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जो तेरा है तो सो मेरा हो जाय


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

राजा बृहदश्व बड़ी ही श्रद्धा से अपने गुरुदेव का पूजन करता था । वह गुरु में भगवद्बुद्धि करके उनके सम्मुख बैठकर उन्हें एकटक निहारा करता था । ऐसे समय गुरु के रूप में छिपे हुए परमात्मा की कृपा उस पर बरसने लगती । इससे उसका पुण्य बढ़ता गया । राजा बृहदश्व के राजकाज में कृषि-उत्पादन और वृष्टि आदि समुचित रूप से होने लगे । जो राजा पुण्यात्मा होता है, प्रकृति के सब साधन उसके अनुकूल होने लगते हैं । अन्न, धन, वैभव बढ़ता हुआ देखकर बृहदश्व को यह विचार आया कि ‘मुझे अश्वमेध यज्ञ करना चाहिए । सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला इंद्र बनता है ।

बृहदश्व ने अश्वमेध यज्ञ का श्रीगणेश किया । राजा यज्ञ करता रहा ।

बृहदश्व के गुरुदेव किसी और जगह एकांत में समाधि में बैठे थे । जब समाधि से उतरे तब सोचा कि ‘अहोभाव से एकटक निहारकर मुझको अपने में और अपने को मुझमें देखने वाला मेरा शिष्य बृहदश्व क्या कर रहा है ?’

गुरु ने देखा कि ‘बृहदश्व तो सौ यज्ञ करके पुण्य कमाने के चक्कर में लगा है । बानवे यज्ञ वह कर चुका है । अब सौ पूरे करेगा तो फिर मरकर इंद्र बनेगा और हजारों लाखों वर्ष स्वर्ग के भोग भोगेगा । मेरे सान्निध्य में तो पुण्यलाभ किया मगर अप्सराओं का नाच-गान देखकर वह पुण्य खत्म होने पर फिर मनुष्य बनेगा । अरे ! यह कहाँ जा रहा है ! मनुष्य से गिरते-गिरते हिरण, खरगोश और कीड़े आदि की योनियों में भी तो जा सकता है !’

गुरुदेव ने अपना शरीर छोड़ दिया और नया शरीर धारण किया । वे जीवनमुक्त महापुरुष कभी शरीर को ‘मैं’ नहीं मानते, सदा ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के नित्य निरंजन स्वरूप में स्मरणशील होते हैं । उनके लिए शरीर छोड़ना और धारण करना भी खेल है । जैसे वामन भगवान अपने भक्त बलि के आगे ब्रह्मचारी का रूप लेकर आ गये, ऐसे ही राजा बृहदश्व के गुरु नौ वर्ष के बटुक ब्रह्मचारी बनकर पधारे । बृहदश्व 99 यज्ञ पूरे कर चुका था, सौवाँ यज्ञ चल रहा था ।

तीन चीजें हमारा पीछा जन्म-जन्मांतर तक करती चली जाती हैं । एक तो हमारे कर्म, जब तक आत्मज्ञानी गुरु की ज्ञानाग्नि हमारे कर्मों को नहीं जलाती, तब तक कर्म पीछा नहीं छोड़ते । दूसरा चैतन्य परमात्मा, ईश्वर पीछा नहीं छोड़ते और तीसरा सद्गुरु सत्शिष्य का पीछा हीं छोड़ते ।

बृहदश्व के पास गुरुदेव आये केवल नौ वर्ष के बटुक वामदेव के स्वरूप में । राजा उठकर खड़ा हो गया । अर्घ्य-पाद्य से उनका पूजन करके आसन दिया । बृहदश्व बोलाः “आज्ञा दीजिये प्रभु ! मेरे द्वार पर जो भी ब्राह्मण आता है उसे मैं मनचाहा दान देता हूँ । अश्वमेध यज्ञ करने वाले के लिए यह नियम है कि याचक ब्राह्मण जो कुछ भी माँगे वह अदेय नहीं होना चाहिए । महाराज ! मेरे कुछ भी अदेय नहीं है । आप जो आज्ञा करें सो मैं आपको अर्पित करूँगा ।”

बटुक ब्राह्मण बोलेः “अगर बदल गया तो ?”

बृहदश्वः “महाराज ! नहीं बदलूँगा ।”

ब्राह्मणः “पहले संकल्प कर ।”

जैसे वामन भगवान ने बलि से अंजलि में जल देकर संकल्प कराया था, ठीक वैसे ही बृहदश्व से सद्गुरुदेव भगवान वामदेव जी ने संकल्प कराया ।

ब्राह्मणः “संकल्प कर कि जो कुछ मैं माँगूगा वह सब कुछ तू दे देगा ।”

बृहदश्वः “महाराज ! आप जो कुछ भी माँगेगे, मैं सब कुछ दूँगा । आप हजार सोना मोहरें, दस हजार सोना मोहरं तो क्या, अरे मेरा पूरा राज्य भी माँगेंगे तो भी मुझे देना है क्योंकि अश्वमेध यज्ञ करने वाले को अपने वचन का पालन करना पड़ता है ।”

ब्राह्मणः “मैं और कुछ नहीं माँगता हँ, जो तेरा है सो मेरा हो जाय ।”

कृपालु गुरुदेव ने ऐसा माँग लिया कि बृहदश्व निहाल हो जाय, कभी कंगाल न हो, कभी किसी के गर्भ में फिर उलटा न लटके, कभी विकार उसका पीछा न करें, कभी पुण्य और पाप की चोटें न सहे ।

न मौज उड़ाना अच्छा है, न चोटें खाना अच्छा है ।

अंग हो अक्ल ऊँची, तो रब को पाना अच्छा है ।।

शिष्य मौज मजा उड़ाने के लिए यज्ञ कर रहा था । गुरु ने कहाः “जो तेरा है सो मेरा हो जाय ।”

यहाँ राजा को अपने गुरु-शिष्य के संबंध का ज्ञान नहीं है । एक तेजस्वी ब्राह्मण है इस नाते बृहदश्व ने सब दे डाला । फिर वामदेव ने कहाः “देखो, दान तो दे दिया, अब दक्षिणा लाओ ।”

राजा ने अपने पुत्र की ओर देखा तो वामदेव ने कहाः “बृहदश्व ! जो तेरा है वह मेरा हो गया है ।”

जहॉँ-जहाँ उसका मन जाता, गुरु इशारा करते कि जो तेरा है सो मेरा हो गया है । अब राजा विह्व हो गया । मन उद्विग्न हो गया और उसने एक झोंका खाया । स्वप्न कहो, गुरु का संकल्प कह या ईश्वर की माया कहो लेकिन उसने देखा कि मैं मर गया हूँ । मरकर यमपुरी गया हूँ और मेरा हिसाब देखा जा रहा है ।

यमदूतों ने उससे कहाः “तुमने सौ यज्ञ पूरे नहीं किये, 99 ही यज्ञ हुए है । इसलिए इंद्र बनने का अधिकार तुमको अभी प्राप्त नहीं होगा, उपेन्द्र (इन्द्र के छोटे भाई) बनने का अधिकार प्राप्त होगा । कर्ता होकर जो सत्कर्म किये उनका फल सुख भी मिलेगा और उन कर्मं में जो गलतियाँ हुईं – तुमने इतने यज्ञ किये तो प्रजा का जो कर (टैक्स) आदि लेकर खून चूसा, यज्ञ में स्वाहा… स्वाहा… करने पर जो जीव जंतु मरे – उनका फल दुःख भी मिलेगा । तो बताओ, पहले उपेन्द्र पद का सुख लेना है या जो पापकर्म हुए है उनकी सजा भोगनी है ?”

बृहदश्व ने कहाः “पहले दुःख भोगकर फिर सुख भोगना ठीक होगा ।”

उसी क्षण वह मरुभूमि में गिराया गया । मरूभूमि के बालू में तपने लगा । धूप इतना नहीं तपाती जितना धूप से तपा हुआ बालू तपाता है । राजा पीड़ा से मुर्च्छित हो गया । मूर्च्छा से उठने पर विचार आया कि मुझे यमदूतों ने यहाँ क्यों फेंका ? जो मेरा था वह तो मैंने बटुक ब्राह्मण को दे दिया । जब सब दे दिया तो पाप-पुण्य भी दे दिया, फिर पाप का फल मेरा कैसे रहा ?’

बृहदश्व बोलाः यमराज ! यह कैसा अन्याय है ! मैंने तो सब दे डाला था फिर मुझे मरूभूमि में क्यों भेजा गया ?”

यह कहते हुए वह देखता है कि वामदेव जी उसके सम्मुख मुस्करा रहे हैं । वामदेव जी संकल्प किया तो बृहदश्व को उनमें अपने गुरुदेव का दीदार होने लगा ।

बृहदश्व बोलाः “गुरु जी आप ! भूल हो गयी ।”

वामदेव जी बोलेः “बेटा ! तूने जो कुछ मेरा हो, वह सब आपका हो जाय’ ऐसा कह तो दिया, फिर भी तुझे सत्कर्म का फल भोगने की जो वासना थी उसके कारण मरूभूमि में गिराया गया । इस वासना को छोड़ दे । इंद्र होने की वासना करता है तो मरूभूमि में भी जाना पड़ेगा और माँ के गर्भ में भी जाना पड़ेगा । तू इंद्र होने की इच्छा न कर, देवता होने की इच्छा न कर । तू तो ‘जो कुछ मेरा है सो आपका हो जाय….’ कर दे । तब तेरा पुण्य तेरा नहीं रहेगा, तेरा पाप तेरा नहीं रहेगा । जब पुण्य और पाप तेरा नहीं तब जीवभाव भी तेरा नहीं । जब जीवभाव तेरा नहीं तो जो मैं हूँ सो तू हो जायेगा और जो तू है सो मैं हो जाऊँगा ।”

बृहदश्व को उसके गुरु ने इंद्रासन के लालच से बचाकर इच्छापूर्ति की परेशानी से हटाके इच्छा-निवृत्ति का उपदेश दिया और उस सत्पाज्ञ शिष्य ने ‘यदगत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।’ उस परम सत्ता के धाम में समा के, जिसे पाकर फिर संसार में वापस न लौटना पड़े ऐसे आत्मज्ञान को पा लिया ।

अगर आप वह परम पद चाहते हो तो मूलबंध करके जीभ तालू में लगाओ । श्वास अंदर जाता है तो ‘सो‘, बाहर आता है तो ‘हम्‘…. सोऽहम्सर्वोऽहम्आकाशस्वरूपोऽहम्चिदाकाशोऽहम्… इस अत्यंत ऊँची, सूक्ष्मतम साधना से निःसंकल्प अवस्था में पहुँच जाओ, ब्राह्मी स्थिति में आ जाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 18-20 अंक 198

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ऐसी हो गुरु में निष्ठा


सभी शिष्यों में अपने गुरु के प्रति प्रेम तो होता ही है पर गुरुभक्त की गुरुभक्ति इतनी अवस्था में पहुँच जाय कि गुरु जो कहे वही उसके लिए प्रमाण हो जाय तो फिर उसको अपने गुरु में एक भी दोष दिखायी नहीं देगा । पांडुरोगवाले मनुष्य को सब कुछ पीला-ही-पीला दिखायी देता है, वैसे ही उस शिष्य को सब तरफ ईश्वर ही सब कुछ हो गया है – ऐसा दिखने लगता है ।

एक दिन श्री रामकृष्ण परमहंस अपने एक सरल परंतु वादप्रिय स्वभाववाले शिष्य को कोई बात समझा रहे थे पर वह बात उसकी बुद्धि को जँच ही नहीं रही थी । परमहंस जी के तीन-चार बार समझाने पर भी जब उसका तर्क बंद नहीं हुआ, तब कुछ क्रुद्ध-से होकर परंतु मीठे शब्दों में वे उससे बोलेः “तू कैसा मनुष्य है रे ? मैं स्वयं कहता जा रहा हूँ तो भी तुझे निश्चय नहीं होता ?” तब तो उस शिष्य का गुरु-प्रेम जागृत हो गया और वह कुछ लज्जित होकर बोलाः “महाराज ! भूल हुई, स्वयं आप ही कह रहे थे और मैं नहीं मान रहा था । इतनी देर तक मैं अपनी विचारशक्ति के बल पर व्यर्थ वाद कर रहा था । क्षमा करें ।”

उसकी बात सुनकर हँसते-हँसते रामकृष्ण बोलेः “गुरुभक्ति कैसी होनी चाहिए बताऊँ ? गुरु जैसा कहें वैसा ही शिष्य को तुरंत दिखने लग जाय ।

एक दिन अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण घूमने जा रहे थे । श्रीकृष्ण एकदम आकाश की ओर देखकर बोलेः ‘अर्जुन ! वह देखो, कैसा सुंदर कबूतर उड़ता जा रहा है ! आकाश की ओर देखकर अर्जुन तुरंत बोलाः ‘हाँ महाराज ! कैसा सुंदर कबूतर है !’ परंतु पुनः श्रीकृष्ण ऊपर की ओर देखकर बोलेः ‘नहीं-नहीं अर्जुन ! यह तो कबूतर नहीं है ।’ अर्जुन भी पुनः उधर देखकर बोलाः ‘हाँ, सचमुच प्रभो ! यह तो कबूतर मालूम नहीं पड़ता ।’

अब तू इतना ध्यान में रख कि अर्जुन बड़ा सत्यनिष्ठ था । व्यर्थ में श्रीकृष्ण की चापलूसी करने के लिए उसने ऐसा नहीं कहा परंतु श्रीकृष्ण के प्रति उसकी इतनी श्रद्धा और भक्ति थी कि श्रीकृष्ण ने जैसा कहा बिल्कुल वैसा ही अर्जुन को दिखने लगा ।”

यह ईश्वीय शक्ति सभी मनुष्यों के पास कम या अधिक प्रमाण में होती है । इसलिए गरुभक्तिपरायण साधक अंत में ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है कि उस समय यह शक्ति स्वयं उसमें ही प्रकट होकर उसके मन की सभी शंकाओं का समाधान कर देती है और अत्यंत गूढ़ आध्यात्मिक तत्त्वों को उसे समझा देती है । तब उसे अपने सशयों को दूर करने के लिए किसी दूसरी जगह नहीं जाना पड़ता ।

हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने एक व्यक्ति से बातचीत करते हुए कहाः “कोई सत्पात्र हो तो हम संकल्प करके उसको अभी-अभी भगवान के दर्शन करा दें ।”

उसने पूछाः “महाराज ! कैसे ? सत्पात्र की पहचान क्या है ?”

“अत्यंत श्रद्धा हो और संयमी जीवन हो ।”

“अत्यंत श्रद्धा का क्या अर्थ ?”

मैं उसको बकरी दिखाऊँ और बोलूँ कि यह गाय है तो उसको गाय दिखनी चाहिए, ऐसी श्रद्धा हो । हृदयपूर्वक मानने लग जाय, हमारे भाव के साथ उसका भाव उसी समय एक हो जाय, हमारे चित्त के साथ उसका चित्त एकाकार हो जाय तो फिर हमारा अनुभव उसका अनुभव हो जायेगा ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009,  पृष्ठ संख्या 26 अंक 198

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गुरु की आवश्यकता क्यों ?


हर मनुष्य के भीतर ज्ञान का भण्डार छुपा है अर्थात् उसमें गुरुत्व विद्यमान है परंतु उसके उद्घाटन के लिए गुरु की आवश्यकता है । किसी भी दिशा में ज्ञान प्राप्त करने के लिए उस विषय के गुरु की जरूरत होती है । मनुष्य को डॉक्टर बनना हो तो डॉक्टर की, वकील बनना हो तो वकील की, विद्वान बनना हो तो विद्वान की और चोर बनना हो तो चोर की शरण जाकर उस विषय का ज्ञान लेना पड़ता है । तो फिर सच्चे सुख का जो अमिट खजाना है, उस सच्चिदानंद परमात्मा का ज्ञान क्या ऐसे ही मिल जायेगा !

सहजो कारज संसार को गुरु बिन होत नाहीं ।

हरि तो गुरु बिन क्या मिले समझ ले मन माहीं ।।

परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए किसी देहधारी पूर्ण गुरु की आवश्यकता क्यों होती है, इसे समझने के लिए पहले इस बात को भलीभाँति मन में बैठा लेना जरूरी है कि पूर्ण संत या सच्चे सद्गुरु परमात्मा के ही व्यक्त रूप होते हैं । सच्चे गुरु और परमात्मा के बीच कोई अंतर नहीं होता । अहंकार ही मनुष्य और परमात्मा के बीच एकमात्र आवरण है । सच्चे संत इस आवरण को पूर्णतः दूर कर परमात्मा से उसी प्रकार एकाकार हो जाते हैं, जैसे नदी समुद्र में मिलकर एकाकार हो जाती है ।

मनुष्य भौतिक सीमाओं के कारण प्रभु के अभौतिक रूप का दर्शन करने में सर्वथा असमर्थ है । परमात्मा तक उसकी पहुँच तभी हो सकती है जब स्वयं परमात्मा मनुष्य का रूप धारण कर मनुष्य से उसके भौतिक स्तर पर आकर मिलें । दयालु परमात्मा मनुष्य के उद्धार के लिए ठीक यही रास्ता अपनाते है । वे मानवीय रूप धारण कर संसार में आते है और परमात्मा के इसी मानवीय रूप को ‘गुरु’ नाम दिया गया है अर्थात् गुरु मनुष्य रूप में परमात्मा ही हैं । अपने मानवीय रूप के माध्यम से वे जीवों को जगाते हैं और उन्हें सही मार्ग दिखलाकर दीक्षा व कृपा के सहारे अपने से मिलाते हैं । दीक्षा ही परमात्मप्राप्ति का साधन है ।

योजयति परे तत्त्वे स दीक्षयाऽऽचार्यमूर्तिस्थः ।

‘सर्वानुग्राहक परमेश्वर ही आचार्य-शरीर में स्थित होकर दीक्षा द्वारा जीव को परम शिव-तत्त्व की प्राप्ति कराते हैं ।’

हमें ज्ञान-वैराग्यसम्पन्न सद्गुरु मिलने चाहिए । यदि सगुण और निर्गुण भक्ति की परिभाषा करें तो हम कह सकते हैं कि ज्ञान, वैराग्य, क्षमा, शील, विचार, संतोष आदि सद्गुणसम्पन्न ब्रह्मनिष्ठ संत ही सगुण भगवान हैं । उनके प्रति आत्मसमर्पण एवं श्रद्धासमर्पण सगुण भक्ति है और सत्त्व, रजस् तमस् इन तीन गुणों से रहित जो सबका अपना चेतन स्वरूप है, यही निर्गुण भगवान है । अतएव दृश्य विषयो से लौटकर स्वस्वरूप चेतन में स्थित हो जाना निर्गुण भक्ति है । भारतीय संस्कृति, दर्शन, अध्यात्म, धर्म और साधना-परम्परा में गुरु का अनन्य स्थान है । हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख आदि सभी धर्म सम्प्रदायों में गुरु-तत्त्व हमेशा शीर्षस्थ रहा है ।

कुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य की पूजा गलत है । परंतु मनुष्य की पूजा न की जाय तो किसकी की जाय, पत्थर की या शून्य की ? किसी पत्थर की मूर्ति की पूजा की जाती है तो वह भी एक मनुष्य की आकृति है और शून्य-निराकार आदि तो एक धारणा है । यह ठीक है कि मनुष्य में राक्षस और पशु भी है परंतु मनुष्य ही में संत सद्गुरु, देव और भगवान भी हैं ।

निराकार निज रूप है प्रेम प्रीति सों सेव ।

जो चाहे आकार को साधु परतछ (प्रत्यक्ष) देव ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 198

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