कर्मयोग की सिद्धता

कर्मयोग की सिद्धता


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।।

‘हे धनंजय ! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक के द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किये हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।’ (गीताः 4.41)

संसार में जो भी जन्म-मृत्यु हो रहे हैं, सुख-दुःख हो रहे हैं, वे सारे कर्मों के खेल हैं। कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके…. कर्मों के बन्धन से ही हम मनुष्य लोक में आते हैं। किन्तु यदि कर्म करने का सही ढंग आ जाय तो ये ही कर्म हमें सर्व बंधनों से छुड़ाकर मुक्ति के सिंहासन पर भी प्रतिष्ठित कर सकते हैं।

योगसंन्यस्तकर्माणं….. जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है उसे कर्म बंधन में नहीं बाँधते। यही कर्मयोग है। अगर यह कर्मयोग की कला आ जाय तो किया गया कर्म, कर्मयोग बन जाता है और परमात्मा को समर्पित हो जाता है अन्यथा वही कर्म बंधन का कारण बन जाता है।

जैसे, तलवार चलाने की कला आती है तो तलवार दुश्मन का काम तमाम कर सकती है अगर कला नहीं आती है तो खुद का पैर भी काट सकती है। विद्युत का उपयोग करने की कला है तो विद्युत अंधकार दूर कर सकती है, तरह-तरह के साधनों को चला सकती है। लेकिन अगर उपयोग करने की कला नहीं है तो स्पर्श करने पर मौत भी ला सकती है।

ऐसे ही ये कर्म हैं जो अपने, पितरों के, कुटुंबियों के और समाज के भवबंधन को काटने में सहायक होते हैं परन्तु अगर कर्म करने की कला नहीं है तो अपनी, कुटुंब की और समाज की हानि भी करते हैं।

जिसने कर्म को कर्मयोग में परिणत कर दिया है वह कर्म करते हुए भी बंधायमान नहीं होता है।

वास्तव में कर्म प्रकृति में होते हैं। देह, मन तथा साधनों से कर्म होते हैं और कर्म करने की सत्ता परमात्मा की होती है। कर्म होते हैं साधनों से और साधन मिलते हैं संसार से। फिर भले शरीर साधन हो या मन साधन हो, चाहे रुपया साधन हो या शुद्ध भाव साधन हो। कर्म होते हैं साधनों से, साधन हैं प्रकृति के और प्रकृति है परमात्मा की।

‘परमात्मा की वस्तुएँ परमात्मा के ही संसार के काम आ गयीं, इसमें मैं कर्ता का किस बात का ?’ ऐसा विचार करके जो शास्त्रानुसार कर्म करता है उसके कर्म से कर्म कट जाते हैं और वह कर्मयोग में सफल होकर आत्म-साक्षात्कार कर लेता है।

‘कर्म योगी ऐसा मानता है कि यह शरीर पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी भी नहीं की ओर जा रहा है। ऐसे ही आदि और अंतवाली सब वस्तुएँ बदलने वाली हैं। संसार की इन वस्तुओं को संसार की सेवा में लगाना ही हमारा स्वभाव होना चाहिए, हमारा कर्तव्य होना चाहिए और हमारा आत्मा परमात्मा से अभिन्न है, अतः उस आत्मतत्व को जानने के लिए आत्मविचार करना चाहिए।

शरीर से जो भी कर्म करें, उन कर्मों को ईश्वरार्पित करते हुए परहित के लिए करें। कोई भी काम अपने व्यक्तिगत हित के लिए न करें। अगर व्यक्तिगत हित का विचार छोड़कर काम किया जाता है तो वह काम दिव्य हो जाता है, वही कार्य महान हो जाता है।

‘बापू जी ! हम अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए कर्म न करें तो हम जीयेंगे कैसे ?’

अगर आप व्यक्तिगत लाभ की इच्छा छोड़कर कर्म करते हो तो आपके योग क्षेम की जवाबदारी अनंत की है और जब वह आपका योगक्षेम वहन करेगा तो आपका जीवन दिव्य हो जायेगा।

‘महाराज ! जब अपने हित के लिए कर्म नहीं करना है तो कर्म करें ही क्यों ?’

कर्म किये बिना कोई रह नहीं सकता है। अपने हित का उद्देश्य होगा तो कर्म बाँधेगा। अपना हित छोड़कर परहित के लिए कर्म करेंगे तो कर्म आपके कर्मबंधन काट देंगे।

अपने हित के लिए जो कर्म किये जाते हैं उन कर्मों में फल की आसक्ति होती है। फलासक्ति, भोगासक्ति और कर्मासक्ति ये जीव को बाँधने वाली होती हैं। आसक्ति से किये हुए कर्म से कर्ता की योग्यता कुंठित होती है। अनासक्त होकर किये गये कर्म से दिव्यता निखरती है।

सेठ करोड़ीमल बड़े लोभी थे। उनकी पत्नी सत्संगी थी। उसने देखा की करोड़ों रुपये हो गये फिर भी इनका लोभ छूटा नहीं है। एक बार अपने पति को समझा-बुझाकर कथा में ले गयी।

कथाकार पंडित दान की महिमा का बड़े सुंदर ढंग से वर्णन करते थे। करोड़ीमल ने दान की महिमा सुनी और सुनते-सुनते डोलने लगे। पत्नी बड़ी खुश हो गयी कि ‘चलो, अब ये भक्त बन जायेंगे।’ कथा पूरी होने पर दोनों घर पहुँचे। पत्नी ने बातों-बातों में पूछ लिया कि ‘दान की महिमा सुनी ?’

सेठ बोलेः “बहुत बढ़िया कथा थी। अब मैं कल से ही दान लेना शुरु कर दूँगा।”

पत्नी बेचारी और दुःखी हो गयी कि कथा सुनकर, दान देकर कर्मबंधन काटने की जगह पर सेठ ने तो कर्मबंधन बढ़ाने की बात सोच ली ! और अधिक धन कमाने का लोभ बढ़ा लिया…….

किसी को धनवान देखकर अगर प्यार किया तो आपकी आसक्ति बढ़ जायेगी, किसी को सत्तावान देखकर प्यार करोगे तो आपका अंतःकरण भयभीत रहेगा, किसी की सुंदरता देखकर उससे प्यार करोगे तो कामविकार बढ़ जायेगा और कोई कभी-न-कभी आपके काम आयेगा इसलिए प्यार करोगे तो लोभ, कपट और दीनता बढ़ जायेगी। अतः आप किसी से कुछ लेने की इच्छा न रखें वरन् ‘मुझसे कोई परहित का कार्य हो जाय तो कितना अच्छा !’ ऐसी भावना रखें।

जो धनवान होता है उससे अगर हम मीठी-मीठी बातें करते हैं तो समझो, हमारे मन में धन का लालच है। अगर हम सत्ताधीश के आगे गिड़गिड़ाते हैं तो समझो, हमारे मन में आपका कोई करवाने का लालच है।

चाहे कोई धनवान हो या सत्तावान हो, आप उससे कुछ लेने की इच्छा न रखो वरन् उसके हित की भावना रखो। आप कुछ लेने के लिए, कुछ पाने के लिए कोई प्रवृत्ति न करो वरन् किसी का हित हो  इसलिए प्रवृत्ति करो। फिर देखो जीने का मजा…. आपके  प्रारब्ध में जो कुछ होगा वह तो खिंचा चला ही आयेगा। आप चाहो तो उसका उपयोग करो अथवा ठुकरा दो आपकी मर्जी।

मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, फल भोगने में नहीं। कर्म करके फल पाने की इच्छा छोड़ते ही कर्म करने की आसक्ति छूट जायेगी। कर्म ऐसे करो कि कर्म करने से आपका मन उपराम हो जाय, विचार ऐसे करो कि विचारों का चलना बंद हो जाय, देखो ऐसा कि देखने की वासना मिट जाय, सुनो ऐसा कि संसार का सुनना खत्म हो जाय…. फिर जो सुनो वह ईश्वरसम्बन्धी ही हो, जो देखो वह ईश्वरमय ही दिखायी पड़े, जो बोलो वह ईश्वर के विषय में ही हो, जो विचार करो वह ईश्वरसम्बन्धी ही हो और जो करो वह ईश्वरमय ही हो। ऐसा करने से कर्मबंधन कट जायेंगे और आपका कर्मयोग सिद्ध हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002,  पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 114

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