चैतन्य महाप्रभु का भगवत्प्रेम

चैतन्य महाप्रभु का भगवत्प्रेम


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

(श्री चैतन्य महाप्रभु जयन्तीः 8 मार्च)

साधुनां दर्शनं पातकनाशनम्।

संत के दर्शन से पाप नष्ट होते हैं। भगवान की जब कृपा होती है, अंतरात्मा भगवान जब प्रसन्न होते हैं तब साधु-संगति की रुचि होती है।

जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये।

(विनयपत्रिकाः 136.10)

ऐतिहासिक घटित घटना हैः जगन्ननाथ मंदिर के दर्शन करके चैतन्य महाप्रभु कुछ दिन जगन्नाथपुरी में ही रहे थे। उस समय उत्कल (ओड़िशा) के बुद्धिमान राजा प्रतापरूद्र ने चैतन्य महाप्रभु का यश सुना कि ये संत भगवान का कीर्तन करते हैं और दृष्टि डालते हैं तो लोग पवित्र होते हैं, उन्हें भक्ति मिलती है, रस मिलता है, प्रेम-प्रसाद मिलता है। तो प्रतापरूद्र चैतन्य महाप्रभु के दर्शन की उत्कंठा लेकर जगन्नाथपुरी आये और महाप्रभु के सेवक से प्रार्थना कीः ʹमहाप्रभु से कहिये कि हम आपके दर्शन करने के लिए आना चाहते हैं।ʹ

गौरांग ने कहाः ʹराजा तो राजसी होते हैं, स्वार्थी होते हैं। वह तो संसार की खटपट की बात करेगा। यहाँ तो भगवान की प्रीति की बात होती है। हमारा समय खराब होगा। शराबी से, जुआरी से तो हम मिलेंगे क्योंकि शराबी, जुआरी को तो लगता है कि ʹहम गलत करते हैंʹ पर राजा तो सब करता है फिर भी ʹमैं राजा हूँʹ ऐसा उसे घमंड होता है इसलिए उसको बोलो हम नहीं मिलना चाहते।”

सेवक ने आकर बताया तो राजा ने अपना सिर पीट लिया कि ʹमैं कैसा अभागा हूँ कि संत हमसे मिलना नहीं चाहते। मेरे को संत का दर्शन-सत्संग नहीं मिलता। सच कहा है कि भोगी लोग यहाँ बड़े दिखते हैं पर मरने के बाद नरकों में जाते हैं। भक्त और योगी लोग यहाँ साधारण दिखते हैं लेकिन उनका अमर जीवन परमात्मा तक पहुँचता है। संत मिलेंगे नहीं तो अब मैं क्या करूँ ?ʹ दुःखी होने लगे। प्रतापरूद्र ने सोचा कि ʹमैं तो प्राण त्याग दूँगा। संत ने मेरे को ठुकरा दिया, संत ने दर्शन देने से मना कर दिया तो फिर यह जिंदगी किस काम की !ʹ

भक्त मंत्रियों ने समझाया कि “आत्महत्या करने से मंगल नहीं होता है। जब भगवान जगन्नाथ की यात्रा निकलती है, उस समय चैतन्य महाप्रभु ʹजय-जगन्नाथ, जय-जगन्नाथ, हरि बोल, हरि बोल…. हरि ૐ… हरि ૐ.. हरि बोल, हरि बोल….ʹ कीर्तन करते हैं, भक्त लोग भी कीर्तन करते हैं। जब गौरांग कीर्तन करेंगे, प्रेमाभक्ति के आवेश में नाचेंगे और भावविभोर होंगे, भावसमाधि में होंगे, उस समय तुम ʹश्रीमद् भागवतʹ के दसवें स्कंध के 31वें अध्याय का यह 9वाँ श्लोक उच्चारण करना-

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।

श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति से भूरिदा जनाः।।

ʹहे प्रभु ! तुम्हारी कथा अमृतस्वरूप है। विरह से सताये हुए लोगों के लिए तो यह जीवन-संजीवनी है, जीवनसर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी, महात्माओं, भक्तकवियों ने उसका गान किया है। यह सारे पापों को तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्र से परम मंगल, परम कल्याण का दान भी करती है। यह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी इस लीला, कथा का गान करते हैं, वास्तव में भूलोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।ʹ

तुम खूब प्रेम से इसका उच्चारण करोगे तो गौरांग भावसमाधि में भी भागवत का यह श्लोक सुनेंगे और जिसकी जिह्वा पर भगवान का निर्मल यशोगान होगा गौरांग निश्चय ही उसे अपने हृदय से लगा लेंगे।”

राजा प्रतापरूद्र बड़े विद्वान थे और अच्छे पुरुषों का संग करते थे। उन्हें राजा होने का अभिमान नहीं था। राजा ने श्लोक कंठस्थ किया।

रथयात्रा के समय गौरांग तो ʹहरि बोल, हरि बोल…..ʹ कर रहे थे। राजा ने वह श्लोक बड़े मधुर स्वर से गया। मन में भाव रखा कि ʹसंत मेरे पर राजी हो जायें।ʹ अरे, राजी तो क्या हों, वे तो आँखें बन्द किये दौड़े-दौड़े आये। जहाँ से आवाज सुनायी पड़ी थी, वहाँ जाकर राजा को अपने गले से लगा लिया। राजा को जो संत मिलना नहीं चाहते थे, उन्होंने आकर आलिंगन किया तो राजा तो रोमांचित हो गया, हृदय में आनंद-आनंद आने लगा, शांति का एहसास होने लगा। लोगों ने कहा कि ʹउत्कल-सम्राट तो आज पावन हो गया, संत ने स्पर्श कर लिया।ʹ संत के स्पर्श से तो राजा प्रतापरूद्र आनंदित हो गये, भक्त बन गये। कटक-भुवनेश्वर क्षेत्र का सम्राट तो त्रिभुवन में व्याप्त परमात्मा का आनंद, भक्ति और भगवान के प्यारे संतों का दर्शन पाकर धन्य-धन्य हो गया !

जो भगवत्कथा का अमृतपान करता है वह भाग्यशाली है। भगवत्कथा पापों की दलदल को सुखा देती है। भगवत्कथा पुण्यसलिल बहा देती है। भगवत्कीर्तन और भगवत्कथा सभी नस-नाड़ियों को शुद्ध करते हैं। जो भगवान के लिए तरसता है, भगवान के लिए समय निकालता है, भगवान उसका यश, उसका सुख शाश्वत कर देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 28, 29 अंक 230

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