Monthly Archives: September 2010

वीर्यरक्षण ही जीवन है


वीर्य इस शरीररूपी नगर का एक तरह से राजा ही है। यह राजा यदि पुष्ट है, बलवान है तो रोगरूपी शत्रु कभी शरीररूपी नगर पर आक्रमण नहीं करते। जिसका वीर्यरूपी राजा निर्बल है, उस शरीररूपी नगर को कई रोगरूपी शत्रु आकर घेर लेते हैं। इसीलिए कहा गया हैः मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्। बिन्दुनाश (वीर्यनाश) ही मृत्यु है और बिन्दुरक्षण ही जीवन है।’ जैन ग्रन्थों में अब्रह्मचर्य को पाप बताया गया हैः अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिठ्ठियम्। ‘अब्रह्मचर्य घोर प्रमादरूप पाप है।’

(दश वैकालिक सूत्रः 6.17)

अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य को उत्कृष्ट व्रत की संज्ञा दी गयी हैः व्रतेषु  वै वै ब्रह्मचर्यम्।

ब्रह्मचर्यं परं बलम्। ‘ब्रह्मचर्य परम बल है। ऐसा वैद्यकशास्त्र में कहा गया है।

वीर्यरक्षण की महिमा सभी सत्पुरुषों ने गायी है। योगीराज गोरखनाथ ने कहा हैः

कंत गया कूँ कामिनी झूरै।

बिन्दु गया कूँ जोगी।।

पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है।

भगवान शंकर ने तो यहाँ तक कह दिया हैः

यस्य प्रसादान्महिमा ममाप्येतादृशो भवेत्।

‘इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महानि महिमा हुई है।’

आधुनिक चिकित्सकों का मत

यूरोप के प्रतिष्ठित चिकित्सक भी भारतीय योगियों के कथन का समर्थन करते हैं। डॉ. निकोल कहते हैं- “यह एक भैषजिक व दैहिक तथ्य है कि शरीर के सर्वोत्तम रक्त से स्त्री तथा पुरुष दोनों ही जातियों में प्रजनन-तत्त्व बनते हैं। शुद्ध व व्यवस्थित जीवन में यह तत्त्व पुनः अवशोषित हो जाता है। यह सूक्ष्मतम मस्तिष्क, स्नायु तथा मांसपेशिय ऊतकों का निर्माण करने के लिए तैयार होकर पुनः परिसंचरण में हो जाता है। मनुष्य का यह वीर्य ऊर्ध्वगामी होकर शरीर में फैलने पर उसे निर्भीक, बलवान, साहसी तथा वीर बनाता है। यदि इसका अपव्यय किया गया तो यह उसको स्त्रैण दुर्बल कृशकलेवर एवं कामोत्तेजनशील बनाता है तथा उसके शरीर के अंगों के कार्यव्यापार को विकृत एवं स्नायुतंत्र को शिथिल (दुर्बल) करता है और उसे मिर्गी एवं अन्य अनेक रोगों तथा मृत्यु का शिकार बना देता है। जननेन्द्रिय के व्यवहार की निवृत्ति से शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक बल में असाधारण वृद्धि होती है।”

परम धीर एवं अध्यवसायी वैज्ञानिकों के अनुसन्धानों से पता चला है कि जब कभी भी वीर्य को सुरक्षित रखा जाता है तथा इस प्रकार शरीर में उसका पुनः अवशोषण किया जाता है तो वह रक्त को समृद्ध व मस्तिष्क को बलवान बनाता है।

डॉ डिओ लुई कहते हैं- “शारीरिक बल, मानसिक ओज तथा बौद्धिक कुशाग्रता के लिए इस तत्त्व (वीर्य) का संरक्षण परम आवश्यक है।”

डॉ. ई.पी.मिलर लिखते हैं- “शुक्रस्राव का स्वैच्छिक या अनैच्छिक अपव्यय जीवनशक्ति का प्रत्यक्ष अपव्यय है। यह प्रायः सभी स्वीकार करते हैं कि रक्त के सर्वोत्तम तत्त्व शुक्रस्राव की संरचना में प्रवेश कर जाते हैं। यदि यह निष्कर्ष ठीक है तो इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति के कल्याण के लिए जीवन में ब्रह्मचर्य परम आवश्यक है।”

पश्चिम के प्रख्यात चिकित्सक कहते हैं कि वीर्यक्षय से विशेषकर तरूणावस्था में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। वे हैं- शरीर में व्रण, चेहरे पर मुँहासे या विस्फोट, नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखाएँ, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, अण्डकोश की वृद्धि, अण्डकोशों में पीड़ा, दुर्बलता, निद्रालुता, आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, श्वासावरोध या कष्टश्वास, यक्ष्मा, पृष्ठशूल, कटिवात, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्नदोष व मानसिक अशांति।

उपरोक्त रोगों को मिटाने का एकमात्र इलाज ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य-पालन में निम्न प्रयोग मदद करेंगेः 80 ग्राम आँवला चूर्ण और 20 ग्राम हल्दी चूर्ण का मिश्रण बना लो। सुबह शाम 3-3 ग्राम यह मिश्रण फाँकने से 8-10 दिन में ही उपरोक्त सभी रोगों में चमत्कारिक लाभ होगा। वीर्यरक्षा में इससे मदद मिलेगी और ॐ अर्यमायै नमः। मंत्र बड़ा महत्त्वपूर्ण है। गीता में भी इसके देवता अर्यमा की महिमा है। स्थल-बस्ति भी वीर्यरक्षा में अमोघ उपाय है। लेटकर श्वास बाहर निकालें और अश्विनी मुद्रा अर्थात् 30-35 बार गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण श्वास रोककर करें। ऐसे एक बार में 30-35 बार संकोचन विस्तरण करें। तीन चार बार श्वास रोकने में 100 से 120 बार हो जायेगा। यह ब्रह्मचर्य की रक्षा में खूब मदद करेगी। इससे व्यक्तित्व का विकास होगा ही, वात-पित्त-कफजन्य रोग भी दूर होंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 213

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तुलसी व तुलसी-माला की महिमा


तुलसीदल एक उत्कृष्ट रसायन है। यह गर्म और त्रिदोषशामक है। रक्तविकार, ज्वर, वायु, खाँसी एवं कृमि निवारक है तथा हृदय के लिए हितकारी है। सफेद तुलसी के सेवन से त्वचा, मांस और हड्डियों के रोग दूर होते हैं। काली तुलसी के सेवन से सफेद दाग दूर होते हैं। तुलसी की जड़ और पत्ते ज्वर में उपयोगी हैं। वीर्यदोष में इसके बीज उत्तम हैं तुलसी की चाय पीने से ज्वर, आलस्य, सुस्ती तथा वातपित्त विकार दूर होते हैं, भूख बढ़ती है।

तुलसी की महिमा बताते हुए भगवान शिव नारदजी से कहते हैं-

पत्रं पुष्पं फलं मूलं शाखा त्वक् स्कन्धसंज्ञितम्।

तुलसीसंभवं सर्वं पावनं मृत्तिकादिकम्।।

‘तुलसी का पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पावन हैं।’

(पद्मपुराण, उत्तर खंडः 24.2)

जहाँ तुलसी का समुदाय हो, वहाँ किया हुआ पिण्डदान आदि पितरों के लिए अक्षय होता है।

तुलसी सेवन से शरीर स्वस्थ और सुडौल बनता है। मंदाग्नि, कब्जियत, गैस, अम्लता आदि रोगों के लिए यह रामबाण औषधि सिद्ध हुई है।

गले में तुलसी की माला धारण करने से जीवनशक्ति बढ़ती है, बहुत से रोगों से मुक्ति मिलती है। तुलसी की माला पर भगवन्नाम जप करने से एवं गले में पहनने से आवश्यक एक्युप्रेशर बिन्दुओं पर दबाव पड़ता है, जिससे मानसिक तनाव में लाभ होता है, संक्रामक रोगों से रक्षा होती है तथा शरीर स्वास्थ्य में सुधार होकर दीर्घायु की प्राप्ति होती है। तुलसी माला धारण करने से शरीर निर्मल, रोगमुक्त व सात्त्विक बनता है। तुलसी शरीर की विद्युत संरचना को सीधे प्रभावित करती है। इसको धारण करने से शरीर में विद्युतशक्ति का प्रवाह बढ़ता है तथा जीव-कोशों द्वारा धारण करने के सामर्थ्य में वृद्धि होती है।

गले में माला पहने से बिजली की लहरें निकलकर रक्त संचार में रूकावट नहीं आनि देतीं। प्रबल विद्युतशक्ति के कारण धारक के चारों ओर चुम्बकीय मंडल विद्यमान रहता है।

तुलसी की माला पहनने से आवाज सुरीली होती है, गले के रोग नहीं होते, मुखड़ा गोरा, गुलाबी रहता है। हृदय पर झूलने वाली तुलसी माला फेफड़े और हृदय के रोगों से बचाती है। इसे धारण करने वाले के स्वभाव में सात्त्विकता का संचार होता है।

तुलसी की माला धारक के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है। कलाई में तुलसी का गजरा पहनने से नब्ज नहीं छूटती, हाथ सुन्न नहीं होता, भुजाओं का बल बढ़ता है। तुलसी की जड़ें कमर में बाँधने से स्त्रियों को, विशेषतः गर्भवती स्त्रियों को लाभ होता है। प्रसव वेदना कम होती है और प्रसूति भी सरलता से हो जाती है। कमर में तुलसी की करधनी पहनने से पक्षाघात नहीं होता, कमर, जिगर, तिल्ली, आमाशय और यौनांग के विकार नहीं होते हैं।

यदि तुलसी की लकड़ी से बनी हुई मालाओं से अलंकृत होकर मनुष्य देवताओं और पितरों के पूजनादि कार्य करे तो वह कोटि गुना फल देने वाला होता है। जो मनुष्य तुलसी की लकड़ी से  बनी हुई माला भगवान विष्णु को अर्पित करके पुनः प्रसाद रूप से उसे भक्तिपूर्वक धारण करता है, उसके पातक नष्ट हो जाते हैं।

तुलसी दर्शन करने पर सारे पाप-समुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है, तुलसी लगाने पर भगवान के समीप ले जाती है और भगवद चरणों में चढ़ाने पर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 26, अंक 213

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तुलसी माला की महिमा

एक सत्य घटना

राजस्थान में जयपुर के पास एक इलाका है – लदाणा। पहले वह एक छोटी सी रियासत थी। उसका राजा एक बार शाम के समय बैठा हुआ था। उसका एक मुसलमान नौकर किसी काम से वहाँ आया। राजा की दृष्टि अचानक उसके गले में पड़ी तुलसी की माला पर गयी। राजा ने चकित होकर पूछाः

“क्या बात है, क्या तू हिन्दू बन गया है ?”

“नहीं, हिन्दू नहीं बना हूँ।”

“तो फिर तुलसी की माला क्यों डाल रखी है ?”

“राजासाहब ! तुलसी की माला की बड़ी महिमा है।”

“क्या महिमा है ?”

“राजासाहब ! मैं आपको एक सत्य घटना सुनाता हूँ। एक बार मैं अपने ननिहाल जा रहा था। सूरज ढलने को था। इतने में मुझे दो छाया-पुरुष दिखाई दिये, जिनको हिन्दू लोग यमदूत बोलते हैं। उनकी डरावनी आकृति देखकर मैं घबरा गया। तब उन्होंने कहाः

“तेरी मौत नहीं है। अभी एक युवक किसान बैलगाड़ी भगाता-भगाता आयेगा। यह जो गड्ढा है उसमें उसकी बैलगाड़ी का पहिया फँसेगा और बैलों के कंधे पर रखा जुआ टूट जायेगा। बैलों को प्रेरित करके हम उद्दण्ड बनायेंगे, तब उनमें से जो दायीं ओर का बैल होगा, वह विशेष उद्दण्ड होकर युवक किसान के पेट में अपना सींग घुसा देगा और इसी निमित्त से उसकी मृत्यु हो जायेगी। हम उसी का जीवात्मा लेने आये हैं।”

राजासाहब ! खुदा की कसम, मैंने उन यमदूतों से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि ‘यह घटना देखने की मुझे इजाजत मिल जाय।’ उन्होंने इजाजत दे दी और मैं दूर एक पेड़ के पीछे खड़ा हो गया। थोड़ी ही देर में उस कच्चे रास्ते से बैलगाड़ी दौड़ती हुई आयी और जैसा उन्होंने कहा था ठीक वैसे ही बैलगाड़ी को झटका लगा, बैल उत्तेजित हुए, युवक किसान उन पर नियंत्रण पाने में असफल रहा। बैल धक्का मारते-मारते उसे दूर ले गये और बुरी तरह से उसके पेट में सींग घुसेड़ दिया और वह मर गया।”

राजाः “फिर क्या हुआ ?”

नौकरः “हजूर ! लड़के की मौत के बाद मैं पेड़ की ओट से बाहर आया और दूतों से पूछाः ‘इसकी रूह (जीवात्मा) कहाँ है, कैसी है ?”

वे बोलेः ‘वह जीव हमारे हाथ नहीं आया। मृत्यु तो जिस निमित्त से थी, हुई किंतु वहाँ हुई जहाँ तुलसी का पौधा था। जहाँ तुलसी होती है वहाँ मृत्यु होने पर जीव भगवान श्रीहरि के धाम में जाता है। पार्षद आकर उसे ले जाते हैं।’

हुजूर ! तबसे मुझे ऐसा हुआ कि मरने के बाद मैं बिहिश्त में जाऊँगा कि दोजख में यह मुझे पता नहीं, इसले तुलसी की माला तो पहन लूँ ताकि कम से कम आपके भगवान नारायण के धाम में जाने का तो मौका मिल ही जायेगा और तभी से मैं तुलसी की माला पहनने लगा।’

कैसी दिव्य महिमा है तुलसी-माला धारण करने की ! इसीलिए हिन्दुओं में किसी का अंत समय उपस्थित होने पर उसके मुख में तुलसी का पत्ता और गंगाजल डाला जाता है, ताकि जीव की सदगति हो जाय।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 27, अंक 213

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सर्वश्रेष्ठ दान


धर्म के चार चरण होते हैं- सत्य, तप, यज्ञ और दान। सत्ययुग गया तो सत्य गया, त्रेता गया तो तप गया, द्वापर गया तो यज्ञ गया, दानं केवल कलियुगे। कलियुग में धर्म का दानरूपी एक ही चरण रह गया।

‘भविष्य पुराण’ (151.18श्र में लिखा है कि दानों में तीन दान अत्यन्त श्रेष्ठ हैं – गोदान, भूमिदान और विद्यादान। ये दुहने, जोतने और जानने से सात कुल तक पवित्र कर देते हैं।

नौ प्रकार के व्यक्तियों को दिया हुआ दान दाता का कल्याण करता है। उसको यश का भागी बनाता है। दूसरे जन्म में अकारण ही धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति उसको ढूँढती हुई आती है। अगर वह ईश्वर की प्रीति के लिए दान करता है तो ईश्वर भी प्रसन्न होते हैं। इन नौ व्यक्तियों के लिए लगाया हुआ धन दाता को भोग और मोक्ष से सम्पन्न कर देता है, अक्षय फल की प्राप्ति कराता है।

1.जो सदाचारी हैं, संयमी हैं ऐसे पुरुषों की सेवा में या ऐसि पुरुषों के दैवी कार्य में दान करने से दान सफल होता है।

2.जो विनीत हैं। 3.जो वास्तव में ईमानदार हैं और दीन अवस्था में आ गये हैं। 4.जो परोपकार के काम करते हैं। 5.जो अनाथ हैं, उनकी सेवा में एवं उनकी उन्नति में धन लगाना दाता का कल्याण करने में सहायक है। 6.माता। 7.पिता। 8.गुरु की सेवा में लगाया गया धन सार्थक होता है। 9.जो सच्चे मित्र हों तथा उनकी अवस्था गिर गयी हो तो उनको मदद करना यह भी उचित दान कहा गया है।

दान देकर स्वयं उसका वर्णन करना रोषपूर्वक देना, देकर पश्चाताप करना – दान को व्यर्थ बना देते हैं।

कोई लोभवश दान देता है, कोई कामनापूर्ति करने वाले को दान देता है, कोई लज्जावश दान देता है, कोई किसी पर प्रसन्न होकर दान देता है, कोई भयवश दान देता है, कोई अपना धर्म समझकर दान देता है। सर्वश्रेष्ठ वही है जो परमात्म-प्रेम में तृप्त रहकर सर्वस्व का (अपने आत्मिक अनुभव का) दान देता है पर अपने को दानी नहीं मानता। विश्व में ऐसे सर्वश्रेष्ठ दाता तो ब्रह्मज्ञानी सदगुरु ही होते हैं। ऋग्वेद में भी आता है – संसार का सर्वश्रेष्ठ दान ज्ञानदान ही है क्योंकि चोर इसे चुरा नहीं सकते, न ही कोई इसे नष्ट कर सकता है। यह निरंतर बढ़ता रहता है और लोगों को स्थायी सुख देता है।

पूज्य बापू जी कहते हैं- कलियुग में दान की बड़ी भारी महिमा है। अन्नदान, कन्यादान, गोदान, गोरस-दान, सुवर्णदान, भूमिदान, विद्यादान और अभय दान – ये आठ प्रकार के दान हैं परंतु इनसे भी एक विलक्षण दान है जो सत्संग दान है। कन्यादान लेने के बाद भी जमाई शराबी-जुआरी हो सकता है, चोर हो सकता है लेकिन सत्संग-दान मिलता है तो शराबी की शराब छूट जाती है, भँगेड़ी की भाँग छूट जाती है। अभिमानी का अभिमान कम हो जाता है, चिंतावालों की चिंता कम हो जाती है, पापी के पाप कम हो जाते हैं और किये हे पाप का क्लेश भी सत्संग से दूर हो जाता है।

सत्संग के बिना मनुष्य सच्चा भक्त भी नहीं बन सकता और सच्ची भक्ति के बिना परमात्मा की कृपा का पता भी नहीं चल पाता। भक्ति शुरू करनी हो तो भी सत्संग चाहिए। नीतिमत्ता का स्तर ऊँचा लाना हो तो भी सत्संग चाहिए। तन का स्वास्थ्य सुधारना हो तो भी सत्संग चाहिए और मन का स्वास्थ्य सुधारना हो तो भी सत्संग चाहिए।

इसलिए जो लोग संत और समाज के बीच सत्संग-आयोजन के दैवी कार्य में साझेदार होते हैं, सत्संग पर आधारित शास्त्रों को लोगों तक पहुँचाने में तन-मन-धन से लगे रहते हैं, वे दिव्य दान के पुण्यभागी होते हैं।

एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 213

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