सर्वश्रेष्ठ दान

सर्वश्रेष्ठ दान


धर्म के चार चरण होते हैं- सत्य, तप, यज्ञ और दान। सत्ययुग गया तो सत्य गया, त्रेता गया तो तप गया, द्वापर गया तो यज्ञ गया, दानं केवल कलियुगे। कलियुग में धर्म का दानरूपी एक ही चरण रह गया।

‘भविष्य पुराण’ (151.18श्र में लिखा है कि दानों में तीन दान अत्यन्त श्रेष्ठ हैं – गोदान, भूमिदान और विद्यादान। ये दुहने, जोतने और जानने से सात कुल तक पवित्र कर देते हैं।

नौ प्रकार के व्यक्तियों को दिया हुआ दान दाता का कल्याण करता है। उसको यश का भागी बनाता है। दूसरे जन्म में अकारण ही धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति उसको ढूँढती हुई आती है। अगर वह ईश्वर की प्रीति के लिए दान करता है तो ईश्वर भी प्रसन्न होते हैं। इन नौ व्यक्तियों के लिए लगाया हुआ धन दाता को भोग और मोक्ष से सम्पन्न कर देता है, अक्षय फल की प्राप्ति कराता है।

1.जो सदाचारी हैं, संयमी हैं ऐसे पुरुषों की सेवा में या ऐसि पुरुषों के दैवी कार्य में दान करने से दान सफल होता है।

2.जो विनीत हैं। 3.जो वास्तव में ईमानदार हैं और दीन अवस्था में आ गये हैं। 4.जो परोपकार के काम करते हैं। 5.जो अनाथ हैं, उनकी सेवा में एवं उनकी उन्नति में धन लगाना दाता का कल्याण करने में सहायक है। 6.माता। 7.पिता। 8.गुरु की सेवा में लगाया गया धन सार्थक होता है। 9.जो सच्चे मित्र हों तथा उनकी अवस्था गिर गयी हो तो उनको मदद करना यह भी उचित दान कहा गया है।

दान देकर स्वयं उसका वर्णन करना रोषपूर्वक देना, देकर पश्चाताप करना – दान को व्यर्थ बना देते हैं।

कोई लोभवश दान देता है, कोई कामनापूर्ति करने वाले को दान देता है, कोई लज्जावश दान देता है, कोई किसी पर प्रसन्न होकर दान देता है, कोई भयवश दान देता है, कोई अपना धर्म समझकर दान देता है। सर्वश्रेष्ठ वही है जो परमात्म-प्रेम में तृप्त रहकर सर्वस्व का (अपने आत्मिक अनुभव का) दान देता है पर अपने को दानी नहीं मानता। विश्व में ऐसे सर्वश्रेष्ठ दाता तो ब्रह्मज्ञानी सदगुरु ही होते हैं। ऋग्वेद में भी आता है – संसार का सर्वश्रेष्ठ दान ज्ञानदान ही है क्योंकि चोर इसे चुरा नहीं सकते, न ही कोई इसे नष्ट कर सकता है। यह निरंतर बढ़ता रहता है और लोगों को स्थायी सुख देता है।

पूज्य बापू जी कहते हैं- कलियुग में दान की बड़ी भारी महिमा है। अन्नदान, कन्यादान, गोदान, गोरस-दान, सुवर्णदान, भूमिदान, विद्यादान और अभय दान – ये आठ प्रकार के दान हैं परंतु इनसे भी एक विलक्षण दान है जो सत्संग दान है। कन्यादान लेने के बाद भी जमाई शराबी-जुआरी हो सकता है, चोर हो सकता है लेकिन सत्संग-दान मिलता है तो शराबी की शराब छूट जाती है, भँगेड़ी की भाँग छूट जाती है। अभिमानी का अभिमान कम हो जाता है, चिंतावालों की चिंता कम हो जाती है, पापी के पाप कम हो जाते हैं और किये हे पाप का क्लेश भी सत्संग से दूर हो जाता है।

सत्संग के बिना मनुष्य सच्चा भक्त भी नहीं बन सकता और सच्ची भक्ति के बिना परमात्मा की कृपा का पता भी नहीं चल पाता। भक्ति शुरू करनी हो तो भी सत्संग चाहिए। नीतिमत्ता का स्तर ऊँचा लाना हो तो भी सत्संग चाहिए। तन का स्वास्थ्य सुधारना हो तो भी सत्संग चाहिए और मन का स्वास्थ्य सुधारना हो तो भी सत्संग चाहिए।

इसलिए जो लोग संत और समाज के बीच सत्संग-आयोजन के दैवी कार्य में साझेदार होते हैं, सत्संग पर आधारित शास्त्रों को लोगों तक पहुँचाने में तन-मन-धन से लगे रहते हैं, वे दिव्य दान के पुण्यभागी होते हैं।

एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 213

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