ऐसी हो गुरु में निष्ठा

ऐसी हो गुरु में निष्ठा


सभी शिष्यों में अपने गुरु के प्रति प्रेम तो होता ही है पर गुरुभक्त की गुरुभक्ति इतनी अवस्था में पहुँच जाय कि गुरु जो कहे वही उसके लिए प्रमाण हो जाय तो फिर उसको अपने गुरु में एक भी दोष दिखायी नहीं देगा । पांडुरोगवाले मनुष्य को सब कुछ पीला-ही-पीला दिखायी देता है, वैसे ही उस शिष्य को सब तरफ ईश्वर ही सब कुछ हो गया है – ऐसा दिखने लगता है ।

एक दिन श्री रामकृष्ण परमहंस अपने एक सरल परंतु वादप्रिय स्वभाववाले शिष्य को कोई बात समझा रहे थे पर वह बात उसकी बुद्धि को जँच ही नहीं रही थी । परमहंस जी के तीन-चार बार समझाने पर भी जब उसका तर्क बंद नहीं हुआ, तब कुछ क्रुद्ध-से होकर परंतु मीठे शब्दों में वे उससे बोलेः “तू कैसा मनुष्य है रे ? मैं स्वयं कहता जा रहा हूँ तो भी तुझे निश्चय नहीं होता ?” तब तो उस शिष्य का गुरु-प्रेम जागृत हो गया और वह कुछ लज्जित होकर बोलाः “महाराज ! भूल हुई, स्वयं आप ही कह रहे थे और मैं नहीं मान रहा था । इतनी देर तक मैं अपनी विचारशक्ति के बल पर व्यर्थ वाद कर रहा था । क्षमा करें ।”

उसकी बात सुनकर हँसते-हँसते रामकृष्ण बोलेः “गुरुभक्ति कैसी होनी चाहिए बताऊँ ? गुरु जैसा कहें वैसा ही शिष्य को तुरंत दिखने लग जाय ।

एक दिन अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण घूमने जा रहे थे । श्रीकृष्ण एकदम आकाश की ओर देखकर बोलेः ‘अर्जुन ! वह देखो, कैसा सुंदर कबूतर उड़ता जा रहा है ! आकाश की ओर देखकर अर्जुन तुरंत बोलाः ‘हाँ महाराज ! कैसा सुंदर कबूतर है !’ परंतु पुनः श्रीकृष्ण ऊपर की ओर देखकर बोलेः ‘नहीं-नहीं अर्जुन ! यह तो कबूतर नहीं है ।’ अर्जुन भी पुनः उधर देखकर बोलाः ‘हाँ, सचमुच प्रभो ! यह तो कबूतर मालूम नहीं पड़ता ।’

अब तू इतना ध्यान में रख कि अर्जुन बड़ा सत्यनिष्ठ था । व्यर्थ में श्रीकृष्ण की चापलूसी करने के लिए उसने ऐसा नहीं कहा परंतु श्रीकृष्ण के प्रति उसकी इतनी श्रद्धा और भक्ति थी कि श्रीकृष्ण ने जैसा कहा बिल्कुल वैसा ही अर्जुन को दिखने लगा ।”

यह ईश्वीय शक्ति सभी मनुष्यों के पास कम या अधिक प्रमाण में होती है । इसलिए गरुभक्तिपरायण साधक अंत में ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है कि उस समय यह शक्ति स्वयं उसमें ही प्रकट होकर उसके मन की सभी शंकाओं का समाधान कर देती है और अत्यंत गूढ़ आध्यात्मिक तत्त्वों को उसे समझा देती है । तब उसे अपने सशयों को दूर करने के लिए किसी दूसरी जगह नहीं जाना पड़ता ।

हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने एक व्यक्ति से बातचीत करते हुए कहाः “कोई सत्पात्र हो तो हम संकल्प करके उसको अभी-अभी भगवान के दर्शन करा दें ।”

उसने पूछाः “महाराज ! कैसे ? सत्पात्र की पहचान क्या है ?”

“अत्यंत श्रद्धा हो और संयमी जीवन हो ।”

“अत्यंत श्रद्धा का क्या अर्थ ?”

मैं उसको बकरी दिखाऊँ और बोलूँ कि यह गाय है तो उसको गाय दिखनी चाहिए, ऐसी श्रद्धा हो । हृदयपूर्वक मानने लग जाय, हमारे भाव के साथ उसका भाव उसी समय एक हो जाय, हमारे चित्त के साथ उसका चित्त एकाकार हो जाय तो फिर हमारा अनुभव उसका अनुभव हो जायेगा ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009,  पृष्ठ संख्या 26 अंक 198

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