Monthly Archives: April 1997

स्वप्न में मंत्रदीक्षा


मुझे आज से 5-7 वर्ष पूर्व पंचेड़ (रतलाम) आश्रम पर पूज्य श्री द्वारा मंत्रदीक्षा मिली थी परन्तु उस समय मुझे इस अति अनमोल धरोहर के महत्त्व का पता नहीं होने से मैं पता नहीं कैसे, अपना गुरुमंत्र भूल गयी। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ ? गुरुमंत्र गुप्त होता है इसलिए मुझे बताने वाला भी कोई नहीं था। मुझमें इतनी हिम्मत भी नहीं कि मैं अपनी इस भारी भूल को पूज्यश्री के समक्ष दोहरा सकूँ। ऐसा लगा कि मैंने अपने जीवन का सर्वस्व खो दिया है। मेरे पास सिवाय पश्चात्ताप के कोई शेष मार्ग नहीं था। फिर भी मुझे पूज्यश्री की निशदिन हम बच्चों पर बरसती कृपा पर अटूट विश्वास था।

मैंने मन-ही-मन प्रतिदिन पूज्यश्री से प्रार्थना करना आरम्भ किया। मुझे पूरा यकीन था कि जब करूणासिंधु गुरुवर सभी की संसारी इच्छाएँ पूर्ण करने में कोई कमी नहीं रखते, किसी को निराश नहीं करते तो मैं जो उनसे माँग रही हूँ वह तो परम दुर्लभ प्रसाद है। बस…. दिन-रात प्रार्थना, पश्चात्ताप में खोयी रहती। आखिरकार पूज्यश्री ने मेरी बिनती स्वीकार कर ली। मेरे निराश, दुःखी मन-मंदिर में गुरुकृपा से आनंद और प्रभुभक्ति के दीप जगमगाये। एक रात्रि को पूज्यश्री ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिये और प्रेम से आँख दिखाते हुए उसी सहज मनोहारी शैली में मुझसे पूछाः “तेरा गुरुमंत्र क्या है?”

मैं कुछ कहने का साहस नहीं कर पायी। तब पूज्यश्री ने मुझे अपना वही गुरुमंत्र स्मरण कराते हुए कहाः “यही है न तेरा मंत्र ?”

इतना सुनते ही मुझे अपना वही गुरुमंत्र पुनः स्मरण आ गया और मेरी खुशी का कोई ठौर नहीं रहा। पूज्यश्री मुस्कराये और बोलेः “बेटा ! अब मत भूलना।”

मेरे हृदय में उस समय इतनी अत्यधिक खुशी हुई कि बरबस मेरी नींद खुल गयी और मेरी आँखें भर आयीं। सचमुच, पूज्यश्री कितने कृपालु हैं ! हम भक्तों पर कैसे-कैसे, किस रूप में कब और कहाँ-कहाँ अपनी कृपा करते हैं इसको आँक पाना अत्यन्त दुष्कर है। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा फिर से एक नया जन्म हुआ। अब मैं प्रतिदिन उसी उत्साह, तत्परता और नियमपूर्वक अपनी साधना करती हूँ।

पूज्यश्री के श्रीचरणों में मेरा कोटिशः नमन……

श्रीमती मनुबहन सोनी, दौलतगंज, रतलाम (म.प्र.)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 1997, पृष्ठ संख्या 29, अंक 52

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राम तत्त्व की महिमा


पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू

एक दिन पार्वती जी ने महादेव जी से पूछाः “आप हरदम क्या जपते रहते हैं ?”

उत्तर में महादेव जी विष्णुसहस्रनाम कह गये।

अन्त में पार्वती जी ने कहाः “ये तो आपने हजार नाम कह दिये। इतना सारा जपना तो सामान्य मनुष्य के लिए असंभव है। कोई एक नाम कहिए जो सहस्रों नामों के बराबर हो और उनके स्थान में जपा जाये।”

तब महादेव जी बोलेः

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।

सहस्रनामतत्तुल्यं रामनाम वरानने।।

ʹहे सुमखि ! रामनाम विष्णुसहस्रनाम के तुल्य है। मैं सर्वदा ʹराम….. राम….. राम…. ʹ इस प्रकार मनोरम राम-नाम में ही रमण करता हूँ।ʹ

ऐसी बात नहीं है कि अवधपुरी में राजा दशरथ के घर श्रीराम अवतरित हुए तब से ही लोग श्रीराम का भजन करते हैं। नहीं नहीं। दिलिप राजा, रघु राजा एवं दशरथ के पिता अज राजा भी श्रीराम का ही भजन करते थे क्योंकि श्रीराम केवल दशरथ के पुत्र ही नहीं हैं  बल्कि रोम-रोम में जो चेतना व्याप रही है, रोम-रोम में जो रम रहा है उसका ही नाम है राम।

रमन्ते योगीनः यस्मिन् स रामः।

जिसमें योगी लोगों का मन रमण करता है उसी को कहते हैं राम।

किसी महात्मा ने कहाः

एक राम घट-घट में बोले।

एक राम दशरथ घऱ डोले।

एक राम का सकल पसारा।

एक राम है सबसे न्यारा।।

तब शिष्य ने कहाः “गुरु जी ! आपके कथऩानुसार  चार राम हुए। ऐसा कैसे ?”

गुरुः “थोड़ी साधना कर, जप-ध्यानादि कर, फिर समझ में आ जायेगा।”

साधना करके शिष्य की बुद्धि सूक्ष्म हुई, तब गुरु ने कहाः

जीव राम घट-घट में बोले।

ईश राम दशरथ घर डोले।

बिंदु राम का सकल पसारा।

ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

शिष्य बोलाः “गुरुदेव ! जीव, ईश, बिंदु और ब्रह्म इस प्रकार भी तो राम चार ही हुए न ?”

गुरु ने देखा कि साधनादि करके इसकी मति थोड़ी सूक्ष्म तो हुई है किन्तु अभी तक चार राम दिख रहे हैं। गुरु ने करूणा करके समझाया किः “वत्स ! देख। घड़े में आया हुआ आकाश, मठ में आया हुआ आकाश, मेघ में आया हुआ आकाश और उससे अलग व्यापक आकाश, ये चार दिखते हैं। अगर तीनों उपाधियों को, घट, मठ और मेघ को हटा दो तो चारों में आकाश तो एक का एक है। इसी प्रकार….

वही राम घट-घट में बोले।

वही राम दशरथ घर डोले।

उसी राम का सकल पसारा।

वही राम है सबसे न्यारा।।

रोम-रोम में रमने वाला चैतन्य तत्त्व वही का वही है और उसी का नाम है चैतन्य राम।”

वे ही श्रीराम जिस दिन दशरथ-कौशल्या के घर साकार रूप में अवतरित हुए उसी दिन को श्रीरामनवमी के पावनवर्ष के रूप में मनाते हैं भारतवासी।

कैसे हैं वे श्रीराम ? भगवान श्रीराम नित्य कैवल्य ज्ञान में विचरण करते थे। वे आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श राजा, आदर्श पति, आदर्श भ्राता, आदर्श मित्र एवं आदर्श शत्रु थे। आदर्श शत्रु ? हाँ, आदर्श शत्रु थे भी तो शत्रु भी उऩकी प्रशंसा किये बिना न रह सके।

ग्रंथों में कथा आती है कि लक्षमण के द्वारा मारे गये मेघनाद की दक्षिण भुजा सती सुलोचना के समीप जा गिरी और पतिव्रता का आदेश पाकर इस भुजा ने सारा वृत्तान्त लिखकर बता दिया। सुलोचना ने निश्चय किया कि मुझे अब सती हो जाना चाहिए। किन्तु पति का शव  राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती ? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा तब रावण ने उत्तर दियाः “देवि ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी श्रीहनुमान, परम जितेन्द्रिय श्रीलक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।”

जब रावण सुलोचना से ये बातें कह रहा था उस समय कुछ मंत्री भी उसके पास बैठे थे। उन लोगों ने कहाः “जिनकी पत्नी को आपने बंदिनी बनाकर अशोक  वाटिका में रख छोड़ा है, उनके पास आपकी बहू का जाना कहाँ तक उचित है ? यदि यह गयी तो क्या सुरक्षित वापस लौट सकेगी ?”

यह सुनकर रावण बोलाः “मंत्रियो ! लगता है तुम्हारी बुद्धि विनष्ट हो गयी है। अरे ! यह तो रावण का काम है जो दूसरे की स्त्री को अपने घर में बंदिनी बनाकर रख सकता है, राम का नहीं।”

धन्य है श्रीराम का दिव्य चरित्र, जिसका विश्वास शत्रु भी करता है और प्रशंसा करते थकता नहीं ! प्रभु श्रीराम का पावन चरित्र दिव्य होते हुए इतना सहज-सरल है कि मनुष्य चाहे तो अपने जीवन में भी उसका अनुकरण कर सकता है।

श्रीरामनवमी के पावन पर्व पर उन्हीं पूर्णाभिराम श्रीराम के दिव्य गुणों को अपने जीवन में अपनाकर, श्रीरामतत्त्व की ओर प्रयाण करने के पथ पर अग्रसर हों, यही अभ्यर्थना… यही शुभकामना…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 1997, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 52

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मनोनिग्रह की महिमा


एक मनोवैज्ञानिक मीमांसा

पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

लोग कहते हैं कि यह प्रगति का युग है लेकिन वास्तव में यह भारी अवनति का युग है। आज के जवानों के साथ बड़ा अन्याय हो रहा है। चारों ओर से उन पर विकारों को भड़काने वाले आक्रमण होते रहते हैं।

एक तो वैसे ही पशु-प्रवृत्तियाँ यौन उच्छृंखलता की ओर प्रोत्साहित करती हैं, सामाजिक परिस्थितियाँ भी उसी ओर आकर्षण बढ़ाती हैं…. इस पर उस प्रवृत्तियों को वैज्ञानिक समर्थन मिलने लगे और संयम को हानिकारक बताया जाने लगे…. कुछ तथाकथित आचार्य भी, फ्रायड जैसे नास्तिक अधूरे मनोवैज्ञानिक के व्यभिचार-शास्त्र का आधार देकर ʹसंभोग से समाधिʹ का उपदेश देने लगे तब तो ईश्वर ही ब्रह्मचर्य और दाम्पत्यजीवन की पवित्रता का रक्षक है।

सेक्स को ऊर्ध्वगामी बनाकर जो उल्लास, प्रसन्नता, प्रमोद और आनंद मिलता है, योगशास्त्र में उसकी बड़ी प्रशंसा की गई है और उस सुख को काम सुख से सदैव बढ़कर बताया गया है। यौनाकर्षण तो क्षणिक सुख की प्रेरणा देता है। यौनाकर्षण से आंशिक सुख भले ही मिल जाता है लेकिन बाद में शरीर और आत्मा की दुर्गति होती है। मनुष्य के विचार और क्रिया कलाप सब अधोगामी होते चले जाते हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में उपद्रव खड़े हो जाते हैं।

आँकड़े बताते हैं कि आज पाश्चात्य देशों में यौन सदाचार की कितनी दुर्गति हुई है। इस दुर्गति के परिणामस्वरूप वहाँ के व्यक्तिगत जीवन में रोग इतने बढ़े हैं कि अमेरिका से तीन गुनी ज्यादा बस्ती भारत में होने पर भी भारत से 10 गुनी ज्यादा दवाइयाँ अमेरिका में खर्च होती हैं। मानसिक रोग इतने बढ़े हैं कि हर दस अमेरिकन में एक को मानसिक रोग होता है। दुर्वासनाएँ इतनी बढ़ी हैं कि हर वर्ष में 20 लाख कन्याएँ विवाह के पूर्व ही गर्भवती हो जाती हैं। मुक्त साहचर्य (Free Sex) के हिमायती होने के कारण शादी के पहले वहाँ प्रायः हर व्यक्ति जातीय संबंध बनाने लगता है। इसी की वजह से 65 प्रतिशत शादियाँ तलाक में बदल जाती हैं और मनुष्य के लिए प्रकृति के निर्धारित संयम का उपवास करने के कारण प्रकृति ने उनको जातीय रोगों का शिकार बना रखा है। उऩमें मुख्यतः एड्स की बीमारी दिन दुनी-रात चौगुनी फैलती जा रही है। वहाँ के पारिवारिक जीवन में क्रोध, कलह, असंतोष और संताप एवं सामाजिक जीवन में अशांति, उच्छृंखलता, उद्दंडता और शत्रुता का महाभयानक वातावरण छा गया है। विश्व की 4 प्रतिशत जनसंख्या अमेरिका में है। उसके उपयोग के लिए विश्व की 40 प्रतिशत साधन सामग्री (जैसे कि कार, टी.वी., एयरकंडिशन्ड घर आदि) जुटा रखी है फिर भी अपराधवृत्ति इतनी बढ़ी है कि हर 10 सेकंड में एक सेंधमारी होती है, हर लाख व्यक्तियों में से 425 व्यक्ति कारागार में सजा भोग रहे हैं जबकि भारत में हर लाख व्यक्ति में से 23 व्यक्ति जेल में रहते हैं। 1992 के वर्ष में अमेरिका में कुल 1 करोड़ 40 लाख अपराध पुलिस रेकार्ड पर दर्ज किये गये हैं।

इन तथ्यों का मूल कारण यही है कि पाश्चात्य लोगों ने फ्रायड के व्यभिचारशास्त्र का अनुकरण किया। मनोविज्ञानी फ्रायड ने कहा कि काम-वासना की अतृप्त इच्छाएँ ही मनोविकारों को उत्पन्न करती हैं और उस अपराध से प्रतिभा कुण्ठित होती है। मानसिक ही नहीं, शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है और व्यक्तित्व दब जाता है। उन्मुक्त कामसेवन की वकालत करते हुए उस पर लगे प्रतिबन्धों को हानिकारक बताया। उसका अनुकरण करने वाले पश्चिमी देशों में तो उल्टे ही परिणाम देखने को मिले।

इससे यह स्पष्ट होता है कि काम को संयत न किया जायेगा तो मनुष्य पशु से भी बदतर हो जायेगा। पूर्व के देशों में लोग नैतिक और धार्मिक मूल्यों के कारण मानसिक रोगों से, शारीरिक रोगों से और सामाजिक अव्यवस्था से उतने पीड़ित नहीं हैं जितने पाश्चात्य देशों के लोग पीड़ित हैं। अतः पाश्चात्य अंधानुकरण से बचना होगा। फ्रायड के उक्त प्रतिपादन से यौन-सदाचार पर बुरा प्रभाव पड़ा है और लोगों का जितना-जितना विश्वास फ्रायड के प्रतिपादन पर जमा है उतना ही उतना असंयम और व्यभिचार को प्रोत्साहन मिला है। सुशिक्षित वर्ग में इस तथाकथित मनोविज्ञान के आधार पर यह मान्यता जड़ जमाती जा रही है किः “कामेच्छा की पूर्ति आवश्यक है। उसे स्वच्छन्द उपभोग का अवसर मिलना चाहिए। संयम से शारीरिक और मानसिक हानि होती है।” इस प्रतिपादन का कुप्रभाव नर-नारी के बीच पावन संबंधों की समाज व्यवस्था, सुव्यवस्था एवं पवित्रता पर पड़ रहा है। दाम्पात्य जीवन में यदि कुछ अतृप्ति रह जाती है  व्यक्ति उसे बाहर पूरा करने में भय, लज्जा, संकोच का अनुभव नहीं करता वरन् उस उद्धत पाशवी आचरण को शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक मानता है। यह व्यभिचार का खुला समर्थन है। दाम्पत्य मर्यादाओं को फिर कैसे स्थिर रखा जा सकेगा ? अविवाहित या विधुर यदि व्यभिचार पर प्रवृत्त होते हैं तो उन्हें किस तर्क से समझाया जा सकेगा ? फिर जो छेड़छाड़ और गुण्डागर्दी की अश्लील शर्मनाक घटनाएँ आये दिन होती रही हैं उन्हें अवांछनीय या अनावश्यक कैसे ठहराया जा सकेगा ? फ्रायड का शास्त्र दूसरे शब्दों में व्यभिचारशास्त्र ही है जिसे मनोविज्ञान में दार्शनिक मान्यता देकर समाज-व्यवस्था पर कुठाराघात किया जा रहा है। मनोविज्ञानियों के प्रतिपादनों को देखते हुए फ्रायड के काम-स्वेच्छाचार का प्रतिपादन बहुत ही बचकाना और एकांगी प्रतीत होता है। फिर भी खेद इसी बात का है कि ऐसे अधूरे और अवांछनीय निष्कर्षों को अग्रिम पंक्ति में बिठाने की ऐसी भूल की जा रही है जिसका परिणाम मानव समाज का भविष्य अन्धकारमय ही बना सकता है।

यह फ्रायड जैसे कामुकता के समर्थक दार्शनिकों की ही देन है जिसने पाश्चात्य देशों को मनोविज्ञान के नाम पर बहुत प्रभावित किया है और वहीं से वह आँधी अब इस देश में भी बढ़ती आ रही है। अतः इस देश की भी अमेरिका जैसी अवदशा हो, उसके पहले सावधान होना पड़ेगा। यहाँ के कुछ अविचारी दार्शनिक भी फ्रायड के आधार पर ʹसंभोग से समाधिʹ का उपदेश देने लगे, जिससे युवा पीढ़ी गुमराह हुई है। फ्रायड ने  तो केवल मनोवैज्ञानिक मान्यता देकर व्यभिचारशास्त्र बनाया लेकिन तथाकथित दार्शनिक ने ʹसंभोग से समाधिʹ द्वारा व्यभिचार को आध्यात्मिक मान्यता देकर धार्मिक लोगों को भी भ्रष्ट किया। ʹसंभोग से समाधिʹ नहीं होती, सत्यानाश होता है। संयम से ही समाधि होती है। इस भारतीय मनोविज्ञान को अब पाश्चात्य मनोविज्ञानी भी स्वीकार करने लगे हैं। भारतीय मनोविज्ञानी पतंजलि के सिद्धान्तों पर चलने वाले हजारों योगसिद्ध महापुरुष इस देश में हुए हैं, अभी भी हैं और आगे भी होते रहेंगे जबकि संभोग से समाधि के मार्ग पर कोई योगसिद्ध महापुरुष हुआ हो ऐसा हमने तो नहीं सुना। उस मार्ग पर चलने वाले पागल हुए हैं। ऐसे कई नमूने हमने देखे हैं। वेदकालीन महापुरुषों के मनोविज्ञान के आधार पर रचे गये नैतिक और धार्मिक आदर्शों पर टिकी हुई भारतीय संस्कृति लाखों वर्षों के बाद भी जीवित हैं जबकि भोगवादी कई संस्कृतियाँ इस धरातल पर प्रकट हुई और भोगवाद के प्रभाव से नष्ट भी हो गईं। आजकल की पश्चिमी सभ्यता अभी 300 वर्ष पुरानी भी नहीं हुई और भोगवादी सिद्धान्तों के कारण विनाश के कगार पर जा पहुँची है। इस प्रकार परिणामों को देखते हुए भी बुद्धिमान व्यक्ति को संयम की आधारशिला पर खड़े भारतीय मनोविज्ञान को जीवन में लाना पड़ेगा, अन्यथा सर्वनाश होकर ही रहेगा।

पाश्चात्य मनोविज्ञान पिछले 300 वर्षों से ही प्रकाशित हुआ है जबकि भारत का मनोविज्ञान ईसा के पूर्व 2000 वर्ष पहले भी पूर्ण विकसित हो चुका था। भारतीय मनोविज्ञान की तुलना में पाश्चात्य मनोविज्ञान तुच्छ प्रतीत होता है। शरीर रचना शास्त्र (Anatomy) और जीव विज्ञान (Physiology) के आधार पर पाश्चात्य मनोविज्ञान खड़ा है। प्रोफेसर सिग्मंड फ्रायड ने चेतातंत्र के भ्रूणशास्त्र का अभ्यास किया था। बाद में प्रोफेसर ब्रुअर (जो हिस्टीरिया और अन्य मानसिक रोगियों का अभ्यास करते थे) के साथ अध्ययन किया। फिर उऩ्होंने अवचेतन मन में झाँकने की (Psychoanalysis) पद्धति का आविष्कार किया। मनोविश्लेषण तो किया पर मानसिक रोगियों का मनोविश्लेषण किया और उस अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों को सभी मनुष्यों पर लागू करने की भारी गलती की।

फ्रायड ने अपनी तराजू पर सारी दुनिया को तौलने की गलती की है। उसका अपना जीवन क्रम कुछ ऐसे ही बेतुके क्रम से विकसित हुआ। उसकी माता अमेलिया बड़ी खूबसूरत थी। उसने योकोव  के साथ अपना दूसरा विवाह किया था। जब फ्रायड जन्मा तब वह 21 वर्ष की थी। बच्चे को वह बहुत प्यार करती थी। सम्भव है कुछ समझ आने पर उसके रूप में फ्रायड की यौनाकांक्षा भड़की हो और उसने माँ के प्यार को प्रणय माना हो। वह बाल्यकाल से ही उद्दण्ड और ईर्ष्यालु था।

एक दिन वह माता-पिता के सोने के कमरे में घुस गया और उन दोनों को विचित्र परिस्थिति में डालकर हड़बड़ा दिया। हो सकता है उसे इस स्थिति में ईर्ष्या उत्पन्न हुई हो। वह जब सात साल का था तब एक दिन बाप की ओर मुँह बनाकर चिढ़ाने लगा। बाप ने उसे डाँटा और कहा कि यह छोकरा जिद्दी और निकम्मा बनता जाता है। ये घटनाएँ फ्रायड ने स्वयं लिखी हैं। इन घटनाओं के आधार पर फ्रायड कहता हैः “पुरुष बचपन से ही ईडिपस काम्पलेक्स में यौन-आकांक्षा अथवा यौन-ईर्ष्या से ग्रसित रहता है। लड़का माँ के प्रति यौनांकाक्षा से प्रेरित रहता है, लड़की बाप के प्रति आकर्षित होती है जिसे इलेक्ट्रा काम्पलेक्स नाम दिया। तीन वर्ष की आयु से ही बच्चा अपनी माँ के साथ यौन संबंध स्थापित करने के लिए लालायित रहता है। एकाध साल के बाद जब उसे पता चलता है कि उसकी माँ के साथ तो बाप का वैसा संबंध पहले से ही है अतः उसके मन में बाप के प्रति ईर्ष्या और घृणा जाग पड़ती है। यह विद्वेष उसकी अवचेतना में आजीवन बना रहता है। इसी प्रकार लड़की अपने बाप के प्रति सोचती है और माँ से ईर्ष्या करती है।”

फ्रायड कहता हैः “इस मानसिक अवरोध के कारण मनुष्य की गति रूक जाती है। ईडिपस काम्पलेक्स उसके सामने तरह तरह के अवरोध खड़े करता है। यह स्थिति अपवाद नहीं है वरन् साधारणतया प्रायः यही होता है।

यह कितना घृणित और हास्यास्पद प्रतिपादन है ! छोटा बच्चा यौनाकांक्षा से पीड़ित होगा सो भी अपनी माँ के साथ ? पशु-पक्षियों के शरीर में भी वासना तब उठती है जब उनके शरीर प्रजनन के योग्य सुदृढ़ हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य के बालक को यह वृत्ति इतनी छोटी आयु में ही कैसे पैदा हो जाती है ? और माँ के साथ वैसी तृप्ति करने की उसकी शारीरिक-मानसिक स्थिति भी नहीं होती। फिर तीन वर्ष के बालक को काम-प्रयोग और उनमें माँ-बाप के संलग्न होने की जानकारी कहाँ से हो जाती है ? फिर वह कैसे समझ लेता है कि उसे बाप से ईर्ष्या करनी चाहिए ?

बच्चे द्वारा माँ का दूध पीने को  ऐसे मनोविज्ञानियों ने रतिसुख के समकक्ष बताया है। यदि इस स्तनपान को रतिसुख गिना जाय  आयु बढ़ने के साथ-साथ वह उत्कण्ठा भी प्रबल होती जानी चाहिए और व्यस्क होने तक बालक को माता का दूध ही पीते रहना चाहिए। यह किस प्रकार संभव है ?

…..तो ऐसे बेतुके प्रतिपादन हैं जिसके लिए भर्त्सना ही की जानी चाहिए।

ब्रह्मचर्य़ और इन्द्रिय निग्रह की महिमा सनातन धर्म ने ही गाई है ऐसी बात नहीं है। इस्लाम, ईसाइयत, जैन, सिक्ख एवं तमाम धर्मग्रन्थों ने भी संयम को अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया है। कुछ लोग मानते हैं कि ब्रह्मचर्य  केवल योगियों, साधु-संतों के लिए है लेकिन भोगवादी पाश्चात्य देशों की अवदशा देखकर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि हर मनुष्य यदि मनुष्यता से दिव्यता की ओर बढ़ना चाहता है तब तो उसे संयम का सहारा लेना ही पड़ेगा, लेकिन जो साधना करना नहीं चाहता वह भी यदि मनुष्य से पशु बनना न चाहता हो, पशु से पिशाच बनना न चाहता हो तो भी उसे संयम का अवलंबन लेना ही पड़ेगा। जो मनुष्य शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक प्रसन्नता और बौद्धिक सामर्थ्य बनाये रखना चाहते हों, ऐसे संसारी मनुष्यों के लिए भी ʹयौवन सुरक्षाʹ पुस्तक पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है।

जो लोग मानव समाज को पशुता में गिरने से बचाना चाहते हों, भावी पीढ़ी का जीवन पिशाच होने से बचाना चाहते हैं, इस देश को एडस जैसी घातक बीमारियों से ग्रस्त होने से रोकना चाहते हैं, स्वस्थ समाज का निर्माण करना चाहते हैं उन सबका यह नैतिक कर्तव्य है कि वे हमारी गुमराह युवा पीढ़ी को ʹयौनव सुरक्षाʹ जैसी पुस्तिका पढ़ायें। विद्यार्थियों में ऐसी पुस्तिका बाँटने से इस देश के जवानों को गुमराह होने से बचा सकते हैं। अतः ʹयौवन सुरक्षाʹ आप भी पढ़ें एवं औरों को भी पढ़ायें। आप यदि साधना करते हैं, ध्यान भजन करते हैं तब तो ʹयौवन सुरक्षाʹ के द्वारा आप दिव्यता प्राप्त कर सकते हैं। यदि आप साधना न भी करें  भी ʹयौवन सुरक्षाʹ के द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक प्रसन्नता और बौद्धिक योग्यता का विकास कर सकते हैं…. अपने जीवन को पशुता से बचा सकते हैं और मानव समाज को पिशाची समाज बनने से रोक सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 1997, पृष्ठ संख्या 7,8,9,10,26 अंक 52

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