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ऋषि प्रसाद सेवाधारियों को पूज्य बापू जी का अनमोल प्रसाद – इस प्रसाद के आगे करोड़ रुपये की भी कीमत नहीं


(ऋषि प्रसाद जयंतीः 23 जुलाई 2021)

ऋषि प्रसाद के सेवाधारियों को मैं ‘शाबाश’ देने से इन्कार कर रहा हूँ । न शाबाश देना है, न धन्यवाद देना है और न ही कोई चीज़-वस्तु या प्रमाणपत्र देना है क्योंकि दी हुई चीज तो छूट जायेगी । जो है

हाजरा-हुजूर जागंदी ज्योत ।

आदि सचु जुगादि सचु ।।

है भी सच नानक होसी भी सचु ।।

उसमें इनको जगा देना है, बस हो गया !

ऋषि प्रसाद के एक-एक सेवाधारी को एक-एक करोड़ रुपये दें तो वे भी कोई मायना नहीं रखते हैं इस प्रसाद के आगे । करोड़ रुपये देंगे तो ये शरीर की सुविधा बढ़ा देंगे और भोगी बन जायेंगे । और भोगी आखिर नरकों में जाते हैं । लेकिन यह ज्ञान दे रहे हैं तो ये ज्ञानयोगी बन जायेंगे और ज्ञानयोगी जहाँ जाता है वहाँ नरक भी स्वर्ग हो जाता है ।

श्वास स्वाभाविक चल रहा है, उसमें ज्ञान का योग कर दो – सोऽ….हम्…’ । बुद्धि की अनुकूलता में जो आनंद आता है वह मेरा है । आपका आनंद कहाँ रहता है ? खोजो ! यह जान लो और आनंद लूटो, जान लो और मुक्ति का माधुर्य लो, जान लो और बन जाओ हर परिस्थिति के बाप, अपने आप ! स्वर्ग भी नन्हा, नरक भी प्रभावहीन… सोऽहंस्वरूप… भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस माधुर्य में रहते हैं उसके द्वार पहुँचा देता है यह ।

‘ऋषि प्रसाद’ वालों का क्या देना ? जो समाज औऱ संत के बीच सेतु बने हैं उनको क्या बाहर की खुशामद, वाहवाही, शाबाशी दें ? यह तो उनका अपमान है, उनसे ठगाई है । ये तो नेता लोग दे सकते हैं- ‘भई,  इन्होंने यह सेवा की, बेचारों ने यह किया… यह किया…. ।’

ऋषि प्रसाद के लाखों सदस्य हैं और लाखों लोगों को ऋषि प्रसाद हाथों-हाथ मिलती है यह सब यश ऋषि प्रसाद के सदस्य बनाने वालों व उसे बाँटने वालों के भाग्य में जाता है किंतु इससे तो उनका कर्तापन मजबूत बनेगा कि ‘हमने सेवा की है, हमने ऋषि प्रसाद बाँटी है । हम बाँटने वाले हैं, हम सेवा करने वाले हैं….’ उसका को जरा-सा पुण्य भोगेंगे – वाहवाही भोग के बस खत्म ! सेवा का फल वाहवाही, भोग नहीं चाहिए । सेवा का फल चीज-वस्तु नहीं, सेवा का फल कुछ नहीं चाहिए । तो तुच्छ अहं का जो कचरा पड़ा है वह ऐसी निष्काम सेवा से हटता जायेगा और अपना-आप जो पहले था, अभी है और जिसको काल का काल भी मार नहीं सकता वह अमर फल, आत्मफल प्रकट हो जायेगा, अपने-आप में तृप्ति, अपने-आप में संतुष्टि मिल जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 17, अंक 343

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ऋषि प्रसाद सेवाधारियों को पूज्य बापू जी का अनमोल प्रसाद


इस प्रसाद के आगे करोड़ रुपये की भी कीमत नहीं

(ऋषि प्रसाद जयंतीः 23 जुलाई 2021)

ऋषि प्रसाद के सेवाधारियों को मैं ‘शाबाश’ देने से इन्कार कर रहा हूँ । न शाबाश देना है, न धन्यवाद देना है और न ही कोई चीज़-वस्तु या प्रमाणपत्र देना है क्योंकि दी हुई चीज तो छूट जायेगी । जो है

हाजरा-हुजूर जागंदी ज्योत ।

आदि सचु जुगादि सचु ।।

है भी सच नानक होसी भी सचु ।।

उसमें इनको जगा देना है, बस हो गया !

ऋषि प्रसाद के एक-एक सेवाधारी को एक-एक करोड़ रुपये दें तो वे भी कोई मायना नहीं रखते हैं इस प्रसाद के आगे । करोड़ रुपये देंगे तो ये शरीर की सुविधा बढ़ा देंगे और भोगी बन जायेंगे । और भोगी आखिर नरकों में जाते हैं । लेकिन यह ज्ञान दे रहे हैं तो ये ज्ञानयोगी बन जायेंगे और ज्ञानयोगी जहाँ जाता है वहाँ नरक भी स्वर्ग हो जाता है ।

श्वास स्वाभाविक चल रहा है, उसमें ज्ञान का योग कर दो – सोऽ….हम्…’ । बुद्धि की अनुकूलता में जो आनंद आता है वह मेरा है । आपका आनंद कहाँ रहता है ? खोजो ! यह जान लो और आनंद लूटो, जान लो और मुक्ति का माधुर्य लो, जान लो और बन जाओ हर परिस्थिति के बाप, अपने आप ! स्वर्ग भी नन्हा, नरक भी प्रभावहीन… सोऽहंस्वरूप… भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस माधुर्य में रहते हैं उसके द्वार पहुँचा देता है यह ।

‘ऋषि प्रसाद’ वालों का क्या देना ? जो समाज औऱ संत के बीच सेतु बने हैं उनको क्या बाहर की खुशामद, वाहवाही, शाबाशी दें ? यह तो उनका अपमान है, उनसे ठगाई है । ये तो नेता लोग दे सकते हैं- ‘भई,  इन्होंने यह सेवा की, बेचारों ने यह किया… यह किया…. ।’

ऋषि प्रसाद के लाखों सदस्य हैं और लाखों लोगों को ऋषि प्रसाद हाथों-हाथ मिलती है यह सब यश ऋषि प्रसाद के सदस्य बनाने वालों व उसे बाँटने वालों के भाग्य में जाता है किंतु इससे तो उनका कर्तापन मजबूत बनेगा कि ‘हमने सेवा की है, हमने ऋषि प्रसाद बाँटी है । हम बाँटने वाले हैं, हम सेवा करने वाले हैं….’ उसका को जरा-सा पुण्य भोगेंगे – वाहवाही भोग के बस खत्म ! सेवा का फल वाहवाही, भोग नहीं चाहिए । सेवा का फल चीज-वस्तु नहीं, सेवा का फल कुछ नहीं चाहिए । तो तुच्छ अहं का जो कचरा पड़ा है वह ऐसी निष्काम सेवा से हटता जायेगा और अपना-आप जो पहले था, अभी है और जिसको काल का काल भी मार नहीं सकता वह अमर फल, आत्मफल प्रकट हो जायेगा, अपने-आप में तृप्ति, अपने-आप में संतुष्टि मिल जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 17, अंक 343

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सेवा पराधीनता नहीं, स्वातंत्र्य का एक विलक्षण प्रकाश है


जब तक सेवा के लिए किसी उद्दीपन (प्रोत्साहन) की अपेक्षा रहती है तब तक सेवा नैमित्तिक है, नैसर्गिक नहीं । वह दूर रहकर भी हो सकती है और जो भी सम्मुख हो उसकी भी हो सकती है । जैसे सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा का आह्लाद उनकी सहज स्फूर्ति है वैसे ही सेवा आत्मा का सहज उल्लास है । आलम्बन (साधन, आश्रय) चाहे कोई भी हो, उसमें परम तत्त्व का ही दर्शन होता है । आलम्बन बनाने में अपने पूर्व संस्कार या पूर्वग्रह काम करते हैं परंतु सब आलम्बनों में एक तत्त्व का दर्शन करने से शुभ ग्रह एवं अशुभ ग्रह दोनों से प्राप्त इष्ट-अनिष्ट की निवृत्ति हो जाती है और सब नाम-रूपों में अपने इष्ट का ही दर्शन होने लगता है । अभिप्राय यह है कि सेवा न केवल चित्तशुद्धि का साधन है, प्रत्युत शुद्ध वस्तु का अनुभव भी है । अतः सेवा कोई पराधीनता नहीं है, स्वातंत्र्य का एक विलक्षण प्रकाश है, दिव्य ज्योति है ।

आप जो कुछ होना चाहते हैं, अभी हो जाइये

आप जो पाना चाहते हैं या जैसा जीवन बनाना चाहते हैं उसे आज ही पा लेने में या वैसा बना लेने में क्या आपत्ति है ? अपने जिस भावी जीवन का मनोराज्य करते हैं वैसा अभी बन जाइये । उस जीवन को प्राप्त करने के लिए अभ्यास की पराधीनता क्यों अंगीकार करते हैं ? आप जैसा जो कुछ होना चाहते हैं, अभी हो जाइये । अपने जीवन को भविष्य के गर्भ में फेंक देना कोई बुद्धिमत्ता नहीं ।

क्या आप सेवापरायण होना चाहते हैं ? तो हो जाइये न ! आपका जीवन क्या अपने से दूर है ? क्या उसके प्राप्त हो जाने में कोई देर है ? फिर दुविधा क्यों है ? सच्ची बात यह है कि आपके जीवन में कोई ऐसी वस्तु घुस आयी है, आपके अंतर्देश में किसी वस्तु या व्यक्ति की आसक्ति ने ऐसा प्रवेश कर लिया है कि आप उसका परित्याग करने में हिचकिचाते हैं । इसी से जैसा होना चाहते हैं वैसा हो नहीं पाते । आप मन के निर्माण के चक्रव्यूह में मत फँसिये, शरीर को ही वैसा बना लीजिये । मन भी वस्तुतः एक शारीरिक विकार ही है । शरीर अपने अभीष्ट स्थान पर जब बैठ जाता है तो मन भी अपनी उछल-कूद बंद कर देता है । पहले मन ठीक नहीं होता, मन को ठीक किया जाता है । आप जो सेवाकार्य कर रहे हैं वह आपकी साधना है । सम्पूर्ण जीवन को उसमें परिनिष्ठित करना है । अतः साध्य स्थिति को बारम्बार अनुभव का विषय बनाना ही साध्य में स्थित होना है ।

अमृतबिंदुः पूज्य बापू जी

छोटा काम करने से व्यक्ति छोटा नहीं होता, बड़ा काम करने से व्यक्ति बड़ा नहीं होता; बड़ी समझ से व्यक्ति बड़ा होता है और छोटी समझ से छोटा होता है ।

व्यर्थ का बोलना, व्यर्थ का खाना, व्यर्थ के विकारों को पोषण देना – जिस दिन यह अच्छा न लगे उस दिन समझ लेना कि भगवान, गुरु और हमारे पुण्य – तीनों की कृपा एक साथ उतर रही है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 342

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