धन्य है आचार्य शंकर की गुरु भक्ति

धन्य है आचार्य शंकर की गुरु भक्ति


गुरु कृपा का छोटे से छोटा बिंदु भी इस संसार के कष्टों से मनुष्य को मुक्त करने में पर्याप्त है। केवल गुरु कृपा के द्वारा ही साधक आध्यात्मिक मार्ग में लगा रह सकता है एवं तमाम प्रकार के बंधनों एवं आसक्तियों को तोड़ सकता है । जो शिष्य अहंकार से भरा हुआ है , जो गुरु के वचनों को सुनता नहीं अथवा सुना अनसुना करता है उसका आखिर नाश होता है । जिन गुरु को आत्मा साक्षात्कार हुआ है , ऐसे गुरु में और ईश्वर में , कोई फर्क नहीं दोनों समान है और एक रूप है ।

श्रीमद आद्यशंकराचार्य अल्प अवस्था में ही भास्या समेत शास्त्रों में पारंगत हो गए थे । फल स्वरूप उनके मन में वैराग्य उत्पन हो गया था । उनके हृदय में प्राणी मात्र के कल्याण की भावनाए तब से ही थी जब उन्होंने होश संभाला । मां की आज्ञा लेकर बाल्य अवस्था में ही संन्यास ले लिया और आत्मज्ञान लाभ के लिए सदगुरु के खोज के लिए पैदल निकल पड़े । केरल प्रदेश से चलते चलते दो मास के बाद नर्मदा किनारे ओमकारनाथ पहुंचे । वहा पता चला के एक गुफा मे कोई महान योगी सैकड़ों वर्षों से समाधिस्थ हुए बैठे हैं । इस परिपक्व जिज्ञासु का हृदय आनंद से पुलकित हो उठा ।

गुरु के लिए इस बालक की तीव्र जिज्ञासा जानकर , वहां के वृद्ध संन्यासियों ने कहा , के हे बालक तुम धन्य हो ! धन्य हे तुम्हारी तितिक्षा और गुरुभक्ति ! यहां पर महा योगी श्रीमान गोविंद पादाचारिया बैठे हैं । कब से बैठे है यह कोई नहीं जानता । उनसे उपदेश पाने की प्रतीक्षा में बैठे हम भी वृद्ध हो चले ।

बालक शंकर ने वृद्ध सन्यासी के संकेत अनुसार दीपक लेकर उस अंधकार गुफा में प्रवेश किया । वहा एक अति दीर्घ काया लंबी जटावाले एक योगी पद्मासन में धन्यास्त बैठे थे । उनकी त्वचा सुख चुकी थी । देह कंकाल मात्र अवशेष रहीं थीं फिर भी ज्योतिर्मय थी । जिनके पावन चरणकमलों में आश्रय पाने के लिए कोमल वय में ही इतनी लंबी यात्रा की, उन गुरुदेव के दर्शन पाकर बालक शंकर का मन अनिर्वचनीय दिव्यानंद से भर उठा । वे भी ध्यान में लीन हो गए । अगाध अश्रु जल से उनका वक्षस्‍थल भीग गया ।

वह भावावेश में आकर गुरूदेव की स्तुति करने लगा , ” हे प्रभु ! आप की महिमा अपार है । ब्रह्मज्ञान प्राप्ति की कामना से मै आप के श्री चरणों में आश्रय की भिक्षा मांगता हूं । समाधि भूमि से व्यतीत होकर इस दीन शिष्य को स्वीकार करें । ” इस प्रकार बालक शंकर की स्तुति से गुफ़ा मुखरित हो उठी । महायोगी के निश्चल निस्पंद देह में प्राणों का संपदन होने लगा । क्षणभर में उन्होंने एक दीर्घ नि:स्वास छोड कर आंखे खोली । उनका मन योगी प्रक्रिया द्वारा जीवन भूमि पर उतर आया । सहस्त्र वर्षों की समाधि एक सच्चे अधिकारी जिज्ञासु बालक के आने से छुटी। यह वार्ता तीव्र गति से चारों ओर फेल गई । दर्शन अभिलाषी नर- नारी के भीड़ ने ओंकारनाथ को एक तीर्थ क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया ।

सदगुरु देव श्री गोविंद पादअर्चार्य ने बाल सन्यासी शंकर को शिष्य रूप से ग्रहण किया । उन्हें क्रम सह हठयोग , राजयोग और ज्ञानयोग सिखाया । साधन क्रम अनुसार अपरोक्ष अनुभूति के उच्च स्तर में सिद्ध प्रतिष्ठ कर दिया अद्वैत वेंदांत के आखिरी रहस्य का उदघाटन कर दिया । उनकी देह में ब्रह्म ज्योति प्रस्फुट हो उठी । यही बाल सन्यासी शंकर ” जगगुरु श्रीमद् आद्य शंकरचार्य ” हो गए । भारतीय संस्कृति की के अनुपम रत्न इस अर्चार्य योगदान को आज कौन नहीं जानता । धन्य है अर्चार्य शंकर की गुरु भक्ति ।

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