जानो उसको जिसकी है ʹहाँʹ में ʹहाँʹ – पूज्य बापू जी

जानो उसको जिसकी है ʹहाँʹ में ʹहाँʹ – पूज्य बापू जी


संसार का सार शरीर है। शरीर का सार इऩ्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों का सार प्राण हैं। प्राणों का सार मन है। मन का सार बुद्धि है। बुद्धि का सार अहं है, जीव है। जीव का सार चिदावली है और चिदावली का सार वह चैतन्य आत्मदेव है। उसी आत्मदेव से संवित् (वृत्ति) उठती है, फुरना (संकल्प) उठता है। उसी से श्वास को भीतर भरने और बाहर फेंकने की प्रक्रिया होती है।

स्टोव कम्पनी का मालिक अथवा टायर-टयूब कम्पनी का मालिक खुद भी खड़ा हो जाये तो भी एक बार छिद्र होने न स्टोव जल सकता है, न टयूब गाड़ी के काम आ सकती है। छिद्र हो गया तो फिर उसमें हवा नहीं रूकती है। लेकिन हमारे शरीर में देखो तो नाक का छिद्र, मुँह का छिद्र, कान का छिद्र… इसमें नौ-नौ छिद्र हैं फिर भी वायु कैसे आती है, जाती है ! इसमें तो नौ-नौ हैं फिर भी चल रहा है तो कैसी विलक्षण शक्ति है इस चैतन्यदेव की ! श्वास खत्म हो जाते हैं तो आदमी मर जाता है। कैसे प्रारब्ध की व्यवस्था का सहयोग देता है !

यह देव सबको सहयोग देता है। चोरी करने का इरादा करो तो बुद्धि में वही ज्ञान का सहयोग देता है। साहूकार बनना है तो उसमें सहयोग देता है। ʹवह दूर हैʹ – दूर है…ʹ तो दूर ही लगेगा और सोचोगे कि वह मन्दिर में है तो मन्दिर में ही दिखेगा। जैसा उसको मानो वैसा ही आपको सहयोग देता है ʹहाँʹ में। ૐ…. बराबर हैʹ. ૐ…ʹठीक है।ʹ ૐ मतलब ʹहाँʹ, साधो ! ʹहाँʹ जैसे विद्युत है न, पंखे में लगा दो तो ʹहाँʹ, टयूबलाइट में लगा दो…. ʹहाँʹ, टीवी में ʹहाँʹ, ʹगीजरʹ में ʹहाँʹ, फ्रिज में ʹहाँʹ… सत्ता देती है जहाँ भी लगा दो वही। गीजर में लगा दी, लो गरम पानी, फ्रिज में लगा दी, लो ठंडा पानी। टुल्लू में लगा दो, लो ऊपर पानी… हाँ भाई ! जब भगवान की बनायी हुई विद्युत भी ʹहाँʹ में ʹहाँʹ कर देती है तो भगवान में भी ʹहाँʹ में ʹहाँʹ करेंगे ही।

ʹश्रीविष्णुसहस्रनामʹ में आता हैः भयकृत भयनाशन। भगवान भय पैदा करने वाले भी है और भय का नाश करने वाले भी हैं। पशु में भय पैदा कर देते हैं और शेर में गर्जना का बल भर देते हैं। रावण के पक्ष में लड़ने वालों को राम के पक्ष मेंच लड़ने वालों के प्रति बल दे देते हैं और राम जी के पक्ष में लड़ने वालों को रावण के पक्षवालों को पीटने में बल दे देते हैं- लो लड़ो, मार दो इनको। यह कैसा दैव है !

यह अंतर्यामी देव कहता है, ʹयह प्रकृति में हो रहा है – दो नम्बर में। मैं एक नम्बर हूँ – सत्ता देता हूँ और दो नम्बर (प्रकृति) की लीला करता हूँ। जिससे देखा जाता है वह एक नम्बर मैं हूँ, और जो दिखता है वह दो नम्बर मेरी शक्ति है। ʹयह मेरा मन है, यह मेरा हाथ है, यह मेरा पैर है, यह मेरी बुद्धि है, यह मेरा अहं है…ʹ यह सब दो नम्बर, मैं एक नम्बर।ʹ

तो एक नम्बर देव ʹमैंʹ में प्रीति करनी है, उसी में विश्रान्ति पानी है, उसी का ज्ञान पाना है।

ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशेभ्यः।

उस देव को जाना तो सब पाशों से छूट जाओगे। आपको बड़ी भयंकर सजा सुना दी जाये, डर नहीं लगेगा। खूब निंदा कर दी जाये, आप विक्षिप्त नहीं होंगे, बाहर से दिखें तब भी भीतर गहराई में नहीं होंगे, बाहर से दिखें तब भी भीतर गहराई में नहीं होंगे। जय-जयकार कर दी जाय, सारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, भय, चिंता, शोक, मुसीबत, जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि सब-का-सब टिकेगा ही नहीं। बहते पानी में जैसे उँगली लगाओ और अक्षर लिखते जाओ, हस्ताक्षर भी करते जाओ और मुहरें भी मारते जाओ, कुछ भी टिकेगा नहीं। ऐसे ही उस देव को जाना तो सारे कर्म ऐसे ही हो जायेंगे। जो कुछ भी कर्म आपने किये, उन कर्मों का कर्तृत्व नहीं रहेगा आपको, कर्मबन्धन नहीं रहेगा, भोक्तृत्व नहीं रहेगा। सुखी से दिखोगे लेकिन साधारण लोगों जैसा सुख नहीं रहेगा, दुःखी दिखोगे लेकिन साधारण लोगों जैसा दुःख नहीं रहेगा…. आभासमात्र ! दुःखाभास, सुखाभास… जैसे रंगमंच पर सुखी-दुःखी दिखते हैं, ʹहाय ! मैं तो मर गया…. मेरा इकलौता बेटा चला गया। हाय रे हाय !ʹ मेरी तो शादी हो गयी… आय-हाय !ʹ

तो उस देव को जानो। उसको जानने के लिए ऐसे प्रश्न करो कि ʹमैं क्या करूँ ? कैसे जानूँ ? हे देव ! तुम ही बताओ तो मैं कौन हूँ ? आप कौन हैं ? आपको जानने वाला मैं कौन हूँ और आप जानने में आऩे वाले देव कौन हो ?ʹ ऐसा करके उस देव की प्रार्थना करो। अंदर से आवाज आ जाय, भीतर से। अरे ! भीतर से आवाज क्या आयेगी, पूछने वाला धीरे-धीरे उसी में शांत हो जायेगा… आनंद ही आनंद ! फिर क्या होता है उसका वाणी वर्णन नहीं कर सकती। ऐसा वह देव है ! कल्पना नहीं है, सचमुच में है। ऐसा नहीं समझना कि कल्पना है, ऐसा है-वैसा है….। हाँ, ध्यान में कुछ दिखा तो उसमें हो सकती है कल्पना लेकिन इस देव के वास्तविक स्वभाव के अनुभव में… ऐसा नहीं कि ध्यान में सब कल्पना ही होती है, ध्यान में तो आधिदैविक जगत के दृश्य भी दिखते हैं लेकिन यह देव तो वास्तविक देव है। आधिदैविक नहीं है, आधिभौतिक नहीं है, सबका आदि व सबका अंत… सबकी उत्पत्ति का और सबके प्रलय का स्थान है वह देव। वासुदेव, अच्युत देव….. ૐ नारायण…. नारायण… नारायण….. ૐૐૐૐૐૐ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 245

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