Monthly Archives: February 2012

गुरुसेवा से मिलता परम अमृत


(संत एकनाथ षष्ठीः 13 मार्च 2012)

एकनाथ जी गुरुसेवा से अपने को धन्यभाग समझते थे। जो भक्त नहीं है उन्हें सेवा में बड़ा कष्ट मालूम हो सकता है, पर एकनाथ जैसे गुरुभक्त के लिए वही सेवा परमामृतदायिनी होने से उसी को उन्होंने अपना महद् भाग्य समझा। उन्होंने स्वयं स्वलिखित ʹभागवतʹ में गुरु और गुरु भजन की महिमा गयी है। उन्होंने कहा है कि ʹभवसागर से पार उतरने के लिए मुख्य साधन गुरु-भजन ही है।ʹ और गुरु का लक्षण क्या है ?

एकनाथ महाराज कहते है कि ʹसदगुरु वे ही हैं जो आत्मस्वरूप का बोध कराकर समाधान करा दें।ʹ लौकिक विद्याओं के लौकिक गुरु अनेक हैं पर सदगुरु वे ही ऐसे सदगुरु प्राप्त होते हैं। और ऐसे सदगुरु की सेवा सत्शिष्य कैसे करता है ? एकनाथ महाराज वर्णन करते हैं- ʹगुरु ही माता, पिता, स्वामी और कुलदेवता हैं। गुरु बिना और किसी देवता का स्मरण नहीं होता। शरीर, मन, वाणी और प्राण से गुरु का अनन्य ध्यान हो – यही गुरुभक्ति है। प्यास जल को  भूल जाय, भूख मिष्टान्न भूल जाय और गुरु चरण-सवांहन करते हुए निद्रा भी भूल जाय। मुख में सदगुरु का नाम हो, हृदय में सदगुरु का प्रेम हो, देह में सदगुरु का ही अहर्निश अविश्रान्त कर्म हो। गुरुसेवा में मन ऐसा लगे कि स्त्री, पुत्र, धन भी भूल जाय, यह भी ध्यान न हो कि मैं कौन हूँ।ʹ

गुरु ही भगवान, गुरु ही परब्रह्म और गुरु भजन ही भगवद-भजन है। गुरु और भगवान एक ही हैं, यही नहीं प्रत्युत ʹगुरुवाक्य ही ब्रह्म का प्रमाण है अन्यथा ब्रह्म केवल एक शब्द है।ʹ

गुरुसेवा का मर्म बताते हुए एकनाथ महाराज कहते हैं- ʹगुरु को आसन, भोजन, शयन में कहीं भी न भूले। जिनको गुरु माना उन्हें जाग्रत और स्वप्न के सारे निदिध्यासन में गुरु माना। गुरु स्मरण करते-करते भूख-प्यास का विस्मरण हो जाता है और देह एवं गेह का सुख भी भूल जाता है, उनके बदले सदा परमार्थ ही सम्मुख रहता है।ʹ

सदगुरु के सामर्थ्य और सत्सेवा का सुख कैसा है, इस विषय में एकनाथ महाराज के ये प्रेमभरे उदगार हैं- ʹसदगुरु जहाँ वास करते हैं वहीं सुख की सृष्टि होती है। वे जहाँ रहते हैं वहीं महाबोध स्वानंद से रहता है। उन सदगुरु के चरण-दर्शन होने से उसी क्षण भूख-प्यास भूल जाती है। फिर कोई कल्पना ही नहीं उठती। अपना वास्तविक सुख गुरुचरणों में ही है।”

गुरुसेवा के संबंध में नाथ फिर अपना अनुभव बतलाते हैं- सेवा में ऐसी प्रीति हो गयी कि उससे आधी घड़ी भी अवकाश नहीं मिलता। सेवा में आलस्य तो रह ही नहीं गया क्योंकि इस सेवा से विश्रांति का स्थान ही चला गया। प्यास जल भूल गयी, भूख मिष्टान्न भूल गयी। जम्हाई लेने की भी फुरसत नहीं रह गयी। सेवा में मन ऐसे रम गया कि एका (एकनाथ जी) गुरु जनार्दन स्वामी जी की शरण में लीन हो गया।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 17, अंक 230

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चैतन्य महाप्रभु का भगवत्प्रेम


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

(श्री चैतन्य महाप्रभु जयन्तीः 8 मार्च)

साधुनां दर्शनं पातकनाशनम्।

संत के दर्शन से पाप नष्ट होते हैं। भगवान की जब कृपा होती है, अंतरात्मा भगवान जब प्रसन्न होते हैं तब साधु-संगति की रुचि होती है।

जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये।

(विनयपत्रिकाः 136.10)

ऐतिहासिक घटित घटना हैः जगन्ननाथ मंदिर के दर्शन करके चैतन्य महाप्रभु कुछ दिन जगन्नाथपुरी में ही रहे थे। उस समय उत्कल (ओड़िशा) के बुद्धिमान राजा प्रतापरूद्र ने चैतन्य महाप्रभु का यश सुना कि ये संत भगवान का कीर्तन करते हैं और दृष्टि डालते हैं तो लोग पवित्र होते हैं, उन्हें भक्ति मिलती है, रस मिलता है, प्रेम-प्रसाद मिलता है। तो प्रतापरूद्र चैतन्य महाप्रभु के दर्शन की उत्कंठा लेकर जगन्नाथपुरी आये और महाप्रभु के सेवक से प्रार्थना कीः ʹमहाप्रभु से कहिये कि हम आपके दर्शन करने के लिए आना चाहते हैं।ʹ

गौरांग ने कहाः ʹराजा तो राजसी होते हैं, स्वार्थी होते हैं। वह तो संसार की खटपट की बात करेगा। यहाँ तो भगवान की प्रीति की बात होती है। हमारा समय खराब होगा। शराबी से, जुआरी से तो हम मिलेंगे क्योंकि शराबी, जुआरी को तो लगता है कि ʹहम गलत करते हैंʹ पर राजा तो सब करता है फिर भी ʹमैं राजा हूँʹ ऐसा उसे घमंड होता है इसलिए उसको बोलो हम नहीं मिलना चाहते।”

सेवक ने आकर बताया तो राजा ने अपना सिर पीट लिया कि ʹमैं कैसा अभागा हूँ कि संत हमसे मिलना नहीं चाहते। मेरे को संत का दर्शन-सत्संग नहीं मिलता। सच कहा है कि भोगी लोग यहाँ बड़े दिखते हैं पर मरने के बाद नरकों में जाते हैं। भक्त और योगी लोग यहाँ साधारण दिखते हैं लेकिन उनका अमर जीवन परमात्मा तक पहुँचता है। संत मिलेंगे नहीं तो अब मैं क्या करूँ ?ʹ दुःखी होने लगे। प्रतापरूद्र ने सोचा कि ʹमैं तो प्राण त्याग दूँगा। संत ने मेरे को ठुकरा दिया, संत ने दर्शन देने से मना कर दिया तो फिर यह जिंदगी किस काम की !ʹ

भक्त मंत्रियों ने समझाया कि “आत्महत्या करने से मंगल नहीं होता है। जब भगवान जगन्नाथ की यात्रा निकलती है, उस समय चैतन्य महाप्रभु ʹजय-जगन्नाथ, जय-जगन्नाथ, हरि बोल, हरि बोल…. हरि ૐ… हरि ૐ.. हरि बोल, हरि बोल….ʹ कीर्तन करते हैं, भक्त लोग भी कीर्तन करते हैं। जब गौरांग कीर्तन करेंगे, प्रेमाभक्ति के आवेश में नाचेंगे और भावविभोर होंगे, भावसमाधि में होंगे, उस समय तुम ʹश्रीमद् भागवतʹ के दसवें स्कंध के 31वें अध्याय का यह 9वाँ श्लोक उच्चारण करना-

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।

श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति से भूरिदा जनाः।।

ʹहे प्रभु ! तुम्हारी कथा अमृतस्वरूप है। विरह से सताये हुए लोगों के लिए तो यह जीवन-संजीवनी है, जीवनसर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी, महात्माओं, भक्तकवियों ने उसका गान किया है। यह सारे पापों को तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्र से परम मंगल, परम कल्याण का दान भी करती है। यह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी इस लीला, कथा का गान करते हैं, वास्तव में भूलोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।ʹ

तुम खूब प्रेम से इसका उच्चारण करोगे तो गौरांग भावसमाधि में भी भागवत का यह श्लोक सुनेंगे और जिसकी जिह्वा पर भगवान का निर्मल यशोगान होगा गौरांग निश्चय ही उसे अपने हृदय से लगा लेंगे।”

राजा प्रतापरूद्र बड़े विद्वान थे और अच्छे पुरुषों का संग करते थे। उन्हें राजा होने का अभिमान नहीं था। राजा ने श्लोक कंठस्थ किया।

रथयात्रा के समय गौरांग तो ʹहरि बोल, हरि बोल…..ʹ कर रहे थे। राजा ने वह श्लोक बड़े मधुर स्वर से गया। मन में भाव रखा कि ʹसंत मेरे पर राजी हो जायें।ʹ अरे, राजी तो क्या हों, वे तो आँखें बन्द किये दौड़े-दौड़े आये। जहाँ से आवाज सुनायी पड़ी थी, वहाँ जाकर राजा को अपने गले से लगा लिया। राजा को जो संत मिलना नहीं चाहते थे, उन्होंने आकर आलिंगन किया तो राजा तो रोमांचित हो गया, हृदय में आनंद-आनंद आने लगा, शांति का एहसास होने लगा। लोगों ने कहा कि ʹउत्कल-सम्राट तो आज पावन हो गया, संत ने स्पर्श कर लिया।ʹ संत के स्पर्श से तो राजा प्रतापरूद्र आनंदित हो गये, भक्त बन गये। कटक-भुवनेश्वर क्षेत्र का सम्राट तो त्रिभुवन में व्याप्त परमात्मा का आनंद, भक्ति और भगवान के प्यारे संतों का दर्शन पाकर धन्य-धन्य हो गया !

जो भगवत्कथा का अमृतपान करता है वह भाग्यशाली है। भगवत्कथा पापों की दलदल को सुखा देती है। भगवत्कथा पुण्यसलिल बहा देती है। भगवत्कीर्तन और भगवत्कथा सभी नस-नाड़ियों को शुद्ध करते हैं। जो भगवान के लिए तरसता है, भगवान के लिए समय निकालता है, भगवान उसका यश, उसका सुख शाश्वत कर देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 28, 29 अंक 230

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भारतीय संस्कृति की महानता


(पूज्य बापू जी के सत्संग से)

मैं तो सत्संग करने वाले की अपेक्षा सत्संग सुनने वाले को ज्यादा फायदे में मानता हूँ। यदि सत्संग चार दिन का है तो सत्संग सुनने वाला चाहे दो दिन आये, तीन दिन आये उसकी मौज ! पर सत्संग करने वाले को तो चारों दिन समय से आना है। एक-एक तथ्य के पीछे एक-एक सिद्धान्त, उसके पीछे दूसरा सिद्धान्त…. वह भी शास्त्रीय हो, लोकोपयोगी हो और मनोग्राह्य हो, यह ध्यान रख के बोलना पड़ता है। सुनने वाले को कोई ध्यान रखने की जरूरत नहीं है। जैसे गाय सुबह से शाम तक इधर-उधर घूमती है, कभी हरा खाती है, कभी सूखा खाती है, कभी डंडे सहती है। दिन भर के परिश्रम से उसके शरीर में जो दूध बनता है वह शाम को बछड़े को तो तैयार मिलता है। जैसे बछड़े को माल तैयार मिलता है वैसे ही संत ने कुंडलिनी योग, लय योग, ध्यान योग किया, संतों को खोजा, उनकी सेवा की, गुरुओं को रिझाया, भगवान की बंदगी की, प्रीति की, सब कर-कराके जो सार मिला है, उसका अनुभव करके वे समाज की ओर आते हैं। अपने पूरे अनुभव का निचोड़ लोगों को पिलाते हैं। यह भारत के संतों की गरिमा है। इसी कारण हमारी भारतीय संस्कृति अब भी जीवित है।

विश्व की चार प्राचीन संस्कृतियाँ हैं – युनान, मिस्र, रोम और भारत की। इन चारों संस्कृतियों में अभी अगर देखा जाय तो युनान, मिस्र और रोम की – ये तीनों संस्कृतियाँ आपको अजायबघरों (संग्रहालयों) में मिलेंगी पर भारत की संस्कृति आज भी गाँव-गाँव में दिखायी पड़ेगी।

कनाडा का एक अरबपति आदमी परमहंस योगानंद जी का जीवन-चरित्र पढ़कर इतना प्रभावित हुआ कि वह यहाँ उनके दर्शन करने आया और अपनी कार लेकर भारत में यात्रा की। बाद में उसने एक पुस्तक लिखी जिसमें भारत की खूब सराहना की है।

उसने लिखा कि गर्मी के दिन थे। एक जगह मेरी कार खराब हो गयी। मैंने एक पेड़ के नीचे कार खड़ी की। इतने में एक किसान भागता हुआ मेरे पास आया। मैं उसकी भाषा नहीं जानता था और वह मेरी भाषा नहीं जानता था, फिर भी उस किसान ने बड़े प्रेम से मुझे अपने झोंपड़े की ओर चलने का संकेत किया । मैं गया तो उसने खटिया बिछायी। गाय दुहकर दूध लाया, चीनी तो नहीं डाली लेकिन किसान ने अपना प्रेम, अपनी प्रीति उस दूध में ऐसी डाली कि अभी तक उस दूध की मधुरता मुझे याद है। भारत की संस्कृति अब भी गाँव-गाँव में और किसानों के झोंपड़ों में मुझे देखने को मिली। यह ʹपरस्परदेवो भवʹ की भावना है।

तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में कोई नहीं पराया है।।

और दूसरी बात-भारत की संस्कृति अभी भी संतों के पास मिलती है, जिसका प्रसाद संतजन समाज में बाँटते हैं तो लाखों लोग एक साथ शांति पाते हैं। विश्व में और किसी जगह पर ऐसा सामूहिक सत्संग नहीं होता जैसा भारत में होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 30, अंक 230

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