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ब्रह्मज्ञान क्यों जरूरी है ? – पूज्य बापू जी



सारे सुख-दुःख छू हो जायेंगे
अध्यात्मज्ञान की कमी के कारण ही सारे दुःख, सारे संघर्ष, सारी
समस्याएँ, बेचैनी और अशांति उत्पन्न होती है ।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।
‘अध्यात्मज्ञान में निष्ठा (नित्य स्थिति) होना और तत्त्वज्ञान के
प्रयोजन का विचार करना (अर्थात् तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही
देखना) – यह सब ज्ञान कहा जाता है, इससे जो भिन्न है वह अज्ञान है
।’ (गीताः13.11)
आत्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान (आत्म-परमात्म ज्ञान)
के अर्थ को समझना यह ज्ञान है और इससे विपरीत जो है वह अज्ञान
है । खंड-खंड को समझना यह अज्ञान है लेकिन खंड-खंड में जो अखंड
छुपा है उसको समझना, एक-एक में आसक्त होने की अपेक्षा अनेक में
जो एक है उसको जानना – यह ज्ञान है… फिर न पकड़ना है न छोड़ना
है । तो फिर महाराज ! खायेंगे क्या, कमायेंगे क्या ? उस ज्ञान में टिके
तो खाना-कमाना स्वाभाविक होता रहेगा ।
जरा-जरा बात पर हृदय घबरा जाता है, कुढ़ता है, कुछ कर्म करने
से पाप लगता है, कुछ कर्म करने से पुण्य लगता है, पुण्य की जंजीरें
स्वर्ग में घसीट के ले जाती हैं, पाप की जंजीरें नरक में घसीट के ले
जाती हैं फिर वह पूरा होता है तो विधि की जंजीरें उठाकर किसी गर्भ में
फेंक देती हैं – यह सब ब्रह्मज्ञान के अभाव के कारण होता है ।
जैसे आपने सपना देखा । सपने में आप सेठ बन गये और पैसे
बहुत हो गये । आयकर (इनकम टैक्स) का टेंशन हो गया और छापा

पड़ा । आप घबराये, बीमार हुए… बेटा लोफर हो गया, आप दुःखी हुए
किंतु आँख खुली तो देखा कि ‘बेटा भी मेरी चेतना थी, आयकरवाला भी
मेरी चेतना थी, रूपये कमाये वह भी मेरी चेतना थी और आयकर वाले
रूपये ले गये सपने में तो भी मैं ही था ।’ आँख खुलते ही सपने के
सुख-दुःख छू हो गये । ऐसे ही तत्त्वज्ञान होते ही इस संसार के सुख-
दुःख छू हो जायेंगे, अपना ज्ञान-प्रकाश, परमानंद, परम सुख रहेगा ।
…तो नित्य नवीन ज्ञान उभरेगा
भगवान शिवजी को तत्त्वज्ञान का आनंद है, ध्यान करते-करते तत्त्व
में टिके हुए हैं । भगवान विष्णु क्षीरसागर में अपने आत्मस्वरूप में शांत
हैं । भगवान ब्रह्माजी इसी तत्त्वज्ञान में समाधिस्थ रहते हैं और फिर
संकल्प से सृष्टि बनाने का सामर्थ्य पाते हैं ।
सुबह, दोपहर, शाम को थोड़े दिन ध्यान में, इस आत्मशांति में
शांत होते रहो तो आपकी कार्यक्षमता बढ़ जायेगी, समझ, सुख योग्यता
बढ़ जायेंगे और नित्य नवीन ज्ञान उभरता जायेगाग । जो तत्त्वज्ञान,
आत्मज्ञान में प्रतिष्ठित है उसको ज्ञान पाने के लिए किताबें रटनी नहीं
पड़ती हैं, उसका नित्य नवीन ज्ञान उभरता रहता है । उसको खुशी के
लिए चिकन पार्टी, डिस्को डांस या पॉप म्यूजिक आदि की गुलामी नहीं
करनी पड़ती है, उसका सुख अपने-आप छलकता है । उसको आरोग्य के
लिए टॉनिकें नहीं लेनी पड़ती हैं, उसका नित्य नवीन सुख उसके कण-
कण में आरोग्यता उभारता है ।
प्राचीनकाल में लोग अध्यात्मज्ञान में लीन रहते थे तो स्वस्थ भी
रहते थे, दीर्घजीवी भी रहते थे, प्रसन्न भी रहते थे, ईमानदारी भी रहते
थे । अभी जितनी बेईमानी करते हैं, कितनी खुशामद करते हैं, कितना
कुछ करते हैं फिर भी देखो तो जीवन में कोई बरकत नहीं क्योंकि

बहिर्मुख ज्यादा हो गये, परमात्मध्यान-ज्ञान से विपरीत जीने वाले हो
गये, अज्ञान बढ़ गया ।
परम शांति व पूर्णता की प्राप्ति
‘मैं फलानी जाति का हूँ, मैं फलाने धर्म का हूँ… मुझे यह मिले तब
सुखी हो जाऊँगा, इसको हटाऊँगा तब सुखी होऊँगा, यह मर जाय तो मैं
सुखी हो जाऊँ, यह जन्म जाय तो मैं सुखी हो जाऊँ…’ यह सब अज्ञान
के कारण होता है । तत्त्व में न मौत है न जन्म है, न पाना है न
छोड़ना है, तत्त्व तो ज्यों-का-त्यों है और नित्य है, सदा है, सर्वत्र है और
सबका अपना नहीं है, केवल प्रधानमंत्री का पद सबका अपना नहीं है,
केवल प्रधानमंत्री का है । सेठ की गद्दी सेठ की हो गयी । पत्नी के
गहने पत्नी के ही हो गये, पति क्या पहनेगा ! परंतु तत्तवज्ञान,
आत्मज्ञान, परमात्मज्ञान तो सबका है और वैसे-का-वैसा है !
तो आत्मज्ञान के सिवाय दूसरी किसी भी चीज का ज्ञान होगा तो
या तो आकर्षण होगा या तो विकर्षण होगा, शांति नहीं मिलेगी ।
आत्मज्ञान में परम शांति है ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।
‘आत्मज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त हो जाता
है ।’ (गीताः 4.39)
जिस समय ज्ञान हुआ उसी समय मुक्ति ! ऐसा नहीं कि मरने के
बाद मुक्ति होगी । कोई देवदूत आयेगा विमान में बिठा के ले जायेगा
तो स्वर्ग का सुख मिलेगा फिर वहाँ से गिरेंगे । आत्मज्ञान को जानने
वालों ने तो स्वर्ग के सुख को भी तुच्छ गिना है, ऐसी है भारतीय
संस्कृति ।

कितना भी धन मिल गया, आखिर क्या ? या तो आयकर वाले ले
जायेंगे या तो जिनको उधारी दी है वे ले जायेंगे अथवा तो अपनी
तिजोरी में रखकर मर जायेंगे और क्या होगा ? अधिक दुकानें हुई तो
यहीं छोड़ के मरेंगे… लेकिन तत्त्वज्ञान ठीक से हो गया तो न कोई चुरा
के ले जा सकता है, न उधार दिये धन की तरह डूब सकता है…
तत्त्वज्ञान पूर्ण है ।
पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ (नाम)
नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ ।।
तो बाकी के ज्ञान सरल हो जायेंगे
शरीर का ज्ञान डॉक्टर लोगों को कुछ हिस्से का होता है, समय
पाकर कुछ भूल जाते हैं, कुछ नये आविष्कार होते हैं, नये-नये जीवाणु
पैदा होते हैं, नयी-नयी दवाइयाँ बनती हैं, पुराना पढ़ा हुआ भूल जाना
पड़ता है, नया सीखना पड़ता है पर तत्त्वज्ञान में ‘पुराना तत्त्वज्ञान’ होता
ही नहीं, नित्य नया । जैसे सूर्य हैं तो पुराण-पुरुषोत्तम परन्तु उनका
प्रभात नित्य मधुर… स्वभाव नित्य सुखद ! ऐसे ही ज्ञान अनादि है ।
जगत की वस्तु सादि (आरम्भवाली) है, पैदा होती है और सांत है यानी
अंतवाली है किंतु ज्ञान अनादि है, अनंत भी है ।
जैसे आकाश सर्वत्र व्यापा है, आकाश से भी सूक्ष्म वह चैतन्य
परमात्मा ज्ञानस्वरूप व्यापा है । इसीलिए जीवाणु में भी वह ज्ञान देता
है कि ‘ये हमारी जाति के हैं, ये पराये हैं… यह खाना चाहिए… इधऱ से
भागना चाहिए…’ कितने बारीक जीवाणु, उनके अंदर भी वह ज्ञानसत्ता है

तो ब्रह्मज्ञान के लिए प्रयत्न करना बुद्धिमत्ता है और उसको
छोड़कर दूसरी चीजें पाने और छोड़ने में लगना यह बेवकूफी है । और

ब्रह्मज्ञान हो जाय तो बाकी के ज्ञान सरल हो जायेंगे और वह नहीं है
तो बाकी के ज्ञान पढ़ते जाओ और भूलते जाओ… और सिरखपाऊ हो
जाते हैं ।
ऐसा नहीं है कि अभी खोजें कि विज्ञान ने और बहुत आगे बढ़े,
कई बार इससे भी कितना आगे बढ़े थे । धरती के राजा स्वर्ग के
देवताओं को मदद करने के लिए चले जाते थे । एक बार देवताओं की
प्रार्थना पर मुचुकुंद राजा ने असुरों से लम्बे समय तक युद्ध किया और
देवताओँ की रक्षा हुई । देवताओं ने कहाः “आप वरदान मांगिये ।”
राजा मुचुकुंद ने कहाः “मैं लड़ाई करते-करते बहुत थक गया हूँ ।
मेरे को वरदान दो कि मैं बस गहरी नींद सो जाऊँ ।”
देवताओं ने वरदान देकर राजा मुचुकुंद से कहाः “जब आपको कोई
नींद से जगायेगा तो उस पर नज़र पड़ते ही वह जल के खाक हो
जायेगा ।”
भागवत में यह कथा आती है ।
ऐसे ही खट्वांग राजा के भी देवासुर संग्राम में देवताओं ने प्रार्थना
कीः “आप हमारे सेनापति बनिये ।”
खट्वांग राजा देवताओं के सेनापति बने और डटकर दैत्यों से जूझे
। वर्षों तक युद्ध चला, विजयी हुए । देवताओं ने बोलाः “आप वरदान
मांगिये ।”
खट्वांग बोलेः “वरदान क्या माँगू… मेरा आयुष्य कितना है ?”
बोलेः “आपका आयुष्य तो दो घड़ी (एक मुहूर्त) है ।”
“2 घड़ी के लिए क्या माँगू और क्या भोगूँगा !… सार क्या है ?”
“सार तो तत्त्वज्ञान है ।”

खट्वांग 2 घड़ी में तत्त्वज्ञान पा के मुक्त हो गये । कितनी ऊँची
समझ के धनी रहे होंगे वे । देवताओँ के द्वारा वरदान माँगने से लिए
कहने पर भी कुछ न माँगा और अंतर्सुख पाकर मुक्त हो गये ।
सबकी गहराई में उस ‘एक’ को देखें
तत्त्वज्ञान के अलावा और कोई चीज पा के आप मुक्त नहीं होंगे ।
खादी की दुकान मिल जाय तो क्या मुक्ति हो जायेगी ? सोने की, चाँदी
की, जवाहरात की दुकान मिल जाय तो सँभालने के टेंशन और अंत में
छोड़ के मरना, यह पक्की बात है ! पदवी (डिग्री) मिल जायेगी तो क्या
हो जायेगा ? जिनके पास पदवियाँ हैं, जो पदवी दे रहे हैं वे क्या सब
दुःखों से पार हो गये ? पदवी देने वाले भी सब दुःखों से भी पार नहीं
हुए, उनकी भी सब समस्याएँ हल नहीं हुईं तो तुम्हारे सब दुःख कैसे
मिट जायेंगे ? सब दुःखों को मिटाने का एक ही मार्ग है ।
भगवान बोलते हैं-
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।
अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति । देखने के विषय़ अनेक लेकिन
उनको देखने वाला एक, सुनने के विषय़ अनेक किंतु सुनने वाला मेरा
चैतन्य एक, स्वाद अनेक परन्तु स्वाद को जानने वाला मैं एक हूँ ।
इसका नित्य सुमिरन रखें । दुःख अनेक, सुख अनेक पर उनका अनुभव
करने वाला अनेक है क्या ? एक है । जैसे एक देह में दुःख-सुख का
अनुभव करने वाला एक ही है ऐसे ही सब देहों में वह एक-का-एक है ।
अंतःकरण अनेक हैं इसलिए अनेकत्व की भ्रांति होती है ।
जो एक घड़े में आकाश है वही-का-वही सब घड़ों में है । एक घड़े
में जिस चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब है उसी का प्रतिबिम्ब सब घड़ों में है ।

ऐसे ही एक हृदय में जो चैतन्य चमक रहा है वही-का-वही सब हृदयों में
है ।
संत कबीर जी कहते हैं-
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय ।
ज्यों मेहँदी के पात में, लाली लखी न जाय ।।
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल ।
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गयी लाल ।।
दुनिया को देखेंगे तो या तो पाने की वृत्ति होगी या तो छोड़ने की
परन्तु उस लाली को (सबकी गहराई में छुपी परमात्म-सत्ता को) को
देखोगे तो तुम अपने को ही पाओगे कि वह लाल तो मैं ही था । फिर
न पाना है न छोड़ना है ।
पूर्ण गुरु किरपा मिली… ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 7-10 अंक 365
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तुम संसार में किसलिए आये हो ? – पूज्य बापू जी



एक होता है कर्म का बल । जैसे मैं किसी वस्तु को ऊपर फेँकूँ तो
मेरे फेंकने का जोर जितना होगा उतना वह ऊपर जायेगी फिर जोर का
प्रभाव खत्म होते ही नीचे गिरेगी । गेंद को, पत्थर को ऊपर फेंकने में
आपमें जितना कर्म का बल है उतना वे ऊपर जायेंगे फिर बल पूरा हुआ
तो गिरेंगे । ऐसे ही कर्म के बल से जो चीज मिलती है वह कर्म का बल
निर्बल होने पर छूट जाती है ।
दूसरा होता है भाव का बल । जितनी देर भाव से भगवान के
श्रीचित्र को देखा उतनी देर भाव समाधि लगी अथवा भाव से भगवान
प्रकट हुए, उनसे वार्तालाप हुआ, यह दूसरे को नहीं दिखेगा । लेकिन
भाव बदला तो भगवान अंतर्ध्यान हो जायेंगे ।
तीसरी होती है वास्तविक स्थिति । यह कर्म या भाव के प्रभाव से
नहीं होती, जो जैसा है उसको उस रूप में ठीक से समझकर उसमें प्रीति
करके उसमें अपने मैं को मिला दिया, बस । जैसे सागर जैसा है वैसा है,
उसमें तरंग कितनी भी बड़ी बनना चाहे, भँवर बनना चाहे, बड़ी उछलती
हुई तरंग बनना चाहे तो उसकी क्रिया की एक सीमा है अथवा वह बैठे-
बैठे सोचे कि ‘बड़े-में-बड़ी तरंग मैं हूँ’ तो यह उसकी भावना है किंतु वह
अपने को पानीरूप जान ले तो निश्चिंत…! मौज हो गयी ! ऐसे ही जीव
अपने को ब्रह्मरूप में जान ले तो परम पद की प्राप्ति हो गयी, मौज हो
गयी ! इतना सरल है और करने योग्य यही काम है ।
एक गुरु ने अपने भक्तों से पूछाः “तुम लोग क्या बेचते हो ?”
एक बोलाः “मैं तो दूध बेचता हूँ ।” दूसरा बोलाः “मैं सोना बेचता हूँ
।” तीसरा बोलाः “मैं हीरे बेचता हूँ ।” कोई बोलाः “मैं लकड़े बेचता हूँ ।”

कोई बोलाः “मैं कपड़े बेचता हूँ ।” इस प्रकार सबने अपना-अपना बताया

उनमें से एक वास्तविक जिज्ञासु शिष्य को गुरु ने पूछाः “तुम क्या
बेचते हो ?”
उसने कहाः “बाबा ! ये लकड़े, कपड़े, जूते आदि तो क्या बेचते हैं,
वास्तव में 2 रोटी के लिए हम अपना आयुष्य बेच रहे हैं । ये चीजें तो
आती, बिकती रहेंगी लेकिन बेचने वाले मर जाते हैं । धनभागी तो वे हैं
जो अपनी बेवकूफी (अज्ञानजन्य मान्यताएँ) भगवान के चरणों में बेच दें
(समर्पित कर दें) और बदले में भगवान को ले लें । बाबा ! इसलिए तो
हम आपके द्वार पर आये हैं ।”
तुम जूता, कपड़ा, लकड़ा, सोना आदि बेचने और खरीदने के लिए
संसार में पैदा नहीं हुए हो, 2 रोटी, 2 जोड़ी कपड़ों के लिए जीवन गँवाने
के लिए पैदा नहीं हुए हो, तुम तो अपनी जन्मों-जन्मों की नासमझी,
अज्ञान को बेचकर (मिटाकर) कर्म-बल, भाव-बल का सदुपयोग करके
गुरुज्ञान के प्रकाश से वास्तविक स्थिति – अपने आत्म-ब्रह्मस्वभाव को
जानने के लिए संसार में आये हो ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 20 अंक 365
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जीवन सार्थक करने के 3 सूत्र – पूज्य बापू जी



एक है तोड़ो व जोड़ो, दूसरा है खाली करो और भरो एवं तीसरा है
याद करो और भूल जाओ ।
तोड़ो और जोड़ो
नश्वर से स्नेह तोड़ो और शाश्वत से स्नेह जोड़ो । नश्वर की
सत्यता और आसक्ति तोड़ना, शाश्वत से प्रीति जोड़ना । देह के साथ के
अहं को तोड़ों और आत्मा के साथ, गुरु-तत्त्व के साथ जोड़ो । विकारों से
नाता तोड़ो, निर्विकारी सुख से जोड़ो । नश्वर से मन का संबंध तोड़ो,
शाश्वत से जोड़ो । जिन वस्तुओं या विषयों की मृत्यु हो जाती है उनसे
मृत्यु के पहले ही आसक्ति या संबंध तोड़ो और जो मृत्यु के बाद भी
हमारा साथ नहीं छोड़ता उससे संबंध जोड़ो ।
कबिरा इह जग आयके, बहुत से कीन्हे मीत ।
जिन दिल बाँधा एक से, वे सोये निश्चिंत ।।
एक परमात्मा, सद्गुरु से दिल जोड़ दो और अनेक विषय-विकारों
से दिल तोड़ दो । कर्ता किये बिना रह नहीं सकता और कर्ता कर्म
करता है तो बंधन हुए बिना रह नहीं सकता लेकिन वही कर्म अगर प्रभु
से जुड़ने के लिए करता है और विकारों से छूटने एवं कर्ताभाव तोड़ने के
लिए करता है तो कर्ता ‘अकर्ता’ आत्मपद में प्रतिष्ठित हो जाता है । यह
बहुत ऊँची बात है, बहुत ऊँचा लाभ देने वाली है । केवल यह चलते-
फिरते ध्यान रहे बस, आप जग जाओगे ।
‘महाराज ! जगते तो रोज हैं ।’
नहीं जगते बाबा ! यह तो शरीर जगा, आप जग जाओ । कैसे जगें
? जगने की क्या निशानी ?
जानिअ तबहिं जीव जग जागा ।

जब सब विषय बिलास बिरागा ।। (श्री रामचरित. अयो.कां. 92.2)
असली सुख में प्रीति और विकारी सुख में वैराग्य । नश्वर सुख से
उपरामता और शाश्वत सुख में आनंद आये, प्रीति बढ़े । अंतर के सुख
में मन लगे तो समझो कि आप जगने की तरफ हो । भीष्म पितामह
तोड़ने-जोड़ने में सफल व्यक्तित्व के धनी थे । भीष्म जी ने देह से
सत्यता तोड़ दी थी और श्रीकृष्ण से प्रीति जोड़ रखी थी तो भगवान
कृष्ण ने भी अपने प्यारे भीष्म की प्रतिज्ञा को सत्य बनाये रखने के
लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और भीष्म से नाता जोड़ के दिखा दिया ।
आप जितने भगवान के, गुरु के होते हो वे उससे कई गुना आपके हो
जाते हैं ।
भीष्म कहते हैं “श्रीकृष्ण ! मैं अपनी कन्या आपको दान करना
चाहता हूँ ।”
अब डेढ़ सौ साल के ब्रह्मचारी कन्यादान कहाँ से करेंगे ? कौन सी
कन्या लायेंगे ? बोलेः “मेरी बुद्धिरूपी जो कन्या है वह मैं आपको
अर्पित करता हूँ ।”
तो बुद्धि भगवान से जोड़ दो । प्रभात को उठो, थोड़ा शांत हो
जाओ । ‘बुद्धि में प्रकाश तेरा है, हम तेरे प्रकाश में जियें । मैं तेरा, तू
मेरा । शरीर मेरा नहीं और संबंध मेरे नहीं ।’ इतना याद करने से भी
तोड़ने और जोड़ने की शुरुआत हो जायेगी ।
खाली करो और भरो
मन को विकारों व देहाध्यास से खाली करते जाओ और
भगवत्प्रीति, भगवद्भाव, भगवद्ध्यान, भगवत्संबंध से भरते जाओ ।
फिर चाहे भगवान गुरु के भीतर प्रकट हुए हैं तब भी, श्रीकृष्ण के
अंतःकरण में छलक रहे हैं तब भी… जिस भगवान में प्रीति हो । अपने

चित्त से कर्ताभाव को खाली करो और द्रष्टाभाव को भरो । सुख-दुःख की
तरंगों वाले मसाले को खाली करो और समता को भरो । मान-अपमान
को सत्य मानने के बुद्धि में जो संस्कार पड़े हैं उनको खाली करो और
‘मान-अपमान सपना है’ इस ज्ञान को, समता को भरो ।
याद करो और भूल जाओ
जो काम करना है उसे याद किया… और किया तो फिर कर्तापन
को भूल जाओ । काम करने में जो सुख-दुःख आया या जैसा भी
परिणाम आया उसे याद करो, सावधान रहो लेकिन उसकी सत्यता को
भूल जाओ ।
इन 3 सूत्रों को जीवन में लाओगे तो परम सुख में टिकने में
आसानी हो जायेगी, मनुष्य-जीवन सार्थक हो जायेगा, जन्म-मरण का
चक्र समाप्त हो जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 365
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