शिवविरोधी की गति

शिवविरोधी की गति


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

दो प्रकार के कर्त्तव्य होते हैं- एक तो सामाजिक ऐहिक कर्त्तव्य और दूसरा, जिस उद्देश्य के लिए शरीर मिला है, उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु कर्त्तव्य।

ऐहिक उद्देश्य की पूर्ति ऐहिक शरीर तक ही सीमित है लेकिन वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति सनातन सत्य से मिला देती है।

जो ऐहिक कर्त्तव्य में तो चतुर है, दक्ष है लेकिन वास्तविक कर्त्तव्य में लापरवाह है वह व्यवहार में कितना भी दक्ष हो, लोकपालों का मुख्य दक्ष प्रजापति हो, भगवान शंकर का ससुर हो लेकिन परमार्थ में गति नहीं है तो उसकी भी दुर्गति होती है।

वह यज्ञ करवाता है, बड़ी कुशलता रखता है, बड़े-बड़े लोकपालों का अध्यक्ष है, लेकिन जब तक सर्व दुःखों की निवृत्ति एवं परमानंद की प्राप्ति का लक्ष्य नहीं है तब तक राग-द्वेष की निवृत्ति भी नहीं होती। राग-द्वेष की निवृत्ति नहीं है तो आदमी जरा-जरा बात में पचता रहता है।

एक बार जब दक्ष अपनी सभा में आये तब लोकपाल, गंधर्व, किन्नर आदि सबने उठकर उनका अभिवादन किया लेकिन भगवान शिव अपने-आप में, अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूप में बैठे रहे। दक्ष ने सोचाः ʹचलो, ब्रह्माजी नहीं उठे तो कोई बात नहीं, वे तो पितामह हैं, भगवान विष्णु साक्षात नारायण हैं लेकिन शिव तो मेरे जमाई हैं। बेटे का कर्त्तव्य है कि पिता को प्रणाम करे और शिवजी तो मेरे बेटे के बराबर हैं फिर भी उन्होंने मुझे प्रणाम तक नहीं किया !ʹ यह सोचकर वे शिवजी को खरी-खोटी सुनाने लगे।

दक्ष प्रजापति व्यवहार में तो दक्ष थे लेकिन उनमें आत्मज्ञान का प्रकाश नहीं था। लक्ष्य सबका एक हैः सब दुःखों की निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति लेकिन साधन चुनने में थोड़ी लापरवाही, थोड़ा अज्ञान….। अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः। शिवजी के ससुर होने पर भी अज्ञान से ज्ञान ढँक गया और मोहित हो गये कि शिवजी को मेरा आदर करना चाहिए।

दक्ष प्रजापति शिवजी को खरी-खोटी सुनाने लगे और भरी सभा में शिवजी का ऐसा अपमान किया कि वहाँ उपस्थित शिवगण और भक्त कुपित हो गये तो उन्होंने दक्ष प्रजापति को खरी-खोटी सुनायी। इससे दक्ष के समर्थक भी कुपित हो उठे तो उन्होंने भी शिवगणों को खरी-खोटी सुनायी। आमने-सामने श्रापा-श्रापी हो गयी किः ʹजो शिव की भक्ति करेगा वह भ्रष्ट होगा।ʹ शिवभक्तों ने कहा किः ʹजो दक्ष के पीछे चलेगा उसका विनाश होगा।ʹ

उस जमाने में शाप सफल हो जाता था क्योंकि मनुष्य में सत्यबल एवं तपोबल था।

भगवान शिव कुछ नहीं बोले। वे चुपचाप सभा से उठकर चल दिये। सोचा किः ʹचलो, भले ससुर हैं, व्यवहार में दक्ष हैं लेकिन परमार्थ में अभी ʹबेचारेʹ हैं। परन्तु दक्ष को शान्ति नहीं हुई। उन्होंने शिवजी को नीचा दिखाने के लिए यज्ञ का आयोजन किया। उसमें सभी देवताओं को बुलाया लेकिन शिवजी को आमंत्रण नहीं भेजा शिवजी को नीचा दिखाने के लिए।

द्वेष से प्रेरित होकर उत्तम काम भी किया जाता है तो उसका फल उत्तम नहीं मिलता। अतः जो भी कर्म करें, न द्वेष से प्रेरित होकर करें, न राग से प्रेरित होकर करें, बल्कि परमात्मा  की प्रसन्नता के भाव से प्रेरित होकर करें तो बेड़ा पार हो जाये।

दक्ष के यज्ञ में सभी देवता विमान से जा रहे थे। उन्हें देखकर सतीजी ने शिवजी से पूछाः

“प्रभु ! ये सब कहाँ जा रहे हैं ?”

शिवजीः “तुम्हारे पिता ने यज्ञ का आयोजन किया है वहीं जा रहे हैं।”

सतीजीः “हमें भी जाना चाहिए।”

शिवजीः “हमें आमंत्रण नहीं है।”

सतीजीः “आमंत्रण नहीं है तो कोई बात नहीं। पिता और गुरु के यहाँ तो बिना आमंत्रण के भी जाना चाहिए।”

सती जी गयीं तो दक्ष के यहाँ लेकिन दक्ष ने आँख उठाकर देखा तक नहीं।

सती जी समझ गयीं कि मेरे पतिदेव ने जो कहा था वह बिल्कुल सत्य है। शिव के विरोधी दक्ष से प्राप्त शरीर को रखना उन्हें ठीक नहीं लगा एवं योगाग्नि से अपना शरीर पिता के यज्ञ में स्वाहा कर दिया। योगाग्नि से जब वे ज्वाला में लीन हुई तो लोगों ने दक्ष को खूब सुनायी।

समय पाकर नारदजी घूमते-घामते शिवलोक में गये। शिवजी से पूछाः “आजकल माँ सती जी दिखायी नहीं दे रही हैं ?”

शिवजीः “वह अपने पिता दक्ष के यज्ञ में गयी है।”

नारदजीः “प्रभु ! ʹयज्ञ मनें गयी हैं….ʹ ऐसा न कहो बल्कि ʹयज्ञ में गयी थीं…ʹ ऐसा कहो।”

शिवजीः “क्या मतलब ?”

नारदजीः “सती जी गयी थीं। दक्ष ने तो आपको नीचा दिखाने के लिए ही द्वेषवश यज्ञ किया था। आपका आसन वहाँ नहीं था। आपके सम्मान के लिए तो नहीं, वरन् आपकी अपकीर्ति के लिए उन्होंने यज्ञ किया था। सती जी जब यह जान गयीं कि पिता और पति में वैमनस्य हुआ है तो उन्हें अपना शरीर रखना ठीक नहीं लगा। उन्होंने योगाग्नि से अपना शरीर नष्ट कर दिया।

शिवजी नाराज हो गये। उन्होंने अपनी एक जटा खींची। उसमें से वीरभद्र प्रगट हुए। शिवजी ने कहाः “जरा देखो।” ….तो वीरभद्र ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और उसका सिर काटकर यज्ञ में बलि दे दी गयी।

दक्ष प्रजापति में चतुराई तो बहुत थी लेकिन चतुराई वाला, दक्षतावाला खोपड़ा संसार की आग में खुद भी तप मरता है और दूसरों को भी तपाता है। अगर आत्मज्ञान का उद्देश्य नहीं है तो अहंपूर्ति के लिए कर्म करेगा, किसी को नीचा दिखाने के लिए कर्म करेगा। कर्म के करने की आसक्ति मिटाने के लिए कर्म नहीं करेगा, परमात्मा को पाने के लिए कर्म नहीं करेगा तो फिर वह खोपड़ा किस काम का ?

दक्ष के अनुयायियों का भी बड़ा बुरा हाल हुआ। किसी की टाँग तोड़ दी गयी, किसी के हाथ तोड़ दिये गये तो किसी की दाढ़ी नोंच ली गई तो किसी के दाँत निकाल दिये गये तो किसी का कुछ….

आखिर शिवजी ने उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर करुणा-कृपा कर दी एवं दक्ष के धड़ पर बकरे का सिर लगाकर उसको जीवित कर दिया।

अभी भी शिवमंदिर में जाते हैं तो बकरे की आवाज (बेंहेंઽઽઽ…. बेंहेंઽઽઽ…) करके शिव को याद करते हैं किः “हम कितने भी चतुर हैं लेकिन दक्ष की नाईं बकरे न रह जायें। तेरे शिवतत्त्व में, तेरे ज्ञानतत्त्व में हमारी प्रीति हो जाये, भोलेनाथ ! ऐसी कृपा करना।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 91

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