Monthly Archives: February 2012

अत्याचार की पराकाष्ठा से उन्नति की पराकाष्ठा तक


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

विपत्तियों के पहाड़, दुःखों के समुद्र हमें दुःखी बनाने में समर्थ नहीं है, क्योंकि सर्वसमर्थ हमारा आत्मा परम हितैषी है। केवल हम उसे अपना मानें, समर्थ मानें, प्रीतिपूर्वक सुमिरें। सुषुप्ति की जड़ता में भी वह हमारा साथ नहीं छोड़ता, अचेतन अवस्था में भी हमारा साथ नहीं छोड़ता। मृत्यु भी हमारे और ईश्वर के अमर संबंध को नहीं तोड़ सकती। हाय राम ! ऐसे पिया को छोड़कर किस-किसकी शरण लोगे ? किस-किसके आगे गिड़गिड़ाओगे ? हरि शरणम्…. प्रभु शरणम्…..। ૐ… ૐ…. ૐ…. नारायण हरि, श्रीहरि, परमेश्वर हरि…. शिव… शिव…. शिव… ईश्वर को पाये बिना दुनिया की कोई भी विद्या पा ली तो अंत में घुटने टेकने ही पड़ते हैं।

सम्राट अशोक का पुत्र महेन्द्र बड़ा उन्मत्त हो गया था। कई अपराधियों को भी नीचा दिखा दे ऐसा बड़ा घोर अपराधी हो गया था। जहाँ-तहाँ मार-काट मचाना और अपने राजपुत्र होने की विशेषता की धाक जमाना आदि तरीकों से उसने अत्याचार की पराकाष्ठा को छूने में कमी नहीं रखी थी।

मन का यह स्वभाव है कि जिधर को लगता है तो बस, बढ़ते-बढ़ते, बढ़ते-बढ़ते पराकाष्ठा तक पहुँच जाता है। धन में लगता है तो धन के लोभ में बढ़ते-बढ़ते महाधनी बनना चाहता है। पढ़ने में लगता है तो पढ़ने में बढ़ते-बढ़ते बड़ी-से-बड़ी पदवी पाना चाहता है। नेतागिरी में लगता है तो बढ़ते-बढ़ते प्रधानमंत्री पद तक की छलाँग मारता है। उसके बाद भी सोचता है कि ʹविश्वशांति परिषद का मैं अध्यक्ष बन जाऊँ, फलाना हो जाऊँ, यह हो जाँऊʹ, बस और-और खपे-खपे (और चाहिए और चाहिए) मैं खपता जाता है।

महेन्द्र अपराधों में इतना खपा, इतना खपा कि राजा का जो मुख्य, समझदार धर्मप्रिय मंत्री था राधागुप्त, उसने सम्राट अशोक से कहाः

ʹʹमैं अपने राज्य की अव्यवस्था और समाज में अत्याचार करने वाले अपराधी के विषय में कुछ कहना चाहता हूँ।ʹʹ

अशोकः “कब कहोगे ? देर क्यों करते हो ?”

बोलेः “राजन् ! बड़ी पीड़ा के साथ कहना पड़ता है…”

अशोकः “पीड़ित क्यों होते हो ?”

“महाराज ! बड़ी शर्म महसूस हो रही है।”

“संकोच मत करो। समाज को पीड़ित करने वाला ऐसा अधम कौन है ?”

“महाराज ! उसकी अधमता पराकाष्ठा पर है। उसने इतने-इतने लोगों को बेघर कर दिया। इतने-इतने लोगों को अत्याचारी बना दिया। न वह शराब से पीछे हटता है, न दुराचार से। हमने अपने सारे प्रयत्न करके देखे, महाराज ! वह अपराधी बहुत… बहुत भयंकर है।”

“तो क्या पूरे राज्य से वह एक व्यक्ति बड़ा हो गया है ?”

“महाराज ! पाटलिपुत्र के….।”

“क्यों रुकते हो ?” सम्राट अशोक ने कहा।

“महाराज ! वे और कोई नहीं आपके ज्येष्ठ पुत्र महेन्द्र हैं।”

“क्या ! मेरा बड़ा बेटा और इतना बड़ा अपराधी ! प्रजा त्राहिमाम् पुकार गयी और मेरे को खबर नहीं !!”

अहिंसा के पुजारी सम्राट अशोक की आँखों से अंगारे बरसने लगे। आदेश जारी कर दियाः

“महेन्द्र जहाँ भी हो उसे राजदरबार में अपराधी के कटघरे में खड़ा कर दिया जाय।”

महेन्द्र को बंदी बनाकर लाया गया।

“महेन्द्र ! राजा और राजा का परिवार प्रजा का पोषक होना चाहिए। पोषक की जगह पर अपोषक रहे तो चल जाय लेकिन तुम इतने शोषक अपराधी कि अपराधियों को भी शर्मिन्दा कर दो ! तुम्हारे विषय में सब सुना है और विश्वसनीय मंत्रियों ने कहा है। तुम्हें सफाई देने के लिए कोई अवसर नहीं दिया जायेगा। पता है, प्रजा का उत्पीड़न करके राज्य में अशान्ति फैलाने को क्या दंड होता है ?”

ʹʹराजन् ! उसे मृत्युदंड होता है।”

“हम तुम्हें मृत्युदंड देते हैं। जाओ, ले जाओ इसे।”

“महाराज ! मैं सजा निवृत्त करने की प्रार्थना नहीं करता हूँ। मेरे अपराध को क्षमा न करें लेकिन मुझे सात दिन का समय दे दिया जाय। सम्राट के पुत्र को नहीं बल्कि आपकी रियासत के इस नागरिक को थोड़ा समय दे दें।”

“आज से सातवें दिन फाँसी ! मृत्युदंड !!”

महेन्द्र को काल-कोठरी में बंद कर दिया गया। दिन-पर-दिन बीतते गये। छठे दिन के प्रभात को क्या पता उस नियंता ने क्या प्रेरणा की ! पुकार में बड़ी शक्ति है और पुकार सुननेवाले की शक्ति का तो कोई पार ही नहीं है। छठे दिन का प्रभात हुआ। अब एक दिन बीच में है, छठा दिन है आज। ʹकल को मृत्यु पाने वाला व्यक्ति क्या कर रहा है, सो रहा है कि जग रहा है ?ʹ चौंकीदार ने जरा दयावश खटखट किया।

ʹʹराजकुमार महेन्द्र ! आपके पाँच दिन बीत गये, क्या आपको पता नहीं ? अब मृत्यु की घड़ियाँ बहुत नजदीक आ रही हैं। आप सो क्यों रहे हो ?”

कठिनाइयों में साधु-सुमिरन और सत्संग की बातें जो मंगल करती हैं, वह मंगल धन, सत्ता नहीं कर सकती, अपना बल, ओज नहीं कर सकता। महेन्द्र ने जाने-अनजाने में जो पहले सत्संग सुना था उसी का मनन किया एकांत में।

सूर्य की पहली किरण खिड़की पर आयी। राजकुमार रात भर परमात्मा का चिंतन, ध्यान करता रहा। देखते-ही-देखते बाहर का सूर्य जिससे प्रकाशित होता है उस आत्मसूर्य का प्रकाश भीतर आया। महेन्द्र की सारी दुश्चरित्रता और सारी वासनाएँ जलकर खाक हो गयीं और उसकी आँखों में चमक आ गयी।

चौकीदारः “एक दिन बाकी है।”

बोलेः “बहुत कुछ बाकी है। मुझे पता चल गया है, जीवन क्या है और मौत क्या है। अपराध की वासना नीचे के केन्द्रों में रहती है और पुकार करते-करते ऊपर के केन्द्रों में आते हैं। ऊपरवाला कहीं ऊपर नहीं है। ऊपर के केन्द्र ही ऊपरवाले की याद दिलाते हैं। मेरा अंतःकरण संतुष्ट हो रहा है। अब मुझे मृत्यु का भय नहीं और जीने की इच्छा नहीं। मैं अपराधी था नहीं, हूँ नहीं, हो सकता नहीं। अपराधी मन होता है, वासनाएँ होती हैं। राजा  साहब को मेरा प्रणाम भेजो।” आदि आदि अपनी अनुभूति की डकारें सुना दीं। राजा तक खबर गयी। सम्राट अशोक बुद्धिमान तो थे, दूसरे ढंग से परीक्षा कराकर बड़े  संतुष्ट हुए कि छः दिन के अंदर एक महाअपराधी में से एक महापुरुष का प्राकट्य हो गया।

अशोक सातवें दिन आये, बोलेः “राजकुमार ! अब तुम वास्तव में मुक्त हो गये। राजतख्त तुम्हारा इंतजार कर रहा है। अब सातवें दिन मृत्युदंड नहीं, राजसिंहासन मिलेगा।”

“पिताश्री ! क्षमा करें। लोगों पर शासन करके समय गँवानेवाला राज्य मुझे नहीं चाहिए। मैंने इन्द्रियों पर शासन करके, मन पर शासन करके उस शासनकर्ता की प्रीति का राज्य चुना है। मैं उसी राज्य में प्रवेश करूँगा महाराज ! आपके राज्य में मैं विदाई चाहता हूँ। मुझे यह राजवैभव और सुखन हीं चाहिए। इन्द्रियों को विकारों में घसीटने वाले सुविधाएँ मुझे नहीं चाहिए। महाराज ! सातवें दिन मौत आयेगी, मौत आयेगी… मौत के भय से भी जिनको भगवान प्यारे लगते हैं ऐसे राजा परीक्षित सातवें दिन मोक्ष को पा सकते हैं तो आपके इस कुपुत्र पर वह मेहरबान नहीं हुआ क्या ! महाराज ! मैंने मृत्यु को जीत लिया है। मृत्यु होगी तो शरीर की होगी। सिंहासन को मैं अस्वीकार करता हूँ। मेरा राज्य होगा पहाड़ों में, निर्जन स्थानों में, मठ-मंदिर में, साधु-संतों के चरणों में। धर्म की ज्योति से मैं जनता का कल्याण करने हेतु सेवक बनकर सेवा का साम्राज्य फैलाऊँगा।” वह कारागार से निकलकर पहाड़ की ओर चला गया और श्रीलंकासहित एशिया के विभिन्न देशों में धर्म का प्रचार किया। बहुत जगहों पर उसका सेवा-सुमिरन और भगवान की महत्ता का संदेश पाकर संसार-दरिया में घसीटे जाने वाले जीव भगवान की ऊँची यात्रा करने में सफल हो गये।

सुमति कुमति सब के उर रहहीं।

नाथ पुरान निगम अस कहहीं।। (रामायण)

कुमति ने जोर पकड़ा तो मृत्युदंड मिला और दंड ने कुमति से सिकुड़न लाकर सुमति के चिंतन में लगा दिया। कुमति की वासनाएँ मिटीं और सुमति का साम्राज्य मिला। क्या इस कथा से आप भी करवट लोगे कि पढ़कर ʹवाहʹ करके रुक जाओगे ?

अब करवट लो भाइयो, माताओ-बहनों, बच्चियो-देवियो ! तुम्हारा मंगल हो, मंगलकारी करवट लो। ʹजीवन विकास, दिव्य प्रेरणा प्रकाश, ईश्वर की ओरʹ पढ़ो – पढ़ाओ और हो जाओ उस प्यारे के। मेरे प्यारे पाठको ! औरों को भी पढ़ाओ। हे हरि… हे हरि…. हे हरि….. वह बल भी देता है, बुद्धि भी देता है, विवेक भी देता है, वैराग्य भी देता है। सब कुछ देता है, असंख्य लोगों को देता आया है। तुम्हें भी देने में वह देर नहीं करेगा। पक्की प्रीति, श्रद्धा-सबूरी से लग जाओ, पुकारते जाओ। करूणानिधि की करूणा, प्यारे का प्यार उभर आयेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 5,6,7 अंक 230

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आत्मसुख में बाधक व साधक बातें


(पूज्य बापू जी की प्रेरणादायी वाणी)

आत्मसुख में पाँच चीजें बाधक और पाँच चीजें साधक हैं।

आत्मसुख में बाधक हैः

बहुत प्रकार के ग्रंथों को पढ़ना, बहुत दृश्यों को देखना, पिक्चरें देखना।

बहिर्मुख लोगों की बातों में आना और उनकी लिखी हुई पुस्तकें पढ़ना, बहुत सारे समाचार सुनना, अखबार-उपन्यास पढ़ना।

बुद्धि को बहुत चीजों से उलझाने से आप ईश्वर की शांति से, ईश्वर के माधुर्य से, चिन्मय सुख से फिसल सकते हैं इसलिए अपने को बहुत चीजों में मत फँसाओ।

बहिर्मुख लोगों की संगति करना, उनसे हाथ मिलाना,  उनके श्वासोच्छवासा में ज्यादा समय रहना-साधक के लिए उचित नहीं है।

किसी भी व्यक्ति-वस्तु परिस्थिति में आसक्ति करना।

वासना के आवेग में आकर आप सुखी होना चाहते हैं। राग से, द्वेष से, मोह से उत्पन्न वासना से आक्रान्त होते हैं तो आप परमात्म-सुख से चिन्मय सुख की योग्यता से गिर जाते हैं। अगर आप इनसे आक्रान्त नहीं होते तो आप चिन्मय सुख के अधिकारी हो जाते हैं।

अधिकारी न होते हुए भी उपदेशक या वक्ता बनना।

आत्मसुख में सहायक हैः

भगवच्चरित्र का श्रवण। भगवान के प्यारे संत और भगवत्स्वरूप ब्रह्मज्ञानियों के जीवन-चरित्र सुनना या पढ़ना।

भगवान की स्तुति।

भजन, सुमिरन, ध्यान।

भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुषों में श्रद्धा बढ़े ऐसी ही चर्चा करना-सुनना, ईश्वर की कथा सुनना।

सदैव ईश्वर की स्मृति करते-करते आनंद में रहने की आदत।

तो आज से साधना में बाधक बातों का त्याग करके साधना में सहायक बातों का अवलम्बन लो और अपने लक्ष्य जीवन्मुक्ति को पा लो। आत्मसुख में बाधक कमियों को निकालने के लिए भगवान से प्रार्थना करना कि ʹप्रभु ! मैं तुम्हारा हूँ, तुम मेरे हो। मुझे वासना, विकार से बचाकर हे निर्विकार नारायण ! अपने राम स्वभाव में जगाना-

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।

ताहि भजनु तजि भाव न आना।।

(श्रीरामचरित. सुं.कां. 33.2)

हे अंतर्यामी राम ! आपके स्वभाव को जान लें तो हम आपसे एकाकार हो जायेंगे। मैं कई जन्मों से वासना-विकारों का आदी हूँ इसलिए फिसल रहा हूँ, तुम मुझे बचाते रहना।

फिसलते-फिसलते कई बार फिसलने के बाद भी आप उठ खड़ें होंगे। जैसे बचपन में कई बार गिरने के बाद भी आप अभी दौड़ने से काबिल हो गये। बचपन में एक बार, दो बार, पाँच बार गिरे फिर भी आप चलने का अभ्यास करते रहे। नहीं करते तो अभी विकलांग होकर पड़े रहते लेकिन गिरने को आपने गिरा-अगिरा समझकर चलने का प्रयास चालू रखा तो अभी चल भी सकते हो, दौड़ भी सकते हो, कूद भी सकते हो। चलते समय जब आप गिरे थे तब यदि डरकर बैठ जाते तो अभी आपकी स्थिति कैसी नाजुक होती !

ऐसे ही ईश्वर के रास्ते भी आप कई बार फिसलें तो भी चिंता नहीं करना। ʹहम फिसल गयेʹ, यह भ्रम मत करना। यह सोचना कि ʹपुरानी आदत के कारण मन फिसल गया है, हम तो भगवान के हैं।ʹ तो आप फिसलाहट से जल्दी बच जाओगे।

कहीं बढ़िया चीज है तो ʹवहाँ बढ़िया मजा आयेगाʹ – इस भाव से जाओगे तो आप फिसलते चले जाओगे। बढ़िया-में-बढ़िया सुख का सागर मेरा प्रभु है। बाहर कितना भी रहोगे लेकिन अंत में रात को थककर सोने के लिए तो अपने अंतरात्मा में आओगे। इसलिए किसी दृश्य को, किसी सुंदरे-सुंदरी को किसी चरपरे-चटपटे भोग को महत्त्व नहीं दोगे तो आप चिन्मय सुख की, आत्मा-परमात्मा के सुख की लगन होने से उसमें अच्छी तरह से स्थिति पा लोगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 8,10 अंक 230

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अनेक रोगों का मूल कारणः विरूद्ध आहार


जो पदार्थ रस-रक्तादि धातुओं के विरूद्ध गुण-धर्म वाले व वात-पित-कफ इन त्रिदोषों को प्रकुपित करने वाले हैं, उनके सेवन से रोगों की उत्पत्ति होती है। इन पदार्थों में कुछ परस्पर गुणविरुद्ध, कुछ संयोगविरूद्ध, कुछ संस्कारविरूद्ध और कुछ देश, काल, मात्रा स्वभाव आदि से विरूद्ध होते हैं। जैसे – दूध के साथ मूँग, उड़द, चना आदि सभी दालें, सभी प्रकार के खट्टे व मीठे फल, गाजर, शकरकंद, आलु, मूली जैसे कंदमूल, तेल, गुड़, शहद, दही, नारियल, लहसुन, कमलनाल, सभी नमकयुक्त व अम्लीय पदार्थ संयोगविरुद्ध हैं। दूध व इनका सेवन एक साथ नहीं करना चाहिए। इनके बीच कम-से-कम 2 घंटे का अंतर अवश्य रखें। ऐसे ही दही के साथ उड़द, गुड़, काली मिर्च, केला व शहद, शहद के साथ गुड़, घी के साथ तेल नहीं खाना चाहिए।

शहद, घी, तेल व पानी इन चार द्रव्यों में से दो अथवा तीन द्रव्यों को समभाग मिलाकर खाना हानिकारक है। गर्म व ठंडे पदार्थों को एक साथ खाने से जठराग्नि व पाचनक्रिया मंद हो जाती है। दही व शहद को गर्म करने से वे विकृत बन जाते हैं।

दूध को विकृत कर बनाया गया छेना, पनीर आदि व खमीरीयुक्त पदार्थ (जैसे – डोसा, इडली, खमण) स्वभाव से ही विरुद्ध हैं अर्थात् इनके सेवन से लाभ की जगह हानि ही होती है। रासायनिक खाद व इंजेक्शन द्वारा उगाये गये अनाज व सब्जियाँ तथा रसायनों द्वारा पकाये गये फल भी स्वभावविरुद्ध हैं। हेमंत व शिशिर इन शीत ऋतुओं में ठंडे, रूखे-सूखे, वातवर्धक पदार्थों का सेवन, अल्प आहार तथा वसंत-ग्रीष्म-शरद इन उष्ण ऋतुओं में उष्ण पदार्थ व दही का सेवन कालविरुद्ध है। मरुभूमि में रूक्ष, उष्ण, तीक्ष्ण पदार्थों (अधिक मिर्च, गर्म मसाले आदि) व समुद्रतटीय प्रदेशों में चिकने ठंडे पदार्थों का सेवन, क्षारयुक्त भूमि के जल का सेवन देशविरुद्ध है।

अधिक परिश्रम करने वाले व्यक्तियों के लिए रूखे-सूखे, वातवर्धक पदार्थ व कम भोजन तथा बैठे-बैठे काम करने वाले व्यक्तियों के लिए चिकने, मीठे, कफवर्धक पदार्थ व अधिक भोजन अवस्थाविरूद्ध है।

अधकच्चा, अधिक पका हुआ, जला हुआ, बार-बार गर्म किया गया, उच्च तापमान पर पकाया गया (जैसे – ओवन में बना व फास्टफूड), अति शीत तापमान में रखा गया (जैसे – फ्रिज में रखे पदार्थ) भोजन पाकविरूद्ध है।

मल-मूत्र का त्याग किये बिना, भूख के बिना अथवा बहुत अधिक भूख लगने पर भोजन करना क्रमविरुद्ध है।

जो आहार मनोनुकूल न हो वह हृदयविरुद्ध है क्योंकि अग्नि प्रदीप्त होने पर भी आहार मनोनुकूल न हो तो सम्यक् पाचन नहीं होता।

इस प्रकार के विरोधी आहार के सेवन से बल, बुद्धि, वीर्य व आयु का नाश, नपुंसकता, अंधत्व, पागलपन, भगंदर, त्वचाविकार, पेट के रोग, सूजन, बवासीर, अम्लपित्त (एसीडिटी), सफेद दाग, ज्ञानेन्द्रियों में विकृति व अष्टौमहागद अर्थात् आठ प्रकार की असाध्य व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। विरुद्ध अन्न का सेवन मृत्यु का भी कारण हो सकता है।

अतः देश, काल, उम्र, प्रकृति, संस्कार, मात्रा आदि का विचार तथा पथ्य-अपथ्य का विवेक करके नित्य पथ्यकर पदार्थों का ही सेवन करें। अज्ञानवश विरुद्ध आहार के सेवन से हानि हो गयी तो वमन-विरेचनादि पंचकर्म से शरीर की शुद्धि एवं अन्य शास्त्रोक्त उपचार करने चाहिए। ऑपरेशन व अंग्रेजी दवाएँ रोगों को जड़-मूल से नहीं निकालते। अपना संयम और निःस्वार्थ एवं जानकार वैद्य की देख-रेख में किया गया पंचकर्म विशेष लाभ देता है। इससे रोग तो मिटते ही हैं, 10-15 वर्ष आयुष्य भी बढ़ सकता है।

सबका हित चाहने वाले पूज्य बापू जी हमें सावधान करते हैं- “नासमझी के कारण कुछ लोग दूध में सोडा या कोल्डड्रिंक डालकर पीते हैं। यह स्वाद की गुलामी आगे चलकर उन्हें कितनी भारी पड़ती है, इसका वर्णन करके विस्तार करने की जगह यहाँ नहीं है। विरुद्ध आहार कितनी बीमारियों का जनक है, उन्हें पता नहीं।

खीर के साथ नमकवाला भोजन, खिचड़ी के साथ आइसक्रीम, मिल्कशेक – ये सब विरुद्ध आहार हैं। इनसे पाश्चात्य जगत के बाल, युवा, वृद्ध सभी बहुत सारी बीमारियों के शिकार बन रहे हैं। अतः हे बुद्धिमानो ! खट्टे-खारे के साथ भूलकर भी दूध की चीज न खायें-न खिलायें।”

ऋतु परिवर्तन विशेष

शीत व उष्ण ऋतुओं के बीच में आऩे वाली वसंत ऋतु में न अति शीत, न अति उष्ण पदार्थों का सेवन करना चाहिए। सर्दियों के मेवे, पाक, दही, खजूर, नारियल, गुड़ आदि छोड़कर अब ज्वार की धानी, भुने चने, पुराने जौ, मूँग, तिल का तेल, परवल, सूरन, सहिजन, सूआ, बथुआ, मेथी, कोमल बेंगन, ताजी नरम मूली तथा अदरक का सेवन करना चाहिए।

सुबह अनुकूल हो ऐसे किसी प्रकार का व्यायाम जरूर करें। वसंत में प्रकुपित होने वाला कफ इससे पिघलता है। प्राणायाम विशेषतः सूर्यभेदी प्राणायाम (बायाँ नथुना बंद करके दाहिने से गहरा श्वास लेकर एक मिनट रोक दें फिर बायें से छोड़ें) व सूर्यनमस्कार कफ के शमन का उत्तम उपाय है। इन दिनों दिन में सोना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है।

कफजन्य रोगों में कफ सुखाने के लिए दवाइयों का उपयोग न करें। खानपान में उचित परिवर्तन, प्राणायाम, उपवास, तुलसी पत्र व गोमूत्र के सेवन एवं सूर्यस्नान से कफ का शमन होता है।

जोड़ों के दर्द का अनुभूत प्रयोग

एक चम्मच पिसा हुआ मेथीदाना, आधा चम्मच हल्दी चूर्ण और आधा चम्मच पीपरामूल चूर्ण एक गिलास पानी में रात को भिगो दें। सुबह आधा गिलास बचने तक उबालें। गुनगुना होने पर छान के खाली पेट केवल पानी पी लें। दर्द खत्म होने तक ले सकते हैं। 20-30 दिन में लाभ महसूस होगा। दर्द अधिक हो तो ज्यादा दिन भी प्रयोग कर सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 31, 32 अंक 230

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