साक्षीमात्र
हूँ, बाकी सब सपना है ।
सेवा का फल त्याग होता है, सेवा का फल अंतरात्मा का संतोष है
। कुछ चाहिए, वाहवाही चाहिए तो सेवा क्या की, यह तो आपने
दुकानदारी की । – पूज्य बापू जी
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 17 अंक 356
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